Friday 6 February 2015

भगवान कृष्ण योगेश्वर माने जाते हैं

मध्यकाल में यह मान्यता चल पड़ी कि गृहस्थ त्यागे बिना, संन्यास धारण किये बिना आत्मिक स्पष्टता नहीं हो सकती। बौद्ध और जैन धर्मों ने इस विचारधारा का प्रसार किया। बुद्ध ने राजपरिवार में जन्म लेकर स्त्री बच्चों को त्यागकर युवावस्था में संन्यास ग्रहण किया था। उनका प्रभाव जिन पर पड़ा उनने भी उनका अनुकरण किया और लाखों नर-नारियों ने पारिवारिक जीवन को तिलाञ्जलि देकर भगवा वस्त्र धारण कर लिए। भारत में सहस्रों मठ जगह जगह पर बन गये जिनमें भारी संख्या में भिक्षु भिक्षुणी रहने लगे।
चूँकि यह गृहत्याग आवेश में होता था, अनुकरण ही उनका प्रधान आधार था। संन्यास के लिए जिस पूर्व भूमिका की आवश्यकता होती हैं वह उन अनजानों में होती न थी। फलस्वरूप कुछ ही समय में बौद्ध मठ दुराचार के केन्द्र बन गये। वज्रयान हीनयान जैसी तान्त्रिक प्रक्रियाएँ उनमें से फूट पड़ी, भैरवी चक्रों में व्यभिचार व्याप्त हो गया। बिना पूर्व तैयारी के संन्यास गृहत्याग जैसे अत्यन्त कठिन कार्य को कन्धे पर उठ लेने के जैसे परिणाम होने चाहिए थे वैसे ही हुए।
प्राचीन काल में ऐसी पद्धति न थी। संन्यास कोई ब्रह्मचार्य न था वरन् एक मानसिक स्थिति मात्र थी। जिस प्रकार ब्रह्मचर्य पूर्ण होकर गृहस्थ धर्म अपनाने पर साधारण और स्वाभाविक मानसिक एवं रहन सहन सम्बन्धी परिवर्तन अपने आप हो जाता हैं वैसे ही गृहस्थ से वानप्रस्थ और वानप्रस्थ से संन्यास की मनोभूमि में प्रवेश करते समय बाह्य जीवन में कोई भारी परिवर्तन नहीं करना पड़ता था।
ऋषि युग के सभी ऋषि मुनि गृहस्थ थे। उन सब के स्त्रियाँ तथा बच्चे थे। उनमें से कुछ परिव्राजक बनकर भ्रमण का कार्यक्रम अपनाते थे या सदा ब्रह्मचारी रहना चाहते थे वे विवाह नहीं भी करते थे पर ऐसे ऋषियों की संख्या उँगलियों पर गिनते लायक ही थी। अधिकांश तो पारिवारिक जीवन के साथ ज्ञान, धर्म तथा आत्म कल्याण की साधना में संलग्न रहते थे।
योग के आदि प्रणेता भगवान शंकर स्वयं विवाहित थे। उनके दो विवाह हुए थे, सती और पार्वती उनकी दो स्त्रियाँ हुई। दो बच्चे थे कार्तिकेय और गणेश। भगवान कृष्ण योगेश्वर माने जाते हैं। गीता का महान् ज्ञान उन्हीं के द्वारा निःसृत हुआ हैं, वे भी गृहस्थ ही थे। पौराणिक गाथाओं के अनुसार तो उनकी अनेक स्त्रियाँ तथा बहुत संख्या में बालक थे। सृष्टि के आदि निर्माता ब्रह्मा की भी दो पत्नी थी सावित्री और गायत्री। उनके दस पुत्र उत्पन्न हुए। मानव जाति के आदि संस्कार कर्ता मनु के शतरूपा के साथ बहुसंख्यक संतान उत्पन्न कीं।
सप्त ऋषियों में से सातों ही गृहस्थ थे। कश्यप की पत्नी अदिति, वशिष्ठ की अरुन्धती, अत्रि की अनसूया, गौतम की अहिल्या, जमदग्नि की रेणुका, भारद्वाज की पैठिनसी, विश्वामित्र की हेमवती थी। इन सभी की सन्तानें थी। भृगु, अंगिरा, कृतु पुलह, प्रचेता, मरीचि पुलस्त, उछालक, कन्ध, याज्ञवल्क्य, पिप्पलाद दधीचि श्रंगी, धौम्य, उत्तंग, आदि सभी ऋषियों के सपलीक तथा सन्तानयुक्त होने का पुराणों में विस्तार पूर्वक वर्णन हैं।
उस जमाने में वन अधिक थे। रहन सहन की पद्धति उस युग के अनुसार ही थी। बड़े नगर न थे। नदी सरोवरों के तट पर जल की सुविधा की दृष्टि से छोटे छोटे आश्रम बनाकर रहने की एक सरल पद्धति सभी लोग अपनाते थे। औद्योगिक या यातायात सम्बन्धी सुविधाएँ न होने से समीप में ही उपलब्ध वस्तुओं से लोग चलाते थे। मिट्टी के पात्र नारियल या लौकी के कमण्डलु, मृगचर्म या वल्कल वसन, उस समय सुविधा से उपलब्ध थे। घने जंगलों में जो वृक्ष गिर पड़ते थे वे रास्ता रोकते थे, भूमि घेरते थे। उसको साफ करने तथा अहिंसक पशुओं को अग्नि का डर दिखाकर आश्रमों की रक्षा करने के लिये धूनी जलती रहती थी। उसे समय की यह स्वाभाविक प्रक्रिया थी। उच्चकोटि के विद्वान्, दार्शनिक वैज्ञानिक, शिल्पी, चिकित्सक, शिक्षक, अन्वेषक, इसी प्रकार का जीवन यापन करते थे। ईश्वर उपासना के साथ उनके आश्रमों में बड़ी-बड़ी प्रयोगशालाएँ, शिक्षण संस्थाएँ, चिकित्सालय, साहित्य सृजन आदि के कार्यक्रम भी चलते थे। चरक, सुश्रत, विश्वकर्मा, चाणक्य व्यारा, पाणिनि, आर्यभट्ट, नागार्जुन आदि ऋषियों की महत्ता विश्वभर में विख्यात था। तक्षशिला और नालन्दा के गुरुकुल इसने विशाल थे कि उनमें संसार के कोने कोने से सहस्रों छात्र आकर अध्ययन करते थे। इन गुरुकुलों को चलाने वाले ऋषि गृहस्थ ही थे।
इतिहास और पुराणों का पन्ना पन्ना साक्षी हैं कि भारत में उच्च कोटि के युग निर्माता ऋषि गृहस्थ ही थे। ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास की मनोभूमि में वे परिवर्तन करते रहते थे पर इसके लिए उन्हें सम्बन्धियों तथा निवास स्थानों को छोड़ने की आवश्यकता न पड़ती थी।

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