Saturday 25 July 2015

एक ही बार परखिए, ना वा बारम्बर,
बालू तोहू किरकिरी, जो छाने सो बार
,,,,,,,किसी व्यक्ति को बस ठीक से एक ही बार परख लो,, तो फिर उसे बारम्बर परखने की ज़रूरत नही होती,, जेसे यदि बालू [ रेत ] को सो सो बार भी छाना जाए,, तो भी उसकी किरकिराहट नही जा सकती,,,,,,,,
मूड दुर्जन को कितनी भी बार परखो,, वह अपनी मुड़ता दुष्टता से भरा वेसा ही मिलेगा,

Thursday 9 July 2015

तुम बिन कछु न सुहाय

स्याम मोहिं तुम बिन कछु न सुहाय।
जब तें तुम तजि ब्रज गये मथुरा, हिय उथल्यौ‌ई आवै॥
बिरह-बिथा सगरे तनु यापी, तनिक न चैन लखावै।
कल नहिं परत निमिष इक मोही, मन-समुद्र लहरावै॥
नँद-घर सूनौ, मधुबन सूनौ, सूनी कुंज जनावै।
गोठ, बिपिन, जमुना-तट सूनौ हिय सूनौ, बिलखावै॥
अति विहवल वृषभानु-नंदिनी, नैननि नीर बहावै।
सकुच बिहा‌इ पुकारि कहति सो-’स्याम मिलै सुख पावै’॥

Tuesday 7 July 2015

परंतु मुक्ति मिल जाना संभव नहीं है।

केवल एक ज्ञान ही नित्य और आदि अन्त से रहित है। जगत में ज्ञान से भिन्न कोई अन्य वस्तु विद्यमान नहीं है। इंद्रियों की उपाधि के द्वारा जो कुछ पृथक-पृथक प्रतीत होता है, वह केवल ज्ञान की भिन्नता के कारण ही प्रतीत होता है। भक्तों पर कृपा करने के उद्देश्य से मैंने यह योग का अनुशासन कहा है। सब भूतों की आत्मा मुक्तिदायक है। यह इस शास्त्र का लक्ष्य है जो मत विवादमय और दुर्ज्ञान के कारणरूप है, उनका त्याग करके आत्मज्ञान का आश्रय लें, यही भूतों की अनन्य गति है।
कोई विद्वान सत्य की प्रशंसा करते हैं तो कोई तपस्या की और कोई शुद्ध आचार को ही श्रेष्ठ बताते हैं। कोई क्षमा को उचित मानते हैं तो कोई सब में समान भाव रखना ही ठीक बताते हैं। कोई सरलता का अनुमोदन करते हैं तो कोई दान की ही प्रशंसा किया करते हैं। कोई पितर कर्म (तर्पणादि) की महत्ता स्वीकार करते हैं । कोई कर्म अर्थात सगुण उपासना को ही मान्यता देते हैं। कुछों के मत में वैराग्य ही श्रेष्ठ है।

कोई विद्वान पुरुष गृहस्थ धर्म को प्रशंसनीय कहते हैं तो कोई परमज्ञानी अग्निहोत्र आदि कर्मों को ही प्रशस्त मानते हैं। किसी के मत में मंत्र योग ही श्रेष्ठ है और किसी के विचार में तीर्थ यात्रा आदि करना या तीर्थसेवन करना ही श्रेष्ठ है। इस प्रकार अनेकानेक विद्वानों ने संसार सागर से मुक्त होने के लिए अपनी-अपनी मति के अनुसार अनेक उपाय बताए हैं।

इस प्रकार कृत्य और अकृत्य अर्थात विधि-निषेध कर्मों के ज्ञाता पुरुष पाप कर्मों से विमुक्त रहकर भी व्यामोह में ही पड़े रहते हैं तथा पाप-पुण्य के अनुष्ठान रूप उपयुक्त मतों के आश्रय में रहते हैं। परिणामस्वरूप अनुष्ठाता को जन्म-मरण के चक्र में बार-बार घूमते रहना होता है। इसका तात्पर्य यह है कि शुभ कर्मों के करने से चित्त की शुद्धि तो संभव है, परंतु मुक्ति मिल जाना संभव नहीं है।

