Friday 29 May 2015

वो मधुरता वाणी में होती है

. नमक के कितने भी बोरे पड़े रहे,एक चीटी भी नहीं लगती...
और शक्कर की एक डली भी रखी हो तो हजारो चींटी आ
जाती है....
ऐसे ही जिस व्यक्ति के स्वभाव में मधुरता होगी, वहां लोग
स्वयं ही पहुँच जायेगें....
और यदि नमक जैसा खारा बने रहोगे,तो कितना भी
बुलाना,कोई भी आना पसन्द नहीं करेगा...
जो मधुरता भोजन में नहीं होती, वो मधुरता वाणी में होती है !! 

देखो , उस वृक्ष में लगे पत्ते को जो अब पीला पड़ गया है , और
देखो कि उसके वृक्ष से अलग होने का समय भी आ गया ।
कभी वह कोपलों के रूप मे उत्पन्न हुआ था , अठखेलियां करता
था हवाओं के साथ , जब वह प्रौढ़ हुआ तब सर्दी , गर्मी और
बरसात मे आनंदित होता था , मस्ती में ऐसे झूमता था जैसे सब
दिन ऐसे ही गुजरेंगे , लेकिन वह नादान था ।
अब देखो उसके यह दिन भी ढ़ल गये ... 
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उसे टूटना होगा उस वृक्ष से
जो उसे दुनिया मे लाया और पोषण दिया , बिछड़न की घड़ी आ
ही गई ...शायद अब फिर कभी जुड़ न सकेगा …!
....देखो वह पीला पत्ता हवा के एक झोंके के साथ ड़ाल से अलग
हो गिर रहा है ......और गिर ही गया …!! 
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इससे घर के कलह मिटकर सुख-शांति स्थापित होती है ,

यह प्रयोग एक तीब्र प्रभाव कारी प्रयोग है जिसे पूर्ण करने से हनुमान की कृपा प्राप्त होती है और यदि घर में भूत-प्रेत-पिशाच आदि का प्रकोप हो या घर में उपद्रव होते हों ,घर में लड़ाई -झगडा -असंतोष हो ,कलह ,मार-पीट होती हो ,नकारात्मक ऊर्जा का असर हो तो सब समस्याएं समाप्त हो जाती हैं और सकारात्मक उर्जा का संचार होता है |
आवश्यक सामग्री := मंत्र सिद्ध चैतन्य प्राण प्रतिष्ठित पारद हनुमान मूर्ती ,मंत्र सिद्ध चैतन्य प्रतिष्ठित मूंगे की माला ,जल पात्र ,तेल का दीपक ,धुप-अगरबत्ती ,गुड आदि |
मंत्र :- ॐ घंटाकर्णो महावीर सर्व उपद्रव नाशन कुरु कुरु स्वाहा |
विधि =किसी भी मंगलवार की रात्री को स्नान कर लाल धोती पहनकर, लाल ऊनि आसन पर पश्चिम दिशा की और मुखकर बैठे ,अपने सामने चौकी या बाजोट पर लाल वस्त्र बिछाकर किसी पात्र में प्राण प्रतिष्ठित पारद हनुमान की मूर्ति को स्थापित करे |सर्वप्रथम हनुमान जी को सनान कराकर उनकी पूजा करें ,सिन्दूर का तिलक करें और गुड का भोग लगायें ,फिर लाल मंत्र सिद्ध चैतन्य मूंगे की माला से मंत्र जप करें ,,मंत्र नित्य २१०० की संख्या में होना चाहिए अर्थात इक्कीस माला नित्य ,यह क्रम ११ दिनों तक अनवरत चलता रहेगा ,अंतिम दिन अथवा उसके अगले दिन २१०० की संख्या में हवन करें और किसी बालक को भोजन कराकर उसे लाल वस्त्र दान दें ,ऐसा करने से यह प्रयोग सिद्ध हो जायेगा और यदि घर में किसी प्रकार का उपद्रव-अशांति है तो उसका शमन होगा |प्रयोग समाप्त होने पर हनुमान की मूर्ति को पूजा स्थान में स्थापित कर दें और रोज पूजा करते रहें |यह प्रयोग सफल एवं सिद्ध है ,इससे घर के कलह मिटकर सुख-शांति स्थापित होती है ,सकारात्मक उर्जा का प्रवाह बढ़ता है और उन्नति होती है 

