Tuesday 3 February 2015

कोई यात्रा अधूरी नहीं होती ,चलिए प्रारम्भ करें

परम आत्मा / परम तत्व
परमात्मा कोई ब्यख्ति नही , एक उर्जा , एक शक्ति , शुद्ध बुद्ध आनंदमय
चेतना है । सामान्य ब्यख्ति को समझाने के लिए उसका मानवीकरण कर
दिया गया है । आज का विज्ञानं जहाँ तक आ सका है उससे और आगे
जो अल्टीमेट रियालिटी , द वोन्ली लास्ट एलीमेंट , सबके पीछे है , वह
परमात्मा है । सम्पूर्ण श्रृष्टि इसी परमात्मा का विविध स्वरुप , पर्याय ,
प्रतिकृति , विपर्यय और विवर्त है । सम्पूर्ण अस्तित्व , सत् और असत यही है ।
श्रृष्टि के विविध रूपों में हर इकाई में चाहे वह जड़ हो अथवा चेतन ,
यही परमात्मा ब्याप्त है । सभी जड़ चेतन इकाइयां भी इसी में पूर्ण रूपेण
निमज्जित हैं । सो यह आत्मा सबके भीतर बाहर और सबके चारो तरफ़ ब्याप्त है ,
जैसे तालाब में घड़ा और घड़े में पानी । " हरि ब्यापक सर्वत्र समाना " सभी में ,
हर स्थान पर , हर समय और एकदम बराबर बराबर । - राम चरित मानस ।
"ईशावाश्यम इदम् सर्वम् यत् किंच जगत्यांजगत " इस जगत में तथा इसके बाहर और
भीतर भी वही आत्मा ब्याप्त है । और सोअहमस्मि अर्थात जो वह आत्मा है
वही मै भी हूँ - इशावाश्योपनिषद /१ और १६ । " तत् त्वम् असि = तत्वमसि "
अर्थात तुम भी वही आत्मा हो । पुनः , " सर्व खलु इदम् ब्रह्म " निश्चय ही यह
सब ब्रह्म ही है -उपनिषद । हमारे दर्शन में वेदांत ने ऐसे उत्तर दिए हैं जिनके बाद
कोई सवाल ही नहीं उठाये जा सकते । सारे प्रश्न इन उत्तरों से हमेशा हमेशा के
लिए गिर जाते हैं । उस आत्मा के अलावां कुछ भी नहीं है ।
गीता में कृष्ण कहते हैं , तुम हमें जहाँ भी जिस रूप में खोजना चाहोगे , वहीँ ,
उसी में , मै तुम्हे मिल जाऊँगा । जो मिलेगा , वह परमात्मा ही होगा और कुछ
है ही नहीं सकता और न मिलने का सवाल ही बनता है । वही माता-पिता ,
वही बन्धु -सखा , वही आचार्य -विद्या , वही क्षात्र - ज्ञान , वही धन , बल ,
बुद्धि , कौशल , वही पद प्रतिष्ठा और वही समस्त सुख दुःख और वही जीवन
तथा वही मृत्यु है । वह आत्मा हमारे बाहर भी और भीतर भी है , वही मन्दिर ,
मस्जिद , गिरजाघर , पहाड़ , नदी , जंगल , पर्वत और सागर सब में है । जो अपने
अन्दर खोजते हैं या जो बाहर मन्दिर मस्जिद में , धन दौलत में , प्रेम दुशमनी में ,
सबको मिलेगा , उसके खोज अनुसार । "पुण्यात्मा में मै ही पुण्य और
पापात्मा में मै ही पाप हूँ " - गीता में कृष्ण । परन्तु ध्यान रहे की खोज करने
की हमें स्वतंत्रता है और उसी खोज के अनुसार वह हमें मिलेगा । इसलिए ,
खोजना , पूजा - पाठ , साधना तपस्या सब हमारे लिए ही है । इबादत ,
प्रार्थना सब हमारी और हमारे मतलब की है । उसके लिए इन सब का कोई अर्थ
नहीं है । बुलाओगे तो आयेगा , तुम्हारे भीतर से ही , क्यों कि वहीँ तो है ,परन्तु
लगेगा बाहर से आ रहा है । और बाहर से भी आ सकता है क्योंकि बाहर भी है ।
किस रूप में आए गा ; जिस रूप में हम बुलाएँगे ।
बस्तुतः ईश्वर को जानना अपने को ही जानना है । अपने को जान
लिया तो ईश्वर मिल गया या ईश्वर को जान लिया तो अपनी समझ आ गई ,
बस यही है सारा खेल । " कोऊ कह सत्य , झूंठ कह कोऊ ; जुगल प्रबल कोऊ माने
। तुलसिदास परिहरै तीन भ्रम सो आपुन पहिचाने "
परमात्मा को खोजना ही बड़ी बात है , इतनी बड़ी खोज , मिले तो बहुत न
मिले तो बहुत ; खोज तो सबसे बड़ी ही है , दुनिया में ।
विलासिता कि सर्वोत्तम स्थिति है ज्ञान और बुद्धि कि विलासिता ।
भौतिक विलासिता से पूर्णतया भिन्न अलौकिक है बुद्धि - विलास और
बुद्धि विलास कि महा मंजिल है , ईश्वर की , आत्मा की खोज । इस खोज
की हवा जिसे लग जाय उसके आनंद की क्या सीमा , उसका क्या वर्णन ।
उसकी खोज का प्रारम्भ ही उसका मिलना है , रही बात खोज कैसी है ।
टैगोर गीतांजलि में कहते हैं , - हमने उसे बुलाया और यदि वो आ गया तो हम न
जाने के बीस बहने बनने लग जाते हैं । हमारी प्रार्थना सच्ची नहीं है । वह
तो तैयार है मिलने को , हम मन से प्रार्थना ही नही करते , या उसको पाने
का बनावटी प्रयास करते हैं । " जिन खोजा तिन पाया गहरे पानी पैठ " कबीर
दास । कोई यात्रा अधूरी नहीं होती ,चलिए प्रारम्भ करें ।

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