कुछ विद्वान गोपनीय शास्त्रों के अध्ययन में तत्पर रहना श्रेष्ठ बताते हैं। अनेकों का कहना है कि आत्मा नित्य और सर्वज्ञ गमन करने में समर्थ है। कुछ भी सत्य नहीं हैं। वे अपने दृढ़ चित्त से यही कहते हैं कि स्वर्गादि लोक हैं ही कहां? अर्थात स्वर्गादि लोक कहीं है ही नहीं। कुछ विद्वानों का मत है कि जो कुछ भी है, वह ज्ञान का प्रवाह ही है अर्थात संसार की सब दृश्यमान वस्तुएं ज्ञान के अतिरिक्त कुछ नहीं हैं। किसी किसी का निश्चय है कि जो कुछ है, वह शून्य ही है(यह शून्यवादियों का मत है) इसी प्रकार कुछ लोगों के विचार में प्रकृति और पुरुष दो ही तत्त्व हैं।

जो परमार्थ के विरुद्ध है उनकी मति तो और भी भिन्न है। इस प्रकार अपनी अपनी मति के अनुसार मान्यता बनाए हुए लोग कर्मों में लगे रहते हैं। किन्हीं का कहना है कि ईश्वर है ही नहीं और किन्हीं का कहना है कि यह जगत प्रपंच ईश्वरमय ही है। इस भांति अनेक विद्वान अनेक भेदों का वर्णन करते हैं और अपने मत में दृढ़ता पूर्वक तत्पर रहते हैं अर्थात वे किसी अन्य मत की कोई बात भी सुनना चाहते ।

इस प्रकार अनेक मनुष्यों ने विभिन्न नाम वाले और पृथक पृथक विधि विधान वाले विविध मतों को लेकर शास्त्रों की रचना कर डाली है। परंतु ऐसे सभी शास्त्र लोकों को व्यामोह में डालने वाले हैं। अर्थात उन भिन्न भिन्न मत के शास्त्रों को पढ़ने से भ्रम उत्पन्न हो जाता है और साधक कुछ निश्चय करने में असमर्थ रहता है जिसके कारण जीवन समाप्त होने तक भी चित्त में भ्रांति बनी रहती है। परंतु ऐसे विवादशील पुरुषों का मत कहने की शक्ति हममें नहीं है, जिससे कि मनुष्य मुक्ति मार्ग को छोड़कर भवचक्र में ही भ्रमण करते रहते हैं।

सभी शास्त्रों का अवलोकन करके उन पर पुनः पुनः विचार करके यही निश्चय होता है कि एक मात्र यही योग शास्त्र परममत रूप एवं श्रेष्ठ है। इसकी ठीक प्रकार से रचना हुई है। इसको जानने के लिए अवश्य ही परिश्रम करना चाहिए। क्योंकि (जब अन्य शास्त्र निरर्थक ही हैं तब) उनका ज्ञान प्राप्त करने का प्रयोजन ही क्या है?