Friday 22 May 2015

उनसे असंख्य जीवों का उद्धार हो रहा है

राम कृष्ण परमहंस
श्री रामकृष्ण का जन्म 17 फरवरी 1836 को एक श्रेष्ठ ब्राह्मण परिवार में बर्दवान के पास कामारपुकुर गाँव में हुआ था। इनके पिता श्री क्षुदिराम चट्टोपाèयाय जहाँ परम सन्तोषी, सत्यनिष्ठ व त्यागी पुरुष थे वहीं उनकी माता चन्द्रमणि देवी दयालुता एवं सरलता की साक्षात मूर्ति थी। बचपन में श्री रामकृष्ण का नाम गदाधर था। पाँच वर्ष की आयु में उन्हें पाठशाला भेजा गया जहाँ सांसारिक शिक्षा उन्हें मे नहीं रूचि थी परंतु एक विलक्षण बात यह थी कि वे रामायण, महाभारत, गीता के श्लोक या उपाख्यान एक बार सुनकर ही अधिकांश को कंठस्थ कर लेते थे। गाँव की अतिथि शाला में ठहरे साधु-संतों के साथ यह बालक घंटों बैठा रहता, उनके बीच हो रही चर्चा को ध्यान पूर्वक सुनता तथा उनकी सेवा करने में विशेष आनन्द की अनुभूति करता। कहा जाता है अवतारी पुरुषो में कितने ही ऐसे गुण छिपे रहते हैं कि उनका अनुमान करना कठिन होता है। बालक गदाधर की स्मरण शक्ति तो विशेष तीव्र थी ही साथ ही उन्हें गाने की भी रूचि थी, विशेषत: भक्तिपूर्ण गानों के प्रति। एक बार पास के गाँव जाते समय बालक गदाधर रास्ते में काले बादलों के बीच उड़ते हुए बगुलों की श्वेत पंक्ति को देखकर संज्ञा शून्य हो गया परंतु वास्तव में वह भाव समाधि थी। बाल्यावस्था में पिता की मृत्यु के बाद श्री रामकृष्ण अपने ज्येष्ठ भ्राता श्री रामकुमार के साथ कलकत्ता आ गये जहाँ वे दक्षिणेश्वर में रानी रासमणि द्वारा निर्मित काली मंदिर में पुजारी नियुक्त हुए। साधारण पुजारियों की भाँति वे कोरी पूजा ही नहीं करते थे। वरन् एक अलौकिक भावादेश में èयानावस्थित हो श्री काली देवी पर पुष्प चढ़ाते थे, आँखों में अश्रुधारा, तन-मन की सुध नहीं, हाथ काँप रहे हैं, हृदय में उल्लास, मुख से शब्द नहीं निकले, घंटी, आरती सब किनारे ही पडी रहीं बस श्री काली जी पर पुष्प चढा रहे हैं स्वयं में भी उन्हीं को देख रहे हैं कम्पित हाथों से अपने ही ऊपर फूल चढाने लगते हैं कहते हैं माँ-माँ-तुम-मैं-मैं-तुम...........और समाधिस्थ हो जाते हैं। उनके हृदय की पराकाष्ठा उस दिन हो गयी जब व्यथित होकर माँ के दर्शन के लिए मंदिर में लटकती तलवार उठाकर अपना शरीरान्त करने को उद्यत हुए तो उन्हें जगन्माता का अपूर्व अद्भुत दर्शन हुआ और वे देहभाव भूलकर बेसुध होकर जमीन पर गिर पड़े। तदन्तर उनके अंत: करण में केवल एक प्रकार का अद्भुत आनन्द का प्रवाह बहने लगा। घर के लोगों ने समझा कि श्रीरामकृष्ण के मष्तिष्क में कुछ वायु विकार हो गया है। किसी ने सलाह दी कि इनका विवाह कर दिया जाये तदनुसार मई 1859 में इनका विवाह जयराम बाटी ग्राम के श्रीरामचन्द्र मुखोपाèयाय की कन्या श्री सारदामणि से हो गया जिन्होंने जीवन भर पति को ईश्वर मानकर उनके सुख में अपना सुख देखा तथा आदर्श जीवन साथी बनकर उनकी सेवा की।
भावावेश होना, अन्तर-मुखी होना, प्रेमाश्रु बहाना इनका स्वभाव बन चुका था। इस अवस्था से आगे सविकल्प समाधि एवम् अंतिम निर्विकल्प समाध तक पहुँचने के लिए उनको मार्गदर्शक की आवश्यकता थी। यदि हम रामकृष्ण जी की साधना पर विचार करें तो यह निष्कर्ष निकलता है कि इनकी साधना को पूर्णता तक पहुँचाने के लिए तीन अलग-अलग स्तरों पर तीन महाशक्तियों का हाथ रहा है। उनके जीवन दर्शन का विस्तृत अèययन करने पर पता चलता है कि उनके तीन पथ प्रदर्शक थे। जब कभी साधना के क्षेत्र में वो उलझ जाते थे तो उन्हें एक अदभुत मार्गदर्शन मिलता था। इसका एक दृष्टान्त उन्हीं के शब्दों में दिया जा रहा है।
‘‘कोठरी के अंदर मैं रो रहा था। कुछ देर बाद मैं क्या देखता हूँ कि फर्श से एकाएक ओस की तरह धुआँ निकलने लगा ओर सामने के कुछ स्थल को उसने ढ़क दिया। तदन्तर उसके अंदर वक्ष: स्थलपर्यन्त लम्बी दाढ़ीयुक्त एक गौरवर्ण, सौम्य, जीवन्त मुखमण्डल दिखायी दिया। मेरी ओर निश्चल दृषिट से देखते हुए उस मूर्ति ने गंभीर स्वर में कहा- ‘अरे तू भावमुखी रह, भावमुखी रह, भावमुखी रह’।
इस प्रकार तीन बार इन शब्दों का उच्चारण करने के पश्चात वह मूर्ति धीरे-धीरे पुन: उसी ओर विलीन हो गयी और ओस की तरह वह धुआँ भी अन्तनिर्हित हो गया। इस प्रकार दर्शन पाकर मैं शान्त हुआ।’’
प्रश्न उठना स्वाभाविक है यह छाया कौन थी? जब कोई व्यक्ति साधना के प्रति बहुत इच्छुक होता हैं, कहीं किसी बिंदु पर कठिनाई में फंस जाता है, छटपटाने लगता है व किसी जीवित गुरु का मार्गदर्शन नहीं मिल पाता, ऐसी स्थिति में हिमालय की ऋषि संसद के महावतार बाबा उसको दिशा निर्देश देने वहीं पहुंच जाते हैं। ऐसा दृषटान्त कई बार देखने को मिलता है।
उच्चस्तरीय साधना में प्रत्यक्ष व स्थूल देहधरी गुरु का अपना बहुत महत्व है |
श्रीराम कृष्ण के जीवन में ऐसी दो महान विभूतियाँ थीं योगेश्वरी नामक भैरवी ब्राह्मणी एवम् श्रीयुत तोतापुरी जी महाराज।
योग्य व्यक्ति को शिक्षा प्रदान करने का अवसर उपस्थित होने पर गुरु के हृदय में परम तृप्ति तथा आत्म प्रसन्नता स्वत: ही उदित होती है। अत: श्री राम कृष्ण देव जैसे उत्तम अधिकारी को शिक्षा प्रदान करने का सुयोग प्राप्त कर ब्राह्मणी का हृदय आनंद से परिपूर्ण हो उठा।
ब्राह्मणी को उस समय साधक, विद्वान एवम् पण्डित वर्ग में विशेष सम्मान प्राप्त था। वह तन्त्रा, योग, शास्त्रा सभी में पारंगत थी। दैवी प्रेरणा से ब्राह्मणी रामकृष्ण के पास पहुँचती है। उसे यह देख कर अदभुत आश्चर्य होता है कि जिसे लोग पागल, वायुविकार ग्रस्त समझते हैं वह अवतारी स्तर की आत्मा है। वह दक्षिणेश्वर में पण्ड़ितों विद्वानों, साधको की एक सभा बुलाती है जिसमें विद्वानों के पाण्डित्यपूर्ण वाद विवाद के पश्चात वह सभी धर्मिक सम्प्रदायों के आचार्यो के सम्मुख यह सिद्ध करती है- ‘‘शास्त्रो में अवतारों के जो लक्षण होते हैं वो सभी रामकृष्ण देव के शरीर तथा मन में विद्यमान हैं।’’ इसके पश्चात उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैलने लगती है। विभिन्न पंथों के यात्री, साधू सन्यासी, फकीर, विचारक उनसे सलाह व शिक्षा लेने आने लगते हैं। परंतु अपने जीवन के अंतिम दिन तक रामकृष्ण एक सरल व्यक्ति ही बने रहे उनके अन्दर दम्भ व गर्व लेशमात्रा भी न था। वे भगवत उन्मत्तता में इस प्रकार विलीन रहते थे कि अपने बारे में सोचने का अवसर ही उन्हें न मिलता था।
भैरवी समस्त धर्मानुष्ठानों व साधनाओं में प्रवीण थी व ज्ञान के सब वर्गो से परिचित थी। इसलिए उसने शास्त्रोक्त विधि के सभी मार्गो की साधना करने के लिए रामकृष्ण को प्रोत्साहित किया। उसने रामकृष्ण को दो प्रकार की साधनाँए करायी। प्रेम मार्ग की, भक्ति मार्ग की साधनाँए एवं कठोर मार्ग की साधनाँए। प्रेमा भक्ति के द्वारा भगवान से मिलने के उन्नीस भावों का शास्त्रों में वर्णन मिलता है जैसे- स्वामी, सखा, भृत्य भाव, माता-पुत्र व पति-पत्नी भाव आदि। भक्त गण इन भावों में से किसी एक का आश्रय लेकर भगवान से अपना सम्बन्ध स्थापित करते हैं परंतु रामकृष्ण ने उन सभी भावों पर अपना अधिकार कर लिया था। जिन साधनाओं की सिध्दि में व्यक्ति को बारह-बारह वर्ष लगते है वो साधना अपनी अद्भुत एकाग्रता, समर्पण के कारण वो मात्रा तीन दिन में सिध्दि कर लेते थे।
दूसरे प्रकार की साधनामें वह रामकृष्ण देव को कठोर तन्त्रा साधना कराती है। यह मार्ग अत्यन्त पिच्छल तथा दुर्गम होता है, जिससे गुजरते हुए हर समय अर्ध पतन तथा पागलपन की गंभीर खंदक में गिरने का भय रहता है। इस पथ पर चलने का जिन्होंने भी साहस किया है, उनमें से बहुत ही कम व्यक्ति वापस आ सके हैं। परंतु पवित्रा रामकृष्ण उक्त पथ पर यात्रा करने से पूर्व जिस प्रकार निष्कंलक थे, उसी निष्कलक अवस्था में, बल्कि अग्नि में तपाए हुए इस्पात के समान पहले से भी दृढ़तर होकर वापस आए।
भैरवी ब्राह्मणी विभिन्न प्रकार के साधना अनुष्ठानों से गुजारती हुयी उन्हें सविकल्प समाधि की अवस्था तक पहुँचा देती है। जब वे उस उच्च स्थान पर पहुँच गए, जिसे कि अन्य सब व्यक्ति, यहाँ तक कि उनकी पथ प्रदर्शिका गुरु भैरवी भी अन्तिम शिखर मानती थी, तब भी वे वहाँ नहीं रूके और आरोहण की अन्य चोटी अन्तिम पर्वत शिखर की ओर देखने लगे, और वे उस शिखर तक पहुँचने के लिए बाèय थे। सन्त 1864 के अन्त में ठीक
उस समय जब रामकृष्ण ने साकार भगवान पर विजय प्राप्त कर ली थी, निराकार भगवान का सन्देशवाहक दक्षिणेश्वर में आया। ये अनन्य वैदान्तिक पण्डित व साधाक; दिगम्बरद्ध तोतापुरी थे। वे एक परिव्राजक सन्यासी थे, जिन्होंने निरन्तर चालीस वर्ष की कठोर साधाना के उपरान्त सिद्धि प्राप्त की थी। वे मुक्तात्मा थे- उनकी दृषिट सर्वथा निर्लिप्त भाव से इस मायामय विश्व का अवलोकन करती थी। उन्होंने देखा, मन्दिर का तरूण पुरोहित मंदिर की सीढ़ी पर बैठा हुआ अपने èयान के गुप्त आनन्द में निमग्न है। तोतापुरी उन्हें देखकर विस्मित हो गए। उन्होंने कहा, ‘‘वत्स! मैं देखता हूँ कि तुम पहले ही सत्य के मार्ग पर काफी दूर तक अग्रसर हो चुके हो। यदि तुम चाहो तो मैं तुम्हें इससे भी अगली सीढी तक पहुँचा सकता हूँ। मैं तुम्हें वेदान्त की शिक्षा दूँगा।’’
