Tuesday 10 February 2015

ईश्वर को प्राप्त करने में केवल मनोदशा बाधक हैं

ईश्वर को प्राप्त करने में केवल मनोदशा बाधक हैं, स्त्री बच्चे नहीं? वैराग्य मोह जनित दृष्टिकोण के त्यागने को कहते हैं, लोग और ममता तो साधु को अपनी कुटी और लंगोटी में रह सकती है और वह भी उतनी ही बन्धन रूप हो सकती हैं जितना विशाल वैभव। आत्म कल्याण के लिए अमुक प्रकार का वेश या अमुक स्थान आवश्यक नहीं, इसके लिए तो आन्तरिक दुर्बलताओं को जीतना पड़ता है। यह कार्य घर के त्याग या संन्यासी का वेष बना लेने से अवश्य ही हो जायेगा इसका कुछ भी निष्प्रय नहीं। क्योंकि देखा जाता है कि अधिकांश साधु वेशभूषाधारी चरित्र और मानसिक स्तर को दृष्टि से साधारण श्रेणी के लोगों से भी गये बीते होते है। यदि वेश बदलने से ही आत्म उन्नति होती तो इन इतने बहु संख्यक साधुओं की क्यों नहीं होती? इसके अतिरिक्त यदि गृहस्थ परमार्थ साधन में बाधक ही है तो फिर एक एक देवता सप्त्नीक क्यों है? प्राचीन काल के सभी ऋषि इसे क्यों स्वीकार करते रहे? अगणित महापुरुष और तत्त्वदर्शी गृहस्थ में रहते हुए किस प्रकार परमगति प्राप्त करने के अधिकारी हो सके।
जो लोग सोचते हैं कि परमार्थ साधन के लिए ग्रह त्याग आवश्यक है, या वेश बदले बिना काम न चलेगा, उन्हें भारतीय ऋषि परम्परा और अध्यात्म विद्या के मूल दर्शन पर गम्भीरता से विचार करना होगा। जितना-जितना वे गहराई में उतरेंगे उतना ही निश्चय होता जाएगा कि वेष बदलने से काम न चलेगा। आत्म कल्याण के लिए जिस वस्तु के बदलने की आवश्यकता हैं वह है आन्तरिक दृष्टिकोण और यह परिवर्तन गृहस्थ में रहकर भी हो सकता है। फिर वेष बदलने की उस अण्ड-चण्ड प्रक्रिया को क्यों अपनाया जाय, जो आज की परिस्थितियों में अनावश्यक ही नहीं अवांछनीय भी है। 

1 comment:

  1. सांसे पकड सकते है अगर अपनी शक्ति अनुसार और प्राण वायु मस्तिककी ओर चले जाये तो मनुष्य मनके ऊपर निकल जाता है।

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