Friday 6 February 2015

उद्धार का मार्ग प्राप्त करने के योग्य बना देते हैं।

कुण्डलिनीवाजिश्रवा ने अपने पुत्र नचिकेता के लिये यज्ञ फल की कामना से विश्व जित यज्ञ आयोजित किया। इस यज्ञ में नचिकेता ने अपना सारा धन दे डाला। दक्षिणा देने के लिये जब वाजिश्रवा ने गौयें मँगाई तो नचिकेता ने देखा वे सब वृद्ध और दूध न देने वाली थी तो उसने निरहंकार भाव से कहा- “पिता जी निरर्थक दान देने वाले को स्वर्ग की प्राप्ति नहीं होती।” इस पर वाजिश्रवा क्रुद्ध हो गये और उन्होंने अपने पुत्र नचिकेता को ही यमाचार्य को दान कर दिया।

यम ने कहा- ‘वत्स! मैं तुम्हें सौंदर्य यौवन, अक्षय धन और अनेक भोग प्रदान करता हूँ किन्तु नचिकेता ने कहा जो सुख क्षणिक और शरीर को जीर्ण करने वाले हों उन्हें लेकर क्या करूंगा, मुझे आत्मा के दर्शन कराइये। जब तक स्वयं को न जान लूँ वैभव विलास व्यर्थ है।

साधना के लिये आवश्यक प्रबल जिज्ञासा, सत्यनिष्ठा और तपश्चर्या का भाव देखकर यम ने नचिकेता को पंचाग्नि विद्या (कुंडलिनी जागरण) सिखाई, जिससे नचिकेता ने अमरत्व की शक्ति पाई।भारतीय योग-साधन का मुख्य उद्देश्य जीवनमुक्त स्थिति का प्राप्त करना है। अभी तक प्राणियों के विकास को देखते हुए सबसे ऊँची श्रेणी मनुष्य की है, क्योंकि उसको विवेक और ज्ञान के रूप में ऐसी शक्तियाँ प्रदान की गई है, जिनसे वह जितना चाहे, ऊँचा उठ सकता है और कैसा भी कठिन कार्य हो उसे अपनी अंतरंग शक्ति से पूरा कर सकता है। संसार के अधिकाँश मनुष्य बाह्य जीवन में ही रहते हैं और प्रत्येक कार्य के लिये धन-बल शरीर-बल और बुद्धि-बल का प्रयोग करने के मार्ग को ही आवश्यक मानते हैं। इन तीन बलों के अतिरिक्त संसार के महान कार्यों को सिद्ध करने के लिये जिस चौथे ‘आत्म-बल’ की आवश्यकता होती है, उसके विषय में शायद ही कोई कुछ जानता है। पर वास्तविकता यही है कि संसार में आत्म-बल ही सर्वोपरि है और उसके सामने और कोई बल नहीं टिक सकता।

यह ‘आत्म-बल’ या ‘आत्म-शक्ति’ प्रत्येक व्यक्ति में न्यूनाधिक परिणाम में उपस्थित रहती है, उसके बिना मनुष्य का अस्तित्व ही नहीं रह सकता। पर जिन मनुष्यों में किसी प्रकार उसका विशेष रूप से प्रादुर्भाव हो जाता है, वे ही संसार में महान् अथवा प्रमुख पद को प्राप्त कर सकते हैं। यह शक्ति कुछ लोगों में जन्मजात रूप से ही होती है और वे बिना किसी विशेष साधन के, अभाव और कठिनाइयों की परिस्थितियों में रहते हुए भी, अंतरंग शक्ति के प्रभाव से ही अपने आस-पास के लोगों से ऊपर पहुंच जाते हैं। कुछ व्यक्तियों में यह धीरे-धीरे विद्या, बुद्धि संयम, नियम पूर्ण जीवन के साथ साथ बढ़ती जाती है। इस प्रकार वे बहुत ऊँचा चढ़ जाते हैं, पर यह वृद्धि क्रमशः होने के कारण उनको इसका अनुभव नहीं होता, और न लोग इसके कारण पर पूरी तरह ध्यान देते हैं।

हमारे शास्त्रों में कहा गया है ‘निर्बल-आत्मा’ कोई महान् कार्य नहीं कर सकती वरन् अनिश्चय, अनुत्साह और अविश्वास के कारण वह अपना जीवन नगण्य अथवा पदावनत स्थिति में ही बिता कर अपनी जीवन-लीला समाप्त कर लेता है। पर जो लोग अपनी निर्बलता अथवा त्रुटियों को समझ कर उनको दूर करने के लिये योग-मार्ग का आश्रय ग्रहण करते हैं, वे धीरे-धीरे अपनी निर्बलता को सबलता में बदल देते हैं और साँसारिक नियमों में ही सफल मनोरथ नहीं होते वरन् आध्यात्मिक क्षेत्र में भी वे ऊँचे उठते हैं। वे स्वयं अपना कल्याण साध नहीं नहीं करते वरन् अन्य सैकड़ों व्यक्तियों को हीनावस्था से छुटकारा पाकर उद्धार का मार्ग प्राप्त करने के योग्य बना देते हैं।

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