रामकृष्ण ने सहज सरल भाव से उत्तर दिया, ‘माँ से पूछ लूँ।’ उनकी इस सरलता ने उस कठोर सन्यासी को भी मुग्ध् कर दिया और वह मुस्कराने लगे। माँ ने अनुमति दे दी, और रामकृष्ण ने अत्यन्त नम्रतापूर्वक इस भगवत्प्रेरित गुरु के चरणों में पूर्ण विश्वास के साथ आत्म समर्पण कर दिया। रामकृष्ण समाधि की अन्तिम मंजिल-निर्विकल्प समाधि पर जिसमें कि द्रष्टा और दृश्य दोनों का ही लोप हो जाता हैं- पहुँच गए। विश्व का लोप हो गया। स्थान का भी विलय हो गया। प्रारम्भ में मन की गम्भीरता में विकारों की अस्पष्ट परछाइयाँ तैरने लगी। अहम की एक दुर्बल चेतना स्पन्दित होने लगी। परंतु बाद में वह भी शान्त हो गयी। अस्तित्व के अतिरिक्त और कुछ भी शेष न रहा। आत्मा परम सत्ता में विलीन हो गयी। द्वैत का लोप हो गया। ससीम व नि:सीम का विस्तार एकाकार हो गया। शब्द और विचार से अतीत होकर उन्होंने ब्रह्मज्ञान को प्राप्त कर लिया।
जिस सिध्दि को प्राप्त करने के लिए तोतापुरी को सुदीर्घ चालीस वर्ष का समय लगा था, रामकृष्ण ने वह अल्प समय में प्राप्त कर ली। जिस परम ज्ञान की प्राप्ति के लिए तोतापुरी ने रामकृष्ण को प्रबुध्द किया था उसके फल को देखकर वे स्वयं विस्मित हो गए। कई दिन तक रामकृष्ण का शरीर एक शव के समान कठोर अवस्था में बना रहा, जिसमें से ज्ञान की चरम सीमा को प्राप्त आत्मा के प्रशान्त प्रकाश की ज्योति विकीर्ण हो रही थी।
तोतापुरी अपने नियम के अनुसार तीन दिन से अधिक कहीं नहीं ठहर सकते थे। परंतु जो शिष्य अपने गुरु से भी कहीं आगे बढ गया था, उससे संलाप करने के लिए ग्यारह मास तक वहीं बने रहें। तोतापुरी ‘नागा’; नग्न रहने वालेद्ध सम्प्रदाय के अनुयायी थे वे विशालकाय तथा बलिष्ठ थे। उनका शारीरिक गठन बडा शानदार था। सिंहाकृति चट्टान के समान वे एकदम कठोर व दुर्धर्ष थे। उनका मन व शरीर दोनों ही इस्पात के बने हुए थे। कष्ट व बीमारी क्या वस्तु है, यह वे जानते ही न थे ओर उन्हें तुच्छ व उपहासास्पद समझते थे। परिव्राजक का जीवन व्यतीत करने से पूर्व वे पंजाब के एक मठ के सर्वेसर्वा थे, जिसमें सात सौ साधु रहते थे। वे एक ऐसी साधना-प्रणाली के गुरु थे, जो मनुष्यों के शरीर व मन को पत्थर के समान कठोर बना देती है। संसार व दुरूह माया पर विजय प्राप्त करने के लिए स्वयं को निष्ठुर व कठोरतम बना लेना व इस माया रूपी जंजाल को कुचलकर उस परम ब्रह्म तक पहुँचना ही इस साधनाप्रणाली का आधर है।
इस कठोर साधना प्रणाली का अभ्यास करने व लक्ष्य प्राप्त करने के उपरान्त भी हिमालय की ऋषि सत्ताँए लोक शिक्षण के उद्देश्य से रामकृष्ण देव को सौम्य व भावप्रधन देखना चाहती है। स्वामी रामकृष्ण परमहंस की मनोरम छवि का वर्णन नोबेल पुरूस्कार विजेता रोमाँ रोला अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ("The Life of Sri Ramakrishna by Romain Rolland") में इस प्रकार करते हैं-
‘‘रामकृष्ण का कद छोटा, रंग गोरा व छोटी दाढ़ी थी। उनकी सुन्दर, विस्तृत काली आँखे, जो प्रकाश के परिपूर्ण, तनिक तिरछी व अर्ध निमीलित मुद्रा में रहती थी, कभी पूरी न खुलती थी परंतु अदित अवस्था में भी वह बाहर और भीतर दूर दूर तक देख सकती थी। उनका मुख, उनकी शुभ्रदन्तावलि पर एक जादू भरी मुस्कान सबको अपने स्नेहपाश में बाँध्ती थी। क्षीणकाय व अत्यन्त कोमल उनकी प्रकृति असाधरण रूप से भावुक थी।
उनकी बोली घरेलू बंगला थी, जिसमें एक हल्का सा आनन्ददायक तोतलापन था। परंतु उनके शब्द, आèयात्मिक अनुभव की समृद्धि, उष्मा व रूपक के अक्षय कोष, विलक्षण निरीक्षण-शक्ति, उज्जवल तथा सूक्ष्म व्यंग-परिहास, आश्चर्यजनक सहानुभूति की उदारता और ज्ञान के अनन्त प्रवाह के द्वारा श्रोता को अपने वश में कर लेते थे।’’
श्रीयुत तोतापुरी जी महाराज गदाधर से स्वामी रामकृष्ण परमहंस के रूप में अपने शिष्य को विभूषित, प्रतिषिठत कर अपने गन्तव्य पथ पर आगे बढ़ जाते हैं। अब रामकृष्ण परमहंस जी वैदिक साधना पध्दति का अन्तिम शिखर पार कर अन्य धर्मो की ओर आकृष्ट होते हैं। सर्वप्रथम सन 1866 में वो सूफी गोविन्द राय से दीक्षा लेकर विधिवत इस्लाम धर्म के साधन में प्रवृत्त हुए। श्री रामकृष्ण कहते थे- ‘‘तब मैं ‘अल्ला’ मन्त्रा का जप किया करता था, मुसलमानों की तरह लाँग खोलकर धोती पहनता था, त्रिसंèया नमाज पढ़ता था और उस समय मेरे मन से हिन्दुत्व का भाव एकदम विलुप्त हो जाने के कारण हिन्दू देव देवियों को प्रणाम करना तो दूर रहा, उनके दर्शन करने तक की प्रवृत्ति नहीं होती थी। इस प्रकार तीन दिन बीतने के बाद मुझे उस मत का साधना फल सम्यक रूप से हस्तगत हुआ था।’’
इसी प्रकार सन 1874 र्इñ में उन्होंने र्इसार्इ धर्म की साधना की। कर्इ दिनों तक वह र्इसार्इ चिन्तन और र्इसा के प्रेम में ही निमग्न रहें। उनके दिल से मंदिर में जाने का विचार निकल गया। इस अवस्था में एक दिन अपराहन बेला में दक्षिणेश्वर के बगीचे में उन्होंने देखा कि एक शान्त मूर्ति, गौरांग पुरूष उनकी ओर चला आ रहा है। यद्यपि वे यह भी न जानते थे कि वह कौन हैं, तथापि वे अपने अज्ञात अतिथि के जादू के वशीभूत हो गए। वह उनके समीप आया और रामकृष्ण की आत्मा की गहरार्इ में किसी का सुमधुर कण्ठस्वर सुनार्इ दिया-
‘‘ उस र्इसा के दर्शन करो, जिसने विश्व की मुक्ति के लिए अपने हृदय का रक्त दिया है, जिसने मनुष्य के प्रेम के लिए असीमित वेदना को सहन किया है। यही वह श्रेष्ठ योगी है, जो भगवान के साथ शाश्वत रूप से संयुक्त है। यही र्इसा है जो प्रेम के अवतार है----।’’
रामकृष्ण तीर्थंकर जैन धर्म के सस्थांपक तथा दस सिख गुरु आदि सन्तों के लिए भी अपने हृदय में बड़ा आदर रखते थे। उनके कमरे में देवताओं के चित्राो के साथ र्इसा का चित्रा भी विद्यमान था, वे प्रतिदिन प्रात: व सायंकाल उनके सम्मुख धूप जलाया करते थे। बाद में भारतीय र्इसार्इ रामकृष्ण में र्इसा का प्रत्यक्ष प्रकाश देखने लगे और उन्हें देखकर भावाविष्ट होने लगे।
उन्होंने विभिन्न धर्मो की साधनाएं करके यह निष्कर्ष दिया कि सब धर्म अन्त में एक ही लक्ष्य पर पहुँचते है और धर्मिक विरोध भाव रखना मूर्खता है। वे अपने शिष्यों से कहते थे- ‘‘मैंने हिन्दू, मुसलमान, र्इसार्इ सभी धर्मो का अनुशीलन किया है, हिन्दू धर्म के विभिन्न सम्प्रदायों के भिन्न भिन्न पंथो का भी अनुसरण किया है। मैंने देखा है कि उसी एक भगवान की तरपफ ही सबके कदम बढ़ रहे हैं, यद्यपि उनके पथ भिन्न-भिन्न हैं। जिधर भी दृष्टि डालता हूँ उधर ही हिन्दू, मुसलमान, ब्राह्म, वैष्णव व अन्य सभी सम्प्रदायवादियों को धर्म के नाम पर परस्पर लड़ते हुए देखता हूँ। परंतु वे कभी इस बात पर विचार नहीं करते कि जिसे हम कृष्ण के नाम से पुकारते है, वही शिव है, वही आद्य शक्ति है, वही र्इसा हैं, वही अल्लाह है, सब उसी के नाम हैं- एक ही राम के सहसत्रो नाम है। एक तालाब के अनेक घाट है। एक घाट पर हिन्दू अपने कलशों में पानी भरते हैं और उसे ‘जल’ कहते हैं, दूसरे घाट पर मुसलमान अपनी मश्कों में पानी भरते हैं और उसे पानी नाम देते हैऋ तीसरे घाट पर र्इसार्इ लोग जल लेते है और वे उसे ‘वाटर’ की संज्ञा देते हैं। क्या हम कभी यह कल्पना कर सकते हैं कि यह वारि ‘जल’ नहीं हैं, अपितु केवल ‘पानी’ अथवा ‘वाटर’ ही हैं? कितनी हास्यापद बात है। भिन्न-भिन्न नामो के आवरण के नीचे एक ही वस्तु है, और प्रत्येक उसी वस्तु की खोज कर रहा है; मात्रा नाम ही भिन्न है, अन्यथा और कोर्इ भेद नहीं हैं। प्रत्येक मनुष्य को अपने मार्ग पर चलने दो। यदि उसके अन्दर हार्दिक भाव से भगवान को जानने की उत्कट लालसा है, तो उसे शान्तिपूर्वक चलने दो। वह अवश्य ही उसे पा लेगा।’’
सन 1874 तक 39 वर्ष की आयु में वो अपना साधनाकाल पूर्ण कर चुके थे। अब आरम्भ होता है- लोक शिक्षण का काल, जिसमें उनके भीतर गुरु भाव का उदय होता है। लगभग 12 वर्षो तक वो सनातन धर्म के पुर्नप्रतिष्ठान के लिए दृढ़ संकल्पित रहें। इस काल में वो तीर्थ भ्रमण द्वारा तथा लोगों से मिलकर उनकी आèयात्मिक प्रगति के लिए प्रयत्नशील रहें।
सनातन धर्म को देश विदेश में पहुँचाने हेतु उन्हें कुछ सशक्त सहयोगियों की आवश्यकता थी जो उनका संदेश आत्मसात कर उनकी आवाज को जन-जन तक पहुँचा सके।
सन 1883 में उन्हें यह अन्तर्बोध हुआ कि बहुत सी विश्वासी व पवित्रा हृदय आत्माएँ उनके पास आँएगी। उनके अधिकाँश सन्देशवाहक सन 1883 और 1884 के मèय उनके पास पहुँचे थे। अपने जीवन के अन्तिम काल तक उन्होंने 24 शिष्यों की एक सशक्त टीम गठित कर उनको कर्म क्षेत्र में उतारा। जिसने बाद में धर्म क्रान्ति, कर्म क्रान्ति वैदिक क्रान्ति का बिगुल बजाया। इस टीम के युवा बालकों नरेन्द्र, राखाल, लाटू, काली, शशी, गोपाल ने क्रमश: विवेकानन्द, ब्रह्मानन्द, अदभुतानन्द, अभेदानन्द, रामकृष्णानन्द, अद्वैतानन्द नामक सन्यासी बनकर सनातन धर्म को गौरान्वित किया।
15 अगस्त सन 1886 की रात में गले के रोग के पीड़ित हो श्री रामकृष्ण ने महासमाधि ले ली, परंतु महासमाधि में गया केवल उनका पंच भौतिक शरीर। उनके मार्मिक वचन आज संसार भर में कोने-कोने में गूँज रहे हैं और उनसे असंख्य जीवों का उद्धार हो रहा है।

