Friday 6 February 2015

संपूर्ण पापों से छुटकारा पाकर अवश्य ही ब्रह्म को प्राप्त कर लेते हैं।”

यों तो योग-साधन द्वारा क्रमशः आत्मोत्कर्ष का सरल और अनुभव गम्य विधान वही है, जो पातंजलि के ‘योग दर्शन’ में बतलाया गया है, अर्थात् मन, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा और समाधि। इसको जो कोई भी सामान्य रीति से करता रहेगा, वह शारीरिक, मानसिक और आत्मिक दृष्टि से अवश्य उन्नति करता जायेगा। यह ठीक है कि प्रत्येक व्यक्ति की प्रगति एक समान नहीं हो सकती, कुछ लोग थोड़े ही प्रयत्न और समय में महत्वपूर्ण शक्तियाँ प्राप्त कर लेते हैं और अन्य वर्षों तक लगे रहकर शारीरिक निरोगिता, मानसिक एकाग्रता, आत्मिक प्रसन्नता की दृष्टि से थोड़ा ही अग्रसर हो पाते हैं। इस अन्तर का एक कारण जहाँ वर्तमान जीवन में साधनों की श्रेष्ठता और संकल्प की दृढ़ता होता है, वहाँ दूसरा कारण पूर्व जन्म के संस्कारों का इस महान् उद्देश्य के अनुकूल होना भी होता है। इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए गीता में कहा गया है-



“जो व्यक्ति किसी एक जन्म में योग-भ्रष्ट हो जाता है, वह अन्य जन्म में उस पहिले शरीर में साधन किये हुये योग-संस्कारों को प्राप्त हो जाता है और उसके प्रभाव से फिर भगवत्प्राप्ति के लिये प्रयत्न करता है। यद्यपि पिछले जन्म में वह विषयों से आकर्षित हो जाने के कारण योग-सिद्धि के लक्ष्य में असफल हो जाता है, पर पूर्व संस्कारों के प्रभाव से इस जन्म में फिर बहुत ऊँचा उठ सकता है। जब ऐसे मन्द प्रयत्न करने वाले योगी भी उच्च-गति को प्राप्त हो सकते हैं तो जो अनेक जन्मों से योग मार्ग पर चलते आये हैं, उनके सम्बन्ध में क्या कहना? वे तो संपूर्ण पापों से छुटकारा पाकर अवश्य ही ब्रह्म को प्राप्त कर लेते हैं।”

योग-शास्त्र में साधना के जो सर्वमान्य नियम दिये गये हैं, उनके सिवाय अध्यात्म-विद्या के ज्ञाताओं ने, इस मार्ग में शीघ्र प्रगति करके कुछ बहुत महत्वपूर्ण शक्तियाँ प्राप्त कर लेने की जो विधियाँ अथवा योग-शाखायें निकाली हैं, उनमें ‘कुण्डलिनी-योग’ का विशेष स्थान है। इससे शरीर में एक ऐसी शक्ति का आविर्भाव होता है, जिससे मनुष्य की चैतन्यता बहुत अधिक बढ़ जाती है और वह जब चाहे तब स्थूल-संसार के बजाय सूक्ष्म-जगत की स्थिति का अनुभव कर सकता है और एक संकीर्ण क्षेत्र में रहने के बजाय विशाल-विश्व की गतिविधि को देखने लगता है। ‘हठ-योग प्रदीपिका’ में कुण्डलिनी शक्ति’ के महत्व का वर्णन करते हुए कहा है-



“जिस प्रकार सम्पूर्ण वनों सहित जितनी भूमि है, उसका आधार सर्पों का नायक (शेषनाग) है, उसी प्रकार समस्त योग साधनाओं का आधार भी कुण्डली ही है, जब गुरु की कृपा से सोयी हुई कुण्डली जागती है, तब सम्पूर्ण पद्य (षट्चक्र) और ग्रन्थियाँ खुल जाते हैं। और उसी समय प्राण की शून्य पदवी (सुषुम्ना), राजपथ (सड़क) के समान हो जाती है, चित्त विषयों से रहित हो जाता है और मृत्यु का भय मिट जाता है।”

अन्य शास्त्रों तथा विशेषकर तन्त्र ग्रन्थों में कुण्डलिनी के स्वरूप तथा उसके उत्थान का विवेचन करते हुए कहा है कि “कुण्डलिनी शक्ति मूलाधार में शक्ति रूप में स्थित होकर मनुष्य को सब प्रकार की शक्तियाँ, विद्या और अन्त में मुक्ति प्राप्त कराने का साधन होती हैं।” गुदा स्थान से दो अँगुल ऊपर और लिंग मूल से दो अँगुल नीचे की तरफ बहुत छोटे आकार वाला मूलाधार पद्य है। उसके बीच में तेजोमय लाल वर्ण का ‘क्लीं’ बीज रूप से स्थित है। उसके ठीक बीच में ब्रह्म-नाड़ी के मुख पर स्वयम्भूलिंग है। उसके दाहिने और साढ़े तीन फेरा खाकर कुण्डलिनी शक्ति सोई हुई है। इस कुण्डलिनी को ‘परमा-प्रकृति’ कहा गया है। देव, दानव, मानव, पशु-पक्षी, कीट-पतंग सभी प्राणियों के शरीर में कुण्डलिनी शक्ति विराजमान रहती है।

कमल-पुष्प में जिस प्रकार भ्रमर अवस्थित होता है, उसी प्रकार यह भी देह में रहती है। इसी कुण्डलिनी में चित्-शक्ति (चैतन्यता) निहित रहती है। इतनी महत्वपूर्ण होने पर भी लोग उसकी तरफ ध्यान नहीं देते, यह आश्चर्य का विषय है। यह अत्यन्त सूक्ष्म शक्ति है। 

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