Thursday 14 May 2015

मन की पराधीनता से अपने दास को छुङवा लीजिए

हे दयामय राघव हे धनुर्धारी राजा राम मै अपने इस कुटिल स्वार्थी खल दुष्ट मन का क्या करूं।इस पर मेरा अधिकार नही चलता प्रभु।जितना इसे साधने का प्रयत्न करता हूं उतना अधिक अनियन्त्रित होकर उछलकूद करता है।कभी रामनाम मे नही लगता।आपकी लीला कथा श्रवण मे बैठता हूं तो यह धूर्त न जाने कहाँकहाँ घूमता फिरता है अन्त मे मालुम पङता है कि एक शब्द भी कथा का मै ग्रहण न कर पाया।मंदिर मे हे ठाकुरजी आपके दर्शनो को जाता हूं तो भी यह कपटी कपट से नही चूकता वहां की प्रत्येक घटनामे वस्तु मे तो ऐसे लगता है कि मुझे स्मरण ही नही रहे कि ठाकुरजी के दर्शन हुएभी या नही।बहुत शक्तिशाली है यह मन।हे रामजी इसी की शक्ति ने मुझे जन्मो से भटकाए रखा है अपने घर अर्थात आपके चरणो की शरण से मुझे वंचित रखा।हे राघव यद्यपि इस दुष्ट की सभी विनाशकारी चाल अबमै समझ चुका हूं लेकिन इसके बल के आगे मेरी एक नही चलती। सुबह ब्रह्ममुहूर्त मे उठकर नामसुमिरन करने का नियम लेता हूं तो निद्रा सहित अपने ऐसे छलबल दिखाता है कि मै सोया रहजाता हूं और ब्रह्ममुहूर्त कब बीत गया कब सूर्यदेव चढ आए मालुम ही नही पङता।
हे रामजी इस भयंकर बल वाले मन से डरा हुआ मै आपको ही पुकारता हूं कि हे राघव इसकलिकाल मे इस दुष्ट मन की पराधीनता से अपने दास को छुङवा लीजिए।और दास को अपनी भक्तिरूपी बल दीजिए कि इस मन की मार से प्रभावित हुए बिना मेरे जीवन का हर पल "श्रीराम श्रीराम" जपते हुए बीते।हृदय मे सदा रघुनाथ जानकी समाए रहे।कभी किसी भी कारण से किसी भी क्षण मे मै अपने श्रीरामप्रभु को न भूलूं।

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