Wednesday 20 May 2015

जीवन के अन्दर क्या उतार और चढाव मिलेंगे,

द्वादस भावों मे शनि :
जन्म कुंडली के बारह भावों मे जन्म के समय शनि अपनी गति और जातक को दिये जाने वाले फ़लों के प्रति भावानुसार जातक के जीवन के अन्दर क्या उतार और चढाव मिलेंगे, सबका वृतांत कह देता है।
प्रथम भाव मे शनि :
शनि मन्द है और शनि ही ठंडक देने वाला है,सूर्य नाम उजाला तो शनि नाम अन्धेरा, पहले भाव मे अपना स्थान बनाने का कारण है कि शनि अपने गोचर की गति और अपनी दशा मे शोक पैदा करेगा,जीव के अन्दर शोक का दुख मिलते ही वह आगे पीछे सब कुछ भूल कर केवल अन्धेरे मे ही खोया रहता है।शनि जादू टोने का कारक तब बन जाता है, जब शनि पहले भाव मे अपनी गति देता है, पहला भाव ही औकात होती है, अन्धेरे मे जब औकात छुपने लगे, रोशनी से ही पहिचान होती है और जब औकात छुपी हुई हो तो शनि का स्याह अन्धेरा ही माना जा सकता है। अन्धेरे के कई रूप होते हैं, एक अन्धेरा वह होता है जिसके कारण कुछ भी दिखाई नही देता है, यह आंखों का अन्धेरा माना जाता है, एक अन्धेरा समझने का भी होता है, सामने कुछ होता है, और समझा कुछ जाता है, एक अन्धेरा बुराइयों का होता है, व्यक्ति या जीव की सभी अच्छाइयां बुराइयों के अन्दर छुपने का कारण भी शनि का दिया गया अन्धेरा ही माना जाता है, नाम का अन्धेरा भे होता है, किसी को पता ही नही होता है, कि कौन है और कहां से आया है, कौन माँ है और कौन बाप है, आदि के द्वारा किसी भी रूप मे छुपाव भी शनि के कारण ही माना जाता है, व्यक्ति चालाकी का पुतला बन जाता है प्रथम भाव के शनि के द्वारा.शनि अपने स्थान से प्रथम भाव के अन्दर स्थिति रख कर तीसरे भाव को देखता है, तीसरा भाव अपने से छोटे भाई बहिनो का भी होता है, अपनी अन्दरूनी ताकत का भी होता है, पराक्रम का भी होता है, जो कुछ भी हम दूसरों से कहते है, किसी भी साधन से, किसी भी तरह से शनि के कारण अपनी बात को संप्रेषित करने मे कठिनाई आती है, जो कहा जाता है वह सामने वाले को या तो समझ मे नही आता है, और आता भी है तो एक भयानक अन्धेरा होने के कारण वह कही गयी बात को न समझने के कारण कुछ का कुछ समझ लेता है, परिणाम के अन्दर फ़ल भी जो चाहिये वह नही मिलता है, अक्सर देखा जाता है कि जिसके प्रथम भाव मे शनि होता है, उसका जीवन साथी जोर जोर से बोलना चालू कर देता है, उसका कारण उसके द्वारा जोर जोर से बोलने की आदत नही, प्रथम भाव का शनि सुनने के अन्दर कमी कर देता है, और सामने वाले को जोर से बोलने पर ही या तो सुनायी देता है, या वह कुछ का कुछ समझ लेता है, इसी लिये जीवन साथी के साथ कुछ सुनने और कुछ समझने के कारण मानसिक ना समझी का परिणाम सम्बन्धों मे कडुवाहट घुल जाती है, और सम्बन्ध टूट जाते हैं। इसकी प्रथम भाव से दसवी नजर सीधी कर्म भाव पर पडती है, यही कर्म भाव ही पिता का भाव भी होता है।जातक को कर्म करने और कर्म को समझने मे काफ़ी कठिनाई का सामना करना पडता है, जब किसी प्रकार से कर्म को नही समझा जाता है तो जो भी किया जाता है वह कर्म न होकर एक भार स्वरूप ही समझा जाता है, यही बात पिता के प्रति मान ली जाती है,पिता के प्रति शनि अपनी सिफ़्त के अनुसार अंधेरा देता है, और उस अन्धेरे के कारण पिता ने पुत्र के प्रति क्या किया है, समझ नही होने के कारण पिता पुत्र में अनबन भी बनी रहती है,पुत्र का लगन या प्रथम भाव का शनि माता के चौथे भाव मे चला जाता है, और माता को जो काम नही करने चाहिये वे उसको करने पडते हैं, कठिन और एक सीमा मे रहकर माता के द्वारा काम करने के कारण उसका जीवन एक घेरे में बंधा सा रह जाता है, और वह अपनी शरीरी सिफ़्त को उस प्रकार से प्रयोग नही कर पाती है जिस प्रकार से एक साधारण आदमी अपनी जिन्दगी को जीना चाहता है।
दूसरे भाव में शनि :
दूसरा भाव भौतिक धन का भाव है,भौतिक धन से मतलब है,रुपया,पैसा,सोना,चान्दी,हीरा,मोती,जेवरात आदि, जब शनि देव दूसरे भाव मे होते है तो अपने ही परिवार वालो के प्रति अन्धेरा भी रखते है, अपने ही परिवार वालों से लडाई झगडा आदि करवा कर अपने को अपने ही परिवार से दूर कर देते हैं,धन के मामले मै पता नही चलता है कितना आया और कितना खर्च किया, कितना कहां से आया,दूसरा भाव ही बोलने का भाव है, जो भी बात की जाती है, उसका अन्दाज नही होता है कि क्या कहा गया है, गाली भी हो सकती है और ठंडी बात भी, ठंडी बात से मतलब है नकारात्मक बात, किसी भी बात को करने के लिये कहा जाय, उत्तर में न ही निकले.दूसरा शनि चौथे भाव को भी देखता है, चौथा भाव माता, मकान, और वाहन का भी होता है, अपने सुखों के प्रति भी चौथे भाव से पता किया जाता है, दूसरा शनि होने पर यात्रा वाले कार्य और घर मे सोने के अलावा और कुछ नही दिखाई देता है। दूसरा शनि सीधे रूप मे आठवें भाव को देखता है, आठवा भाव शमशानी ताकतों की तरफ़ रुझान बढा देता है, व्यक्ति भूत,प्रेत,जिन्न और पिशाची शक्तियों को अपनाने में अपना मन लगा देता है, शमशानी साधना के कारण उसका खान पान भी शमशानी हो जाता है,शराब,कबाब और भूत के भोजन में उसकी रुचि बढ जाती है। दूसरा शनि ग्यारहवें भाव को भी देखता है, ग्यारहवां भाव अचल सम्पत्ति के प्रति अपनी आस्था को अन्धेरे मे रखता है, मित्रों और बडे भाई बहिनो के प्रति दिमाग में अन्धेरा रखता है। वे कुछ करना चाहते हैं लेकिन व्यक्ति के दिमाग में कुछ और ही समझ मे आता है।
तीसरे भाव में शनि : 
तीसरा भाव पराक्रम का है, व्यक्ति के साहस और हिम्मत का है, जहां भी व्यक्ति रहता है, उसके पडौसियों का है। इन सबके कारणों के अन्दर तीसरे भाव से शनि पंचम भाव को भी देखता है, जिनमे शिक्षा,संतान और तुरत आने वाले धनो को भी जाना जाता है, मित्रों की सहभागिता और भाभी का भाव भी पांचवा भाव माना जाता है, पिता की मृत्यु का और दादा के बडे भाई का भाव भी पांचवा है। इसके अलावा नवें भाव को भी तीसरा शनि आहत करता है, जिसमे धर्म, सामाजिक व्यव्हारिकता, पुराने रीति रिवाज और पारिवारिक चलन आदि का ज्ञान भी मिलता है, को तीसरा शनि आहत करता है। मकान और आराम करने वाले स्थानो के प्रति यह शनि अपनी अन्धेरे वाली नीति को प्रतिपादित करता है।ननिहाल खानदान को यह शनि प्रताडित करता है।
चौथे भाव मे शनि :
चौथे भाव का मुख्य प्रभाव व्यक्ति के लिये काफ़ी कष्ट देने वाला होता है, माता, मन, मकान, और पानी वाले साधन, तथा शरीर का पानी इस शनि के प्रभाव से गंदला जाता है, आजीवन कष्टदेने वाला होने से पुराणो मे इस शनि वाले व्यक्ति का जीवन नर्क मय ही बताया जाता है। अगर यह शनि तुला,मकर,कुम्भ या मीन का होता है, तो इस के फ़ल में कष्टों मे कुछ कमी आ जाती है।
पंचम भाव का शनि : 
इस भाव मे शनि के होने के कारण व्यक्ति को मन्त्र वेत्ता बना देता है, वह कितने ही गूढ मन्त्रों के द्वारा लोगो का भला करने वाला तो बन जाता है, लेकिन अपने लिये जीवन साथी के प्रति,जायदाद के प्रति, और नगद धन के साथ जमा पूंजी के लिये दुख ही उठाया करता है।संतान मे शनि की सिफ़्त स्त्री होने और ठंडी होने के कारण से संतति मे विलंब होता है,कन्या संतान की अधिकता होती है, जीवन साथी के साथ मन मुटाव होने से वह अधिक तर अपने जीवन के प्रति उदासीन ही रहता है।
षष्ठ भाव में शनि : 
इस भाव मे शनि कितने ही दैहिक दैविक और भौतिक रोगों का दाता बन जाता है, लेकिन इस भाव का शनि पारिवारिक शत्रुता को समाप्त कर देता है,मामा खानदान को समाप्त करने वाला होता है,चाचा खान्दान से कभी बनती नही है। व्यक्ति अगर किसी प्रकार से नौकरी वाले कामों को करता रहता है तो सफ़ल होता रहता है, अगर किसी प्रकार से वह मालिकी वाले कामो को करता है तो वह असफ़ल हो जाता है। अपनी तीसरी नजर से आठवें भाव को देखने के कारण से व्यक्ति दूर द्रिष्टि से किसी भी काम या समस्या को नही समझ पाता है, कार्यों से किसी न किसी प्रकार से अपने प्रति जोखिम को नही समझ पाने से जो भी कमाता है, या जो भी किया जाता है, उसके प्रति अन्धेरा ही रहता है, और अक्स्मात समस्या आने से परेशान होकर जो भी पास मे होता है गंवा देता है। बारहवे भाव मे अन्धेरा होने के कारण से बाहरी आफ़तों के प्रति भी अन्जान रहता है, जो भी कारण बाहरी बनते हैं उनके द्वारा या तो ठगा जाता है या बाहरी लोगों की शनि वाली चालाकियों के कारण अपने को आहत ही पाता है। खुद के छोटे भाई बहिन क्या कर रहे हैं और उनकी कार्य प्रणाली खुद के प्रति क्या है उसके प्रति अन्जान रहता है। अक्सर इस भाव का शनि कही आने जाने पर रास्तों मे भटकाव भी देता है, और अक्सर ऐसे लोग जानी हुई जगह पर भी भूल जाते है।
सप्तम भाव मे शनि : 
सातवां भाव पत्नी और मन्त्रणा करने वाले लोगो से अपना सम्बन्ध रखता है।जीवन साथी के प्रति अन्धेरा और दिमाग मे नकारात्मक विचारो के लगातार बने रहने से व्यक्ति अपने को हमेशा हर बात में छुद्र ही समझता रहता है,जीवन साथी थोडे से समय के बाद ही नकारा समझ कर अपना पल्ला जातक से झाड कर दूर होने लगता है, अगर जातक किसी प्रकार से अपने प्रति सकारात्मक विचार नही बना पाये तो अधिकतर मामलो मे गृह्स्थियों को बरबाद ही होता देखा गया है, और दो शादियों के परिणाम सप्तम शनि के कारण ही मिलते देखे गये हैं,सप्तम शनि पुरानी रिवाजों के प्रति और अपने पूर्वजों के प्रति उदासीन ही रहता है, उसे केवल अपने ही प्रति सोचते रहने के कारण और मै कुछ नही कर सकता हूँ, यह विचार बना रहने के कारण वह अपनी पुरानी मर्यादाओं को अक्सर भूल ही जाता है, पिता और पुत्र मे कार्य और अकार्य की स्थिति बनी रहने के कारण अनबन ही बनी रहती है। व्यक्ति अपने रहने वाले स्थान पर अपने कारण बनाकर अशांति उत्पन्न करता रहता है, अपनी माता या माता जैसी महिला के मन मे विरोध भी पैदा करता रहता है, उसे लगता है कि जो भे उसके प्रति किया जा रहा है, वह गलत ही किया जा रहा है और इसी कारण से वह अपने ही लोगों से विरोध पैदा करने मे नही हिचकता है। शरीर के पानी पर इस शनि का प्रभाव पडने से दिमागी विचार गंदे हो जाते हैं, व्यक्ति अपने शरीर में पेट और जनन अंगो मे सूजन और महिला जातकों की बच्चादानी आदि की बीमारियां इसी शनि के कारण से मिलती है।
अष्टम भाव में शनि : 
इस भाव का शनि खाने पीने और मौज मस्ती करने के चक्कर में जेब हमेशा खाली रखता है। किस काम को कब करना है इसका अन्दाज नही होने के कारण से व्यक्ति के अन्दर आवारागीरी का उदय होता देखा गया है।
नवम भाव का शनि : 
नवां भाव भाग्य का माना गया है, इस भाव में शनि होने के कारण से कठिन और दुख दायी यात्रायें करने को मिलती हैं, लगातार घूम कर सेल्स आदि के कामो मे काफ़ी परेशानी करनी पडती है, अगर यह भाव सही होता है, तो व्यक्ति मजाकिया होता है, और हर बात को चुटकुलों के द्वारा कहा करता है, मगर जब इस भाव मे शनि होता है तो व्यक्ति सीरियस हो जाता है, और एकान्त में अपने को रखने अपनी भलाई सोचता है, नवें भाव बाले शनि के के कारण व्यक्ति अपनी पहिचान एकान्त वासा झगडा न झासा वाली कहावत से पूर्ण रखता है। खेती वाले कामो, घर बनाने वाले कामों जायदाद से जुडे कामों की तरफ़ अपना मन लगाता है। अगर कोई अच्छा ग्रह इस शनि पर अपनी नजर रखता है तो व्यक्ति जज वाले कामो की तरफ़ और कोर्ट कचहरी वाले कामों की तरफ़ अपना रुझान रखता है। जानवरों की डाक्टरी और जानवरों को सिखाने वाले काम भी करता है, अधिकतर नवें शनि वाले लोगों को जानवर पालना बहुत अच्छा लगता है। किताबों को छापकर बेचने वाले भी नवें शनि से कही न कही जुडे होते हैं।
दसम भाव का शनि : 
दसवां शनि कठिन कामो की तरफ़ मन ले जाता है, जो भी मेहनत वाले काम,लकडी,पत्थर, लोहे आदि के होते हैंवे सब दसवे शनि के क्षेत्र मे आते हैं, व्यक्ति अपने जीवन मे काम के प्रति एक क्षेत्र बना लेता है और उस क्षेत्र से निकलना नही चाहता है।राहु का असर होने से या किसी भी प्रकार से मंगल का प्रभाव बन जाने से इस प्रकार का व्यक्ति यातायात का सिपाही बन जाता है, उसे जिन्दगी के कितने ही काम और कितने ही लोगों को बारी बारी से पास करना पडता है, दसवें शनि वाले की नजर बहुत ही तेज होती है वह किसी भी रखी चीज को नही भूलता है, मेहनत की कमाकर खाना जानता है, अपने रहने के लिये जब भी मकान आदि बनाता है तो केवल स्ट्रक्चर ही बनाकर खडा कर पाता है, उसके रहने के लिये कभी भी बढिया आलीशान मकान नही बन पाता है।गुरु सही तरीके से काम कर रहा हो तो व्यक्ति एक्ज्यूटिव इन्जीनियर की पोस्ट पर काम करने वाला बनजाता है।
ग्यारहवां शनि : 
शनि दवाइयों का कारक भी है, और इस घर मे जातक को साइंटिस्ट भी बना देता है, अगर जरा सी भी बुध साथ देता हो तो व्यक्ति गणित के फ़ार्मूले और नई खोज करने मे माहिर हो जाता है। चैरिटी वाले काम करने मे मन लगता है, मकान के स्ट्रक्चर खडा करने और वापस बिगाड कर बनाने मे माहिर होता है, व्यक्ति के पास जीवन मे दो मकान तो होते ही है। दोस्तों से हमेशा चालकियां ही मिलती है, बडा भाई या बहिन के प्रति व्यक्ति का रुझान कम ही होता है। कारण वह न तोकुछ शो करता है और न ही किसी प्रकार की मदद करने मे अपनी योग्यता दिखाता है, अधिकतर लोगो के इस प्रकार के भाई या बहिन अपने को जातक से दूर ही रखने म अपनी भलाई समझते हैं।
बारहवां शनि : 
नवां घर भाग्य या धर्म का होता है तो बारहवा घर धर्म का घर होता है, व्यक्ति को बारहवा शनि पैदा करने के बाद अपने जन्म स्थान से दूर ही कर देता है, वह दूरी शनि के अंशों पर निर्भर करती है, व्यक्ति के दिमाग मे काफ़ी वजन हर समय महसूस होता है वह अपने को संसार के लिये वजन मानकर ही चलता है, उसकी रुझान हमेशा के लिये धन के प्रति होती है और जातक धन के लिये हमेशा ही भटकता रहता है, कर्जा दुश्मनी बीमारियो से उसे नफ़रत तो होती है मगर उसके जीवन साथी के द्वारा इस प्रकार के कार्य कर दिये जाते हैं जिनसे जातक को इन सब बातों के अन्दर जाना ही पडता है।
नोट : - यह फल, मुख्यता लग्न लागू है.

Tuesday 19 May 2015

कहीं ये खराबी हमारे अंदर ही तो मौजूद नही

उसकी बेईमानी और हमारी ईमानदारी एक व्यंग और संदेश"""
गाँव में एक किसान रहता था जो दूध से दही और मक्खन बनाकर बेचने का काम करता था।
एक दिन बीवी ने उसे मक्खन तैयार करके दिया वो उसे बेचने के लिए अपने गाँव से शहर
की तरफ रवाना हुवा।वो मक्खन गोल पेढ़ो की शक्ल मे बना हुवा था और हर पेढ़े का वज़न एक kg था।शहर मे किसान ने उस मक्खन को हमेशा की तरह एक दुकानदार को बेच दिया, और दुकानदार से चायपत्ती, चीनी, तेल और साबुन व वगैरहा खरीदकर वापस अपने गाँव को रवाना हो गया।
किसान के जाने के बाद, दुकानदार ने मक्खन को फ्रिज़र मे रखना शुरू किया, उसे खयाल आया के क्यूँ ना एक पेढ़े का वज़न किया जाए, वज़न करने पर पेढ़ा सिर्फ 900 gm. का निकला, हैरत और निराशा से उसने सारे पेढ़े तोल डाले मगर किसान के लाए हुए सभी पेढ़े 900-900 gm.के ही निकले।
अगले हफ्ते फिर किसान हमेशा की तरह मक्खन लेकर जैसे ही दुकानदार की दहलीज़
पर चढ़ा, दुकानदार ने किसान से चिल्लाते हुए कहा, के वो दफा हो जाए, किसी बे-ईमान और धोखेबाज़ शख्श से कारोबार करना उसे गवारा नही।
900 gm.मक्खन को पूरा एक kg.कहकर बेचने वाले शख्स की वो शक्ल भी देखना गवारा नही करता....।
किसान ने बड़ी ही विनम्रता से दुकानदार से कहा... "मेरे भाई मुझसे बद-ज़न ना हो
हम तो गरीब और बेचारे लोग है, हमारी माल तोलने के लिए बाट (वज़न) खरीदने की हैसियत कहाँ" आपसे जो एक किलो चीनी लेकर जाता हूँ उसी को तराज़ू के एक पलड़े मे रखकर दूसरे पलड़े मे उतने ही वज़न का मक्खन तोलकर ले आता हूँ।
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इस कहानी को पढ़ने के बाद आप क्या महसूस करते हैं, किसी पर उंगली उठाने से पहले क्या हमें अपने गिरहबान मे झांक कर देखने की ज़रूरत नही?
कहीं ये खराबी हमारे अंदर ही तो मौजूद नही?

दर्द में राहत मिलती है

सामग्री:-

अजवाइन का तेल- 10 ग्राम
पिपरमेंट- 10 ग्राम
कपूर-20 ग्राम
* सभी चीजे आपको आयुर्वेदिक जड़ी बूटी का सामान बेचने वाले पंसारी से मिल जायेगी .
विधि:-
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* अब आप इन तीनों चीजों को मिलाकर एक बोतल में भर दें। कुछ देर में सब एक में घुल मिल जाएगा तथा छ: घण्‍टे बाद प्रयोग में लावें। बीच-बीच में बोतल को हिला दें।
* दर्द या कमरदर्द या पसलीदर्द, सिरदर्द आदि में तुरंत लाभ पहुंचाने वाली औषधि है। इसकी कुछ बूंदे मलिए, दर्द छूमंतर हो जाएगा। अजवाइन के तेल की मालिश करने से जोड़ों का दर्द जकडऩ तथा शरीर के अन्य भागों पर भी मलने से दर्द में राहत मिलती है।

Monday 18 May 2015

हनुमान जी का सीध सतोत्र

।। अथ मारुति स्तोत्रम् ।।
ॐ नमो भगवते विचित्रवीरहनुमते प्रलयकालानल प्रभाप्रज्वलनाय ।
प्रतापवज्रदेहाय अंजनीगर्भसंभूताय ।
प्रकटविक्रमवीरदैत्यदानवयक्षर क्षोगणग्रहबंधनाय ।
भूतग्रहबंधनाय । प्रेतग्रहबंधनाय । पिशाचग्रहबंधनाय । शाकिनीडाकिनीग्रहबंधनाय । काकिनीकामिनीग्रहबंधनाय । ब्रह्मग्रहबंधनाय। ब्रह्मराक्षसग्रहबंधनाय । चोरग्रहबंधनाय । मारीग्रहबंधनाय । एहि एहि । आगच्छ आगच्छ । आवेशय आवेशय ।
मम हृदये प्रवेशाय प्रवेशाय । स्फुर स्फुर । प्रस्फुर प्रस्फुर । सत्यं कथय । व्याघ्रमुखबंधन सर्पमुखबंधन राजमुखबंधन राजमुखबंधन नारीमुखबंधन सभामुखबंधन शत्रुमुखबंधन सर्वमुखबंधन लंकाप्रासादभंजन ।
अमुकं मे वशमानय ।
क्लीं क्लीं क्लीं श्रीं श्रीं राजानं वशमानय श्रीं ह्रीं क्लीं स्त्रिय आकर्षय शत्रुन्मर्दय मारय मारय चूर्णय चूर्णय खे खे श्रीरामचन्द्राज्ञया मम कार्यसिद्धिं कुरु कुरु ।
ॐ ह्रां ह्रीं ह्रैं ह्रैं ह्रौं ह्र: फट् स्वाहा विचित्रवीर हनुमन् मम सर्वशत्रुन भस्मी कुरु कुरु । हन् हन् हुँ फट् स्वाहा ।

जिन पर किरपा राम करे

राम नाम आधार जिन्हें वो जल में राह बनाते हैं,
जिन पर किरपा राम करे वो पत्थर भी तीर जाते हैं,
लक्ष्य रामजी, सिद्धि रामजी,राम ही राह बनाई, राम ही राह बनाई
राम कर्म हैं,राम ही कर्ता,राम की सकल बड़ाई,राम की सकल बड़ाई,
राम काम करने वालों में राम की शक्ति समाई,
पृथक पृथक नामों से सारे काम करे रघुराई,
भक्त परायण निज भक्तों को सारा श्रेय दिलाते हैं,
जिन पर किरपा राम करे वो पत्थर भी तीर जाते हैं,
घट घट बस के आप ही अपना नाम रटा देते हैं, नाम रटा देते हैं,
हर कारज में निज भक्तों का हाथ बटा देते हैं,हाथ बटा देते हैं,
बाधाओं के सारे पत्थर राम हटा देते हैं,
अपने ऊपर लेकर उनका भार घटा देते हैं,
पत्थर क्या प्रभु तीन लोक का सारा भार उठाते हैं,
जिन पर किरपा राम करे वो पत्थर भी तीर जाते हैं,

Thursday 14 May 2015

जन्म-कुण्डली के सोए हुए घर

कैसे जगाए अपनी जन्म-कुण्डली के सोए हुए घर

लाल किताब के अनुसार जिस घर में कोई ग्रह न हो तथा जिस घर पर किसी ग्रह की नज़र नहीं पड़ती हो उसे सोया हुआ घर माना जाता है. लाल किताब का मानना है जो घर सोया होता है उस घ्रर से सम्बन्धित फल तब तक प्राप्त नहीं होता है जबतक कि वह घर जागता नहीं है. लाल किताब में सोये हुए घरों को जगाने के लिए कई उपाय बताए गये हैं.

जिन लोगों की कुण्डली में प्रथम भाव सोया हुआ हो उन्हें इस घर को जगाने के लिए मंगल का उपाय करना चाहिए. मंगल का उपाय करने के लिए मंगलवार का व्रत करना चाहिए. मंगलवार के दिन हनुमान जी को लडुडुओं का प्रसाद चढ़ाकर बांटना चाहिए. मूंगा धारण करने से भी प्रथम भाव जागता है.
अगर दूसरा घर सोया हुआ हो तो चन्द्रमा का उपाय शुभ फल प्रदान करता है. चन्द्र के उपाय के लिए चांदी धारण करना चाहिए. माता की सेवा करनी चाहिए एवं उनसे आशीर्वाद प्राप्त करना चाहिए. मोती धारण करने से भी लाभ मिलता है.
तीसरे घर को जगाने के लिए बुध का उपाय करना लाभ देता है. बुध के उपाय हेतु दुर्गा सप्तशती का पाठ करना चाहिए. बुधवार के दिन गाय को चारा देना चाहिए.
लाल किताब के अनुसार किसी व्यक्ति की कुण्डली में अगर चौथा घर सोया हुआ है तो चन्द्र का उपाय करना लाभदायी होता है.
पांचवें घर को जागृत करने के लिए सूर्य का उपाय करना फायदेमंद होता है. नियमित आदित्य हृदय स्तोत्र का पाठ एवं रविवार के दिन लाल भूरी चीटियों को आटा, गुड़ देने से सूर्य की कृपा प्राप्त होती है.
छठे घर को जगाने के लिए राहु का उपाय करना चाहिए. जन्मदिन से आठवां महीना शुरू होने पर पांच महीनों तक बादाम मन्दिर में चढ़ाना चाहिए, जितना बादाम मन्दिर में चढाएं उतना वापस घर में लाकर सुरक्षित रख दें. घर के दरवाजा दक्षिण में नहीं रखना चाहिए. इन उपायों से छठा घर जागता है क्योंकि यह राहु का उपाय है.
सोये हुए सातवें घर के लिए शुक्र को जगाना होता है. शुक्र को जगाने के लिए आचरण की शुद्धि सबसे आवश्यक है.
सोये हुए आठवें घर के लिए चन्द्रमा का उपाय शुभ फलदायी होता है.
जिनकी कुण्डली में नवम भाव सोया हो उनहें गुरूवार के दिन पीलावस्त्र धारण करना चाहिए. सोना धारण करना चाहिए व माथे पर हल्दी अथवा केशर का तिलक करना चाहिए. इन उपाय से गुरू प्रबल होता है और नवम भाव जागता है.
दशम भाव को जागृत करने हेतु शनिदेव का उपाय करना चाहिए.
एकादश भाव के लिए भी गुरू का उपाय लाभकारी होता है.
अगर बारहवां घ्रर सोया हुआ हो तो घर मे कुत्ता पालना चाहिए. पत्नी के भाई की सहायता करनी चाहिए. मूली रात को सिरहाने रखकर सोना चाहिए और सुबह मंदिर मे दान करना चाहिए.

मन की पराधीनता से अपने दास को छुङवा लीजिए

हे दयामय राघव हे धनुर्धारी राजा राम मै अपने इस कुटिल स्वार्थी खल दुष्ट मन का क्या करूं।इस पर मेरा अधिकार नही चलता प्रभु।जितना इसे साधने का प्रयत्न करता हूं उतना अधिक अनियन्त्रित होकर उछलकूद करता है।कभी रामनाम मे नही लगता।आपकी लीला कथा श्रवण मे बैठता हूं तो यह धूर्त न जाने कहाँकहाँ घूमता फिरता है अन्त मे मालुम पङता है कि एक शब्द भी कथा का मै ग्रहण न कर पाया।मंदिर मे हे ठाकुरजी आपके दर्शनो को जाता हूं तो भी यह कपटी कपट से नही चूकता वहां की प्रत्येक घटनामे वस्तु मे तो ऐसे लगता है कि मुझे स्मरण ही नही रहे कि ठाकुरजी के दर्शन हुएभी या नही।बहुत शक्तिशाली है यह मन।हे रामजी इसी की शक्ति ने मुझे जन्मो से भटकाए रखा है अपने घर अर्थात आपके चरणो की शरण से मुझे वंचित रखा।हे राघव यद्यपि इस दुष्ट की सभी विनाशकारी चाल अबमै समझ चुका हूं लेकिन इसके बल के आगे मेरी एक नही चलती। सुबह ब्रह्ममुहूर्त मे उठकर नामसुमिरन करने का नियम लेता हूं तो निद्रा सहित अपने ऐसे छलबल दिखाता है कि मै सोया रहजाता हूं और ब्रह्ममुहूर्त कब बीत गया कब सूर्यदेव चढ आए मालुम ही नही पङता।
हे रामजी इस भयंकर बल वाले मन से डरा हुआ मै आपको ही पुकारता हूं कि हे राघव इसकलिकाल मे इस दुष्ट मन की पराधीनता से अपने दास को छुङवा लीजिए।और दास को अपनी भक्तिरूपी बल दीजिए कि इस मन की मार से प्रभावित हुए बिना मेरे जीवन का हर पल "श्रीराम श्रीराम" जपते हुए बीते।हृदय मे सदा रघुनाथ जानकी समाए रहे।कभी किसी भी कारण से किसी भी क्षण मे मै अपने श्रीरामप्रभु को न भूलूं।

Tuesday 12 May 2015

यह एक लाभकारी औषधि है

शारीरिक कमजोरी और सम्पूर्ण शरीर के स्वास्थ्य केलिए मदनप्रकाश चूर्ण :
मुरझाए हुएमुंह और नपुसकता की दवाइयों की तलाश मेँ भटकते नौजवानों के सुस्त शरीर केलिए दिव्य आयुर्वेदिक चूर्ण जिसको आयुर्वेद पर शक हो इस चूर्ण का सारी सर्दीइस्तेमाल कर देखे आप भी दांतोँ तले उंगली दबा लेंगे !!
मदनप्रकाश चूर्ण बनाने की विधि:- 
(1) मूसली50ग्राम
(2)विदारीकन्द 50 gm
(3) 50ग्रामसोंठ
(4) 50ग्रामअसगंध
(5)50ग्रामकोंच के बीज शुद्ध
(6)50ग्रामसेमर के फूल
(7)50ग्रामखरेंटी
(8)50ग्रामसतावर
(9)50ग्राममोचरस
(10)50ग्रामगोखरू
(11)50ग्रामजायफल
(12)50ग्रामउडद की दाल (घी में भुनी हुई )
(13)50ग्रामभांग धुली हुई
(14) 50ग्रामबंशलोचन
(15)मिश्री 700ग्राम
इन सब कोकूटकर छान ले ओर आपस में मिक्स करके काच के बर्तन में ढक्कन लगाकर रखे
मात्रा और अनुपान:-
प्रातः ओर रात्री में सोने से एक घंटा पहले तीन से छह ग्राम पानी से या गाय के दूध से ले.
गुण ओर उपयोग:-
यह चूर्णपोष्टिक ,रसायन ओर वाजीकरण है ! इसकेसेवन से बल ओर वीर्यकी वृद्धि होती है तथाप्रमेह का नाश होता है!अधिक स्त्री प्रसंग या छोटी अवस्था मेंअप्राकृतिक ढंग सेशुक्र (वीर्य)का ज्यादादुरूपयोग करने से शुक्र पतला हो जाता है! साथहीशुक्रवाहिनीशिराएं भी कमजोरहो जाती है ओर फिर वे शुक्र धारण करने मेंअसमर्थ होजाती हैजिसके परिणाम स्वरूप स्वप्नदोष,शीघ्रपतन,वीर्यका पतलापन,पेशाब के साथहीवीर्य निकल जाना आदि विकार उत्पन्नहो जाते हैइन विकारों को दूर करने के लिए'मदनप्रकाशचूर्ण' का उपयोग करणा हितकर हैक्योंकि यह शुक्र की विकृति को दूर करवीर्यको गाढ़ा करता है ओर शरीर में बलबढाता है. शर्दी की ऋतूमें लेने के लिए मेने लिखा है.
आयुर्वेद की इस औषधि के सेवन से निम्नांकित फायदेहोते हैं:-
१- यह पौष्टिक चूर्ण है , इसके शरीर की पुष्टता बढाताहै /
२- यह रसायन गुण युक्त है इसलिये यह चूर्ण आयुर्वेदोक्तसप्त धातुओं की रक्षा करके रस , रक्त , मान्स , मेद , अस्थि , मज्ज , और शुक्र धातुओंकी बृध्धि करता है /
३- यह बाजीकरण योग है इसलिये यह कमजोर मनुष्यों को सम्भोगकरने के लिये अधिक वीर्यउत्पादन के लिये सम्र्थ बनाता है /
४- डायबिटीज के रोगियों के लिये यह चूर्ण किसी वरदान सेकम नही है / डायबिटीज के रोगियों की सम्भोग अथवा मैथुन करने की क्षमता कमजोर हो जातीहै/ इस चूर्ण के सेवन करने से डायबिटीज के रोगियों को दोतरफा फायदा होता है / इससेप्रमेह की शिकायत भी दूर होती है /
५- जिनका शुक्र , हस्त मैथुन या अन्य अप्राकृतिक तरीकेअपनाने के बाद पानी जैसा पतला हो गया हो , इस चूर्ण के सेवन करने से वीर्य शुध्धि होकरगढा और प्राकृतिक हो जाताहै /
६- जिनके SEMEN में कोई भी विकृति हो , spermcounts कमहों या स्पेर्म न बन रहे हों , उन्हें इस औशधि का उपयोग जरूर करना चाहिये /
मदन प्रकाश चूर्ण को सभी प्रकार के शुक्र दोषों में उपयोगकिया जा सकता है / शरीर की General Health Condition को improve करने के लिये तथा कु-पोषणसे पीड़ित रोगियों के लिये यह एक लाभकारी औषधि है . 

Monday 11 May 2015

वास्‍तव में वह मेरा अनादर करता है.'

भगवान का सबसे बड़ा भक्‍त कौन? कांफिडेंस से भरपूर नारद ने यह सवाल भगवान विष्‍णु से पूछ डाला. भगवान ने मुस्‍कुरा कर एक किसान का नाम लिया. नाराज नारद ने कहा, 'यह कैसे हो सकता है? हर बात की शुरुआत और अंत आपको याद करने वाले से बड़ा भक्‍त वह किसान कैसे?' भगवान समझ गए कि नारद को अपनी भक्ति का घमंड हो गया है. उन्‍हें समझाने के लिए भगवान ने नारद को एक टास्‍क दिया. भगवान का टास्‍क... हम सब भी तो वही कर रहे हैं... भगवान का टास्‍क...

दिन भर में सिर्फ तीन बार हरि का नाम!
भगवान ने नारद से कहा, 'मेरा सबसे बड़ा भक्‍त धरती पर एक किसान है.' नारद भगवान की आज्ञा लेकर उस किसान को देखने धरती पर पहुंचे. वहां देखा किसान ने सुबह उठते टाइम हरि का नाम लिया और हल-बैल लेकर खेत पर काम के लिए निकल गया. दोपहर में भोजन करते टाइम उसने एक बार फिर हरि का 
नाम लिया. रात को खाना खाकर सोने से पहले एक बार फिर उसने हरि को याद किया. नारद आश्‍चर्य से अपने आप से बोले, 'बस! तीन बार हरि का नाम. मैं तो हर बात से पहले और बाद में नारायण-नारायण कहकर हरि को याद करता हूं. ये मुझसे बड़ा भक्‍त कैसे हुआ?'

नारद को भगवान ने दिया कठिन टास्‍क
नारद भगवान से बोले, 'भगवन! उस किसान ने सिर्फ दिन में सिर्फ तीन बार आपका नाम लिया. मैं तो...' भगवान उन्‍हें काटते हुए बोले, 'इसका जवाब तुम्‍हें बाद में दूंगा पहले एक तेल से भरा पात्र लो और धरती का एक चक्‍कर लगा कर आओ. ध्‍यान रहे पात्र से एक बूंद भी तेल नहीं टपकना चाहिए.' नारद बोले, 'जो आज्ञा प्रभु.' यह कहकर नारद तेल से लबालब भरा पात्र लेकर धरती का चक्‍कर लगाने निकल पड़े. वे पात्र को हाथों में पकड़े बड़े ध्‍यान से देखते हुए धरती का चक्‍कर लगाने लगे.

नाम क्‍या लेता! टास्‍क तो आपका ही था
धरती का चक्‍कर लगाकर वापस भगवान को गर्व से तेल का पात्र दिखाकर नारद बोले, 'प्रभु एक बूंद भी तेल नहीं गिरने दिया. आपका काम पूरा हो गया.' भगवान ने नारद से पूछा, 'इस बीच तुमने मेरा कितनी बार स्‍मरण किया?' नारद आश्‍चर्य से भगवान की ओर देखते हुए बोले, 'मेरा सारा ध्‍यान तो आपके काम पर ही था. आपको अपने नाम की पड़ी है. अरे! जब आपका काम कर रहा था तो नाम क्‍या...'

किसान तो टास्‍क के साथ नाम भी लेता है
भगवान मुस्‍कुराते हुए नारद से बोले, 'किसान भी तो मेरा ही टास्‍क करता है. इसके बावजूद तीन बार मेरा नाम भी लेता है.' नारद भगवान की बात समझ गए थे. वे बोले, 'नारायण-नारायण प्रभु मैं अपनी हार मानता हूं. वाकई वह किसान आपका सबसे बड़ा भक्‍त है. वह धरती जीवों के लिए अन्‍न उपजाता है. आपका दिया हुआ काम अपना समझ कर पूरी ईमानदारी से पूरा करता है और बीच-बीच में टाइम निकाल कर आपको याद भी कर लेता है.'

गीता में भी मैंने कहा है, 'कर्म ही पूजा है'
भगवान बोले, 'बिल्‍कुल ठीक समझे नारद. मैंने गीता में भी कहा है कि मुझे प्राप्‍त करने के लिए तीन साधन है पहला ध्‍यान योग, दूसरा भक्ति योग और तीसरा कर्म योग. इसका मतलब आपको काम करने का जो मौका मिला है वह मैंने आपको इस योग्‍य समझा है इसलिए है. मुझे प्राप्‍त करने के लिए जरूरी है कि काम पूरी ईमानदारी से किया जाए. काम साधो मैं खुद-ब-खुद आपको मिल जाऊंगा. क्‍योंकि आप जो काम करते हैं वास्‍तव में वह दूसरों से जुड़ा होता है, जो लास्‍ट में सब मुझसे जुड़ जाते हैं. दुनिया को चलाने के लिए यह सिस्‍टम दरअसल मैंने बनाया है और हर व्‍यक्ति को अलग जिम्‍मेदारी पर लगाया है. जो कामचोरी करता है वास्‍तव में वह मेरा अनादर करता है.'

Sunday 10 May 2015

उसे सुंदर करना नहीं होता, वह सुंदर है।

 बुद्ध ने बत्तीस कुरूपताएं शरीर में गिनायी हैं। इन बत्तीस कुरूपताओं का स्मरण रखने का नाम कायगता—स्मृति है।
पहली तो बात, यह शरीर मरेगा। इस शरीर में मौत लगेगी। यह पैदा ही बड़ी गंदगी से हुआ है।
मां के गर्भ में तुम कहां थे, तुम्हें पता है? मल—मूत्र से घिरे पड़े थे।
उसी मल—मूत्र में नौ महीने बड़े हुए। उसी मल—मूत्र से तुम्हारा शरीर धीरे—धीरे निर्मित हुआ। फिर बुद्ध कहते हैं कि अपने शरीर में इन विषयों की स्मृति रखे—केश, रोम, नख, दांत, त्वक्, मांस, स्नायु, अस्थि, अस्थिमज्जा, यकृत, क्लोमक, प्लीहा, फुस्फुस, आत, उदरस्थ मल—मूत्र, पित्त, कफ, रक्त, पसीना, चर्बी, लार आदि। इन सब चीजों से भरा हुआ यह शरीर है, इसमें सौंदर्य हो कैसे सकता है! smile emoticon
सौंदर्य तो सिर्फ चेतना का होता है। देह तो मल—मूत्र का घर है। देह तो धोखा है। देह के धोखे में मत पड़ना, बुद्ध कहते हैं। इस बात को स्मरण रखना कि इसको तुम कितने ही इत्र से छिडको इस पर, तो भी इसकी दुर्गंध नहीं जाती। और तुम इसे कितने ही सुंदर वस्त्रों में ढांको, तो भी इसका असौंदर्य नहीं ढकता है। और तुम चाहे कितने ही सोने के आभूषण पहनो, हीरे—जवाहरात सजाओ, तो भी तुम्हारे भीतर की मांस—मज्जा वैसी की वैसी है।
जिस दिन चेतना का पक्षी उड़ जाएगा, तुम्हारी देह को कोई दो पैसे में खरीदने को राजी न होगा। grin emoticon जल्दी से लोग ले जाएंगे, मरघट पर जला आएंगे। जल्दी समाप्त करेंगे। घड़ी दो घडी रुक जाएगी देह तो बदबू आएगी। यह तो रोज नहाओ, धोओ, साफ करो, तब किसी तरह तुम बदबू को छिपा पाते हो। लेकिन बदबू बह रही है। बुद्ध कहते हैं, शरीर तो कुरूप है। सौंदर्य तो चेतना का होता है। और सौंदर्य चेतना का जानना हो तो ध्यान मार्ग है।
और शरीर का सौंदर्य मानना हो, तो ध्यान को भूल जाना मार्ग है। ध्यान करना ही मत कभी, नहीं तो शरीर का असौंदर्य पता चलेगा। तुम्हें पता चलेगा, यह शरीर में यही सब तो भरा है।
इसमें और तो कुछ भी नहीं है।
कभी जाकर अस्पताल में टंगे अस्थिपंजर को देख आना, कभी जाकर किसी मुर्दे का पोस्टमार्टम होता हो तो जरूर देख आना, देखने योग्य है, उससे तुम्हें थोड़ी अपनी स्मृति आएगी कि तुम्हारी हालत क्या है। किसी मुर्दे का पेट कटा हुआ देख लेना, तब तुम्हें समझ में आएगा कि कितना मल —मूत्र भरे हुए हम चल रहे हैं। यह हमारे शरीर की स्थिति है।
बुद्ध कहते हैं, इस स्थिति का बोध रखो। यह बोध रहे तो धीरे — धीरे शरीर से तादात्म्य टूट जाता है और तुम उसकी तलाश में लग जाते हो जो शरीर के भीतर छिपा है, जो परमसुंदर है। उसे सुंदर करना नहीं होता, वह सुंदर है। उसे जानते ही सौंदर्य की वर्षा हो जाती है। kiki emoticon और शरीर को सुंदर करना पड़ता है, क्योंकि शरीर सुंदर नहीं है। कर—करके भी सुंदर होता नहीं है। कभी नहीं हुआ है। कभी नहीं हो सकेगा।

Friday 8 May 2015

उसके परम कल्याण में संशय ही क्या !

एक संत के पास बहरा आदमी सत्संग सुनने आता था।उसके कान तो थे पर वे नाड़ियों से जुड़े नहीं थे।एकदम बहरा, एक शब्द भी सुन नहीं सकता था। किसी ने संतश्री से कहाः"बाबा जी ! वे जो वृद्ध बैठे हैं, वे कथा सुनते सुनते हँसते तो हैं पर वे बहरे हैं।"
बहरे मुख्यतः दो बार हँसते हैं – एक तो कथा सुनते-सुनते जब सभी हँसते हैं तब और दूसरा, अनुमान करके बात समझते हैं तब अकेले हँसते हैं।
बाबा जी ने कहाः "जब बहरा है तो कथा सुनने क्यों आता है ? रोज एकदम समय पर पहुँच जाता है।चालू कथा से उठकर चला जाय ऐसा भी नहीं है, घंटों बैठा रहता है।"बाबाजी सोचने लगे, "बहरा होगा तो कथा सुनता नहीं होगा और कथा नहीं सुनता होगा तो रस नहीं आता होगा। रस नहीं आता होगा तो यहाँ बैठना भी नहीं चाहिए, उठकर चले जाना चाहिए। यह जाता भी नहीं है !''
बाबाजी ने उस वृद्ध को बुलाया और उसके कान के पास ऊँची आवाज में कहाः "कथा सुनाई पड़ती है ?" उसने कहाः "क्या बोले महाराज ?"बाबाजी ने आवाज और ऊँची करके पूछाः "मैं
जो कहता हूँ, क्या वह सुनाई पड़ता है ?" उसने कहाः "क्या बोले महाराज ?" बाबाजी समझ गये कि यह नितांत बहरा है।
बाबाजी ने सेवक से कागज कलम मँगाया और लिखकर पूछा। वृद्ध ने कहाः "मेरे कान पूरी तरह से खराब हैं। मैं एक भी शब्द नहीं सुन सकता हूँ।" कागज कलम से प्रश्नोत्तर शुरू हो गया।
"फिर तुम सत्संग में क्यों आते हो ?"
"बाबाजी ! सुन तो नहीं सकता हूँ लेकिन यह तो समझता हूँ कि ईश्वरप्राप्त महापुरुष जब बोलते हैं तो पहले परमात्मा में डुबकी मारते हैं। संसारी आदमी बोलता है तो उसकी वाणी मन व बुद्धि को छूकर आती है लेकिन ब्रह्मज्ञानी संत जब बोलते हैं तो उनकी वाणी आत्मा को छूकर
आती हैं। मैं आपकी अमृतवाणी तो नहीं सुन पाता हूँ पर उसके आंदोलन मेरे शरीर को स्पर्श करते
हैं।
दूसरी बात, आपकी अमृतवाणी सुनने के लिए जो पुण्यात्मा लोग आते हैं उनके बीच बैठने का पुण्य भी मुझे प्राप्त होता है।"
बाबा जी ने देखा कि ये तो ऊँची समझ के धनी हैं। उन्होंने कहाः " दो बार हँसना, आपको अधिकार है किंतु मैं यह जानना चाहता हूँ कि आप रोज सत्संग में समय पर पहुँच जाते हैं और आगे बैठते हैं, ऐसा क्यों ?"
"मैं परिवार में सबसे बड़ा हूँ। बड़े जैसा करते हैं वैसा ही छोटे भी करते हैं। मैं सत्संग में आने लगा तो मेरा बड़ा लड़का भी इधर आने लगा। शुरुआत में कभी-कभी मैं बहाना बना के उसे ले आता था। मैं उसे ले आया तो वह अपनी पत्नी को यहाँ ले आया, पत्नी बच्चों को ले आयी – सारा कुटुम्ब सत्संग में आने लगा, कुटुम्ब को संस्कार मिल गये।"
भावार्थ यह हे की भले कोई सुन न भी सके परंतु ब्रह्मज्ञानी का दर्शन भी व्यर्थ नहीं जाता ब्रह्मचर्चा, आत्मज्ञान का सत्संग ऐसा है कि यह समझ में नहीं आये तो क्या, सुनाई नहीं देता हो तो भी इसमें शामिल होने मात्र से इतना पुण्य होता है कि व्यक्ति के जन्मों-जन्मों के पाप ताप मिटने एवं एकाग्रतापूर्वक सुनकर इसका मनन-निदिध्यासन करे, उसके परम कल्याण में संशय ही क्या !

यह सुनकर गुरु बहुत खुश हुए।

एक ऋषि के पास एक युवक ज्ञान लेने पहुंचा। ज्ञानार्जन के बाद उसने गुरु को दक्षिणा देनी चाही। गुरु ने कहा,' मुझे दक्षिणा के रूप में ऐसी चीज लाकर दो जो बिल्कुल व्यर्थ हो।' शिष्य गुरु के लिए व्यर्थ की चीज की खोज में निकल पड़ा। उसने मिट्टी की तरफ हाथ बढ़ाया तो मिट्टी बोल पड़ी,'क्या तुम्हें पता नहीं है कि इस दुनिया का सारा वैभव मेरे ही गर्भ से प्रकट होता है? ये विविध वनस्पतियां, ये रूप, ये रस और गंध सब कहां से आते हैं?' यह सुन शिष्य आगे बढ़ गया।
थोड़ी दूर जाकर उसे एक पत्थर मिला। शिष्य ने सोचा- क्यों न इस बेकार से पत्थर को ही ले चलूं। लेकिन उसे उठाने के लिए उसने जैसे ही हाथ आगे बढ़ाया पत्थर से आवाज आई,'तुम इतने ज्ञानी होकर भी मुझे बेकार मान रहे हो। बताओ तो, अपने भवन और अट्टालिकाएं किससे बनाते हो? तुम्हारे मंदिरों में किसे गढ़कर देव प्रतिमाएं स्थापित की जाती हैं? मेरे इतने उपयोग के बाद भी तुम मुझे व्यर्थ मान रहे हो।' यह सुनकर शिष्य ने फिर अपना हाथ खींच लिया।
अब वह सोचने लगा- जब मिट्टी और पत्थर तक इतने उपयोगी हैं तो फिर व्यर्थ क्या हो सकता है? तभी उसके मन से एक आवाज आई। उसने गौर से सुना। आवाज कह रही थी-'सृष्टि का हर पदार्थ अपने आप में उपयोगी है? वास्तव में व्यर्थ और तुच्छ तो वह है जो दूसरों को व्यर्थ और तुच्छ समझता है। व्यक्ति का अंहकार ही एकमात्र ऐसा तत्व है, जिसका कहीं कोई उपयोग नहीं होता।' यह सुनकर शिष्य गुरु के पास आकर बोला,'गुरुवर, आपको अपना अहंकार गुरु दक्षिणा में देता हूं।' यह सुनकर गुरु बहुत खुश हुए।
"आप भी अपना अहंकार अपने गुरु रुपी इष्टदेव को गुरु दक्षिणा स्वरूप् अर्पित कर समाज का कल्याण करें।"

Thursday 7 May 2015

कुछ पाने के लिए त्याग तो करना ही पड़ेगा

बाज लगभग 70 वर्ष जीता है ....
परन्तु अपने जीवन के 40वें वर्ष में आते-आते उसे एक महत्वपूर्ण निर्णय लेना पड़ता है ।
उस अवस्था में उसके शरीर के
3 प्रमुख अंग निष्प्रभावी होने लगते हैं .....
पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है, तथा शिकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं ।
चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है,
और भोजन में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है ।
पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से चिपकने के कारण पूर्णरूप से खुल नहीं पाते हैं, उड़ान को सीमित कर देते हैं ।
भोजन ढूँढ़ना, भोजन पकड़ना,
और भोजन खाना .. तीनों प्रक्रियायें अपनी धार खोने लगती हैं ।
उसके पास तीन ही विकल्प बचते हैं....
1. देह त्याग दे,
2. अपनी प्रवृत्ति छोड़ गिद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निर्वाह करे !!
3. या फिर "स्वयं को पुनर्स्थापित करे" !!
आकाश के निर्द्वन्द एकाधिपति के रूप में.
जहाँ पहले दो विकल्प सरल और त्वरित हैं, 
अंत में बचता है तीसरा लम्बा और अत्यन्त पीड़ादायी रास्ता ।
बाज चुनता है तीसरा रास्ता ..
और स्वयं को पुनर्स्थापित करता है ।
वह किसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है, एकान्त में अपना घोंसला बनाता है ..
और तब स्वयं को पुनर्स्थापित करने की प्रक्रिया प्रारम्भ करता है !!
सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है,
चोंच तोड़ने से अधिक पीड़ादायक कुछ भी नहीं है पक्षीराज के लिये !
और वह प्रतीक्षा करता है
चोंच के पुनः उग आने का ।
उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है,
और प्रतीक्षा करता है ..
पंजों के पुनः उग आने का ।
नयी चोंच और पंजे आने के बाद वह अपने भारी पंखों को एक-एक कर नोंच कर निकालता है !
और प्रतीक्षा करता है ..
पंखों के पुनः उग आने का ।
150 दिन की पीड़ा और प्रतीक्षा के बाद ...
मिलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान पहले जैसी....
इस पुनर्स्थापना के बाद
वह 30 साल और जीता है ....
ऊर्जा, सम्मान और गरिमा के साथ ।
इसी प्रकार इच्छा, सक्रियता और कल्पना, तीनों निर्बल पड़ने लगते हैं हम इंसानों में भी !
हमें भी भूतकाल में जकड़े
अस्तित्व के भारीपन को त्याग कर कल्पना की उन्मुक्त उड़ाने भरनी होंगी ।
150 दिन न सही.....
60 दिन ही बिताया जाये
स्वयं को पुनर्स्थापित करने में !
जो शरीर और मन से चिपका हुआ है, उसे तोड़ने और
नोंचने में पीड़ा तो होगी ही !!
और फिर जब बाज की तरह उड़ानें भरने को तैयार होंगे ..
इस बार उड़ानें और ऊँची होंगी,
अनुभवी होंगी, अनन्तगामी होंगी ।
.

Tuesday 5 May 2015

हर जगह हर पल महसूस करना चाहिए

एक धार्मिक व्यक्ति था,
भगवान में उसकी बड़ी श्रद्धा थी. उसने मन ही मन प्रभु की एक तस्वीर बना रखी थी. एक दिन भक्ति से भरकर उसने भगवान से कहा- भगवान मुझसे बात करो. और एक बुलबुल चहकने लगी लेकिन उस आदमी ने नहीं
सुना. इसलिए इस बार वह जोर से चिल्लाया,- भगवान मुझसे कुछ बोलो तो और आकाश में घटाएं उमङ़ने घुमड़ने लगी बादलो की
गड़गडाहट होने लगी. लेकिन आदमी ने कुछ नहीं सुना. उसने चारो तरफ निहारा, ऊपर- नीचे सब तरफ देखा और
बोला, -
भगवान मेरे सामने तो आओ और बादलो में छिपा सूरज
चमकने लगा. पर उसने देखा ही नही .
आखिरकार वह आदमी गला फाड़कर चीखने लगा भगवान मुझे
कोई चमत्कार दिखाओ - तभी एक शिशु का जन्म हुआ और उसका प्रथम रुदन गूंजने
लगा किन्तु उस आदमी ने ध्यान नहीं दिया. अब तो वह व्यक्ति रोने लगा और भगवान से याचना करने
लगा - भगवान मुझे स्पर्श करो मुझे पता तो चले तुम यहाँ हो, मेरे पास
हो,मेरे साथ हो और एक तितिली उड़ते हुए आकर उसके हथेली पर बैठ गयी
लेकिन उसने तितली को उड़ा दिया,
और उदास मन से आगे चला गया. भगवान इतने सारे रूपो मेंउसके सामने आया,
इतने सारे ढंग से उससे बात की पर उस आदमी ने पहचाना ही
नहीं शायद उसके मन में प्रभु की तस्वीर ही नहीं थी. सार...
हम यह तो कहते है कि ईश्वर प्रकृति के कण-कण में
है,लेकिन हम उसे किसी और रूप मेंदेखना चाहते है इसलिए
उसे कही देख ही नहीं पाते.
इसे भक्ति मे दुराग्रह भी कहते है.
भगवन अपने तरीके से आना चाहते और हम अपने तरीके से देखना चाहते है और बात नहीं बन पाती.
हमें भगवान को हर जगह हर पल महसूस करना चाहिए.....

प्रातःकाल पढ़ॆं

सर्वोपयोगी देवी-मँत्र
(प्रातःकाल पढ़ॆं)
महालक्ष्मी नमस्तुभ्यं नमस्तुभ्यं सुरेश्वरि,
हरिप्रिये नमस्तुभ्यं नमस्तुभ्यं दयानिधे।
उमा उषा च वैदेही रमा गंगेति पंचकम्,
प्रातरेव स्मरेन्नित्यमं सौभाग्यं वर्तते सदा।
सर्व मंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके,
शरण्ये त्र्यंबके गौरि नारायणि नमोस्तुते।
प्रभाते यः स्मरेन्नित्यमं दुर्गा-दुर्गाक्षरद्वयम्,
आपदस्तस्य नश्यंति तमः सूर्योदये यथा।
ऊँ नमो देव्यैः महादेव्यैः शिवायै सततं नमाः,
नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियता प्रणतास्मि ताम्।
काली तारा महाविद्या षोडशी भुवनेश्वरी,
भैरवी छिन्नमस्ता च विद्या धूमावती तथा।
बगला सिद्धविद्या च मातगंगे कमलात्मिका,
एता दश महा विद्याः सिद्ध विद्याः प्रकिर्तिताः।
ऊँ त्वमेव साक्षात् आत्मविद्या, महाविद्या, श्री विद्या, साक्षात् श्री निर्मला देव्यैः नमो नमः।

वह तुम्हारे समीप आत्म - स्वरूप ही हैं


तहँ आपै आप निरंजना, तहँ निसवासर नहि संजमा ॥ टेक ॥ 
तहँ धरती अम्बर नाहीं, तहँ धूप न दीसै छांहीं ।
तहँ पवन न चालै पानी, तहँ आपै एक बिनानी ॥ १ ॥ 
तहँ चंद न ऊगै सूरा, मुख काल न बाजै तूरा ।
तहँ सुख दुख का गम नाहीं, ओ तो अगम अगोचर माहीं ॥ २ ॥ 
तहँ काल काया नहिं लागै, तहँ को सोवै को जागै ।
तहँ पाप पुण्य नहिं कोई, तहँ अलख निरंजन सोई ॥ ३ ॥ 
तहँ सहज रहै सो स्वामी, सब घट अंतरजामी ।
सकल निरन्तर वासा, रट दादू संगम पासा ॥ ४ ॥ 
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव इसमें, ब्रह्म - वस्तु का निर्देश कर रहे हैं कि हे जिज्ञासुओं ! सहजावस्था रूप समाधि में आपै - आप स्वयं निरंजन स्वरूप ब्रह्म ही है । वहाँ किसी प्रकार के संयम आदि साधन नहीं हैं । न रात है, न दिन, न धरती है, न आकाश है, न धूप है, न छाया है, न पवन है, न पानी है, वहाँ आप स्वयं एक सजातीय विजातीय स्वगत भेद रहित कर्ता - हर्ता एक ब्रह्म ही है । वहाँ न चन्द्रमा उदय होता है, और न सूर्य, और न वहाँ काल, प्राणियों को ले जाने वाला मुख से बाजा ही बजाता है । उस स्वरूप में न सुख है, न दुःख है, मन इन्द्रियों का अविषय अनुभव - गम्य राम हृदय में आत्मा - स्वरूप से स्थित हैं । उस ब्राह्मी अवस्था में शरीर को काल भी दंड नहीं देता । अज्ञानी सोते हैं, ज्ञानी जागते हैं । पाप - पुण्य का फल, सुख - दुःख नहीं होता है । अलख मन - वाणी का अविषय, आप स्वयं निरंजन ब्रह्म ही हैं । वहाँ निर्द्वन्द्व स्वरूप सबका स्वामी, अन्तर्यामी, सब शरीरों में आप स्वयं आत्म - रूप से स्थित हैं । वही सबके भीतर अन्तराय रहित निरन्तर बस रहे हैं । मुक्त पुरुष कहते हैं कि हे मुमुक्षुओं ! वह तुम्हारे समीप आत्म - स्वरूप ही हैं, उन्हीं का स्मरण करो ।

Saturday 2 May 2015

ग्रह बाधा से आपको शुभ फल ही मिलेंगा

नवग्रह बाधा निवारण

बहोत जरुरी है जीवन मे नवग्रह देवता की क्रिपा। इनके कृपा से हर कार्य संभव है, परंतु जब ग्रह बाधा हो तो जीवन मे दुख का अत्याचार बढता जाता है। ऐसे समय मे इन्सान बहोत कूछ खो देता हैं|
यह साधना ग्रह पीडा भी उतार देता है परेशानिया इस प्रकार से आती है जैसे धूप काल मे बारीश। 

बस करो मित्रो, अब ग्रह बाधा के संबंध मे यह साधना करना आवश्यक है। 
जीवन मे एक बार तो यह साधना करना ही चाहिए। यह मंत्र हनुमानजी का है और इस मंत्र से ग्रह दोष कम होते है और साथ मे ग्रहो का अच्छा फल भी मिलता है 
विधि:-
इस साधना को ग्रहण काल मे शुरु करे, जैसे ग्रहण के समय मे १ माला जाप करना है फिर एक पाठ हनुमान चालीसा का करे। इस तरह से रोज ऐसा करे २१ दिनो तक 
विश्वास रखिये जो ग्रह आप आपके अनुकूल न हो या जिनका प्रभाव से आप पीडित है। 
उन सभी ग्रह बाधा से आपको शुभ फल ही मिलेंगा 

मंत्र :-॥ ॐ नमो हनुमते रुद्रावताराय देव दानव यक्ष राक्षस भूत प्रेत पिशाच डाकिनी शाकिनी दुष्टग्रहबन्धनाय रामदूताय स्वाहा ॥ 

क्रोध धीरे-धीरे कम होने लगेगा

१) ::
अगर आपको कहीं पर भी थूकने की आदत है तो यह निश्चित है
कि आपको यश, सम्मान अगर मुश्किल से मिल भी जाता है
तो कभी टिकेगा ही नहीं .
wash basin में ही यह काम कर आया करें !
२) ::
जिन लोगों को अपनी जूठी थाली या बर्तन वहीं उसी जगह पर
छोड़ने की आदत होती है उनको सफलता कभी भी स्थायी रूप से नहीं मिलती.!
बहुत मेहनत करनी पड़ती है और ऐसे लोग अच्छा नाम नहीं कमा पाते.!
अगर आप अपने जूठे बर्तनों को उठाकर उनकी सही जगह पर रख आते हैं तो चन्द्रमा और शनि का आप सम्मान करते हैं !
३) ::
जब भी हमारे घर पर कोई भी बाहर से आये, चाहे मेहमान हो या कोई काम करने वाला, उसे स्वच्छ पानी जरुर पिलाएं !
ऐसा करने से हम राहू का सम्मान करते हैं.!
जो लोग बाहर से आने वाले लोगों को स्वच्छ पानी हमेशा पिलाते हैं उनके घर में कभी भी राहू का दुष्प्रभाव नहीं पड़ता.!
४) ::
घर के पौधे आपके अपने परिवार के सदस्यों जैसे ही होते हैं, उन्हें भी प्यार और थोड़ी देखभाल की जरुरत होती है.!
जिस घर में सुबह-शाम पौधों को पानी दिया जाता है तो हम बुध, सूर्य और चन्द्रमा का सम्मान करते हुए परेशानियों से डटकर लड़ पाते हैं.!
जो लोग नियमित रूप से पौधों को पानी देते हैं, उन लोगों को depression, anxiety जैसी परेशानियाँ जल्दी से नहीं पकड़ पातीं.!
५) ::
जो लोग बाहर से आकर अपने चप्पल, जूते, मोज़े इधर-उधर फैंक देते हैं, उन्हें उनके शत्रु बड़ा परेशान करते हैं.!
इससे बचने के लिए अपने चप्पल-जूते करीने से लगाकर रखें, आपकी प्रतिष्ठा बनी रहेगी
६) ::
उन लोगों का राहू और शनि खराब होगा, जो लोग जब भी अपना बिस्तर छोड़ेंगे तो उनका बिस्तर हमेशा फैला हुआ होगा, सिलवटें ज्यादा होंगी, चादर कहीं, तकिया कहीं, कम्बल कहीं ?
उसपर ऐसे लोग अपने पुराने पहने हुए कपडे तक फैला कर रखते हैं ! ऐसे लोगों की पूरी दिनचर्या कभी भी व्यवस्थित नहीं रहती, जिसकी वजह से वे खुद भी परेशान रहते हैं और दूसरों को भी परेशान करते हैं.!
इससे बचने के लिए उठते ही स्वयं अपना बिस्तर समेट दें.!
७)::
पैरों की सफाई पर हम लोगों को हर वक्त ख़ास ध्यान देना चाहिए,
जो कि हम में से बहुत सारे लोग भूल जाते हैं ! नहाते समय अपने पैरों को अच्छी तरह से धोयें, कभी भी बाहर से आयें तो पांच मिनट रुक कर मुँह और पैर धोयें.!
आप खुद यह पाएंगे कि आपका चिड़चिड़ापन कम होगा, दिमाग की शक्ति बढेगी और क्रोध
धीरे-धीरे कम होने लगेगा.!
८) ::
रोज़ खाली हाथ घर लौटने पर धीरे-धीरे उस घर से लक्ष्मी चली जाती है और उस घर के सदस्यों में नकारात्मक या निराशा के भाव आने लगते हैं.!
इसके विपरित घर लौटते समय कुछ न कुछ वस्तु लेकर आएं तो उससे घर में बरकत बनी रहती है.!
उस घर में लक्ष्मी का वास होता जाता है.!
हर रोज घर में कुछ न कुछ लेकर आना वृद्धि का सूचक माना गया है.!
ऐसे घर में सुख, समृद्धि और धन हमेशा बढ़ता जाता है और घर में रहने वाले सदस्यों की भी तरक्की होती है.!