Friday 3 July 2015

जीवन को सुधारने का प्रयत्न युवावस्था से ही करना चाहिए ।

रामायण के सात काण्ड
मानव की उन्नति के सात
सोपान <
1 बालकाण्ड - बालक प्रभु
को प्रिय है क्योकि उसमेँ
छल , कपट , नही होता ।
विद्या , धन एवं
प्रतिष्ठा बढने पर
भी जो अपना हृदय
निर्दोष
निर्विकारी बनाये
रखता है ,
उसी को भगवान प्राप्त
होते है। बालक
जैसा निर्दोष
निर्विकारी दृष्टि रखने
पर ही राम के स्वरुप
को पहचान सकते है। जीवन
मेँ सरलता का आगमन संयम
एवं ब्रह्मचर्य से होता है
।बालक की भाँति अपने
मान अपमान को भूलने से
जीवन मेँ सरलता आती है ।
बालक के समान
निर्मोही एवं
निर्विकारी बनने पर
शरीर अयोध्या बनेगा ।
जहाँ युद्ध,
वैर ,ईर्ष्या नहीँ है ,
वही अयोध्या है ।
2. अयोध्याकाण्ड - यह
काण्ड मनुष्य
को निर्विकार बनाता है
।जब जीव भक्ति रुपी सरयू
नदी के तट पर
हमेशा निवास
करता है,तभी मनुष्य
निर्विकारी बनता है।
भक्ति अर्थात्
प्रेम ,अयोध्याकाण्ड प्रेम
प्रदान करता है । राम
का भरत प्रेम , राम
का सौतेली माता से प्रेम
आदि ,सब इसी काण्ड मेँ है
।राम
की निर्विकारिता इसी मेँ
दिखाई देती है ।
अयोध्याकाण्ड का पाठ
करने से परिवार मेँ प्रेम
बढता है ।उसके घर मेँ
लडाई झगडे नहीँ होते ।
उसका घर
अयोध्या बनता है ।कलह
का मूल कारण धन एवं
प्रतिष्ठा है ।
अयोध्याकाण्ड का फल
निर्वैरता है ।सबसे पहले
अपने घर
की ही सभी प्राणियोँ मेँ
भगवद् भाव
रखना चाहिए।
3. अरण्यकाण्ड - यह
निर्वासन प्रदान
करता है ।इसका मनन करने
से वासना नष्ट होगी ।
बिना अरण्यवास(जंगल) के
जीवन मेँ
दिव्यता नहीँ आती ।
रामचन्द्र राजा होकर
भी सीता के साथ वनवास
किया ।वनवास मनुष्य
हृदय को कोमल बनाता है
।तप द्वारा ही काम
रुपी रावण का बध
होगा । इसमेँ
सूपर्णखा(मोह )एवं
शबरी (भक्ति)दोनो ही है।
भगवान राम सन्देश देते हैँ
कि मोह को त्यागकर
भक्ति को अपनाओ ।
4. किष्किन्धाकाण्ड -
जब मनुष्य निर्विकार एवं
निर्वैर होगा तभी जीव
की ईश्वर से
मैत्री होगी ।इसमे
सुग्रीव और राम अर्थात्
जीव और ईश्वर
की मैत्री का वर्णन है।जब
जीव सुग्रीव
की भाँति हनुमान अर्थात्
ब्रह्मचर्य का आश्रय
लेगा तभी उसे राम मिलेँगे
। जिसका कण्ठ सुन्दर है
वही सुग्रीव है।कण्ठ
की शोभा आभूषण से
नही बल्कि राम नाम
का जप करने से है।
जिसका कण्ठ सुन्दर है ,
उसी की मित्रता राम से
होती है किन्तु उसे
हनुमान यानी ब्रह्मचर्य
की सहायता लेनी पडेगी ।
5. सुन्दरकाण्ड - जब जीव
की मैत्री राम से
हो जाती है तो वह सुन्दर
हो जाता है ।इस काण्ड मेँ
हनुमान को सीता के
दर्शन होते है।
सीताजी पराभक्ति है ,
जिसका जीवन सुन्दर
होता है उसे
ही पराभक्ति के दर्शन
होते है ।संसार समुद्र पार
करने वाले
को पराभक्ति सीता के
दर्शन होते है ।ब्रह्मचर्य
एवं रामनाम का आश्रय
लेने वाला संसार सागर
को पार करता है ।संसार
सागर को पार करते समय
मार्ग मेँ
सुरसा बाधा डालने आ
जाती है , अच्छे रस
ही सुरसा है , नये नये रस
की वासना रखने
वाली जीभ ही सुरसा है।
संसार सागर पार करने
की कामना रखने वाले
को जीभ को वश मे
रखना होगा ।
जहाँ पराभक्ति सीता है
वहाँ शोक नही रहता ,
जहाँ सीता है
वहाँ अशोकवन है।
6. लंकाकाण्ड - जीवन
भक्तिपूर्ण होने पर
राक्षसो का संहार
होता है काम
क्रोधादि ही राक्षस हैँ ।
जो इन्हेँ मार
सकता है ,वही काल
को भी मार सकता है ।
जिसे काम मारता है उसे
काल भी मारता है ,
लंका शब्द के
अक्षरो को इधर उधर
करने पर होगा कालं ।
काल सभी को मारता है
किन्तु हनुमान जी काल
को भी मार देते हैँ ।
क्योँकि वे ब्रह्मचर्य
का पालन करते हैँ
पराभक्ति का दर्शन करते
है ।
7. उत्तरकाण्ड - इस काण्ड
मेँ काकभुसुण्डि एवं गरुड
संवाद को बार बार
पढना चाहिए । इसमेँ सब
कुछ है ।जब तक राक्षस ,
काल का विनाश
नहीँ होगा तब तक
उत्तरकाण्ड मे प्रवेश
नही मिलेगा ।इसमेँ
भक्ति की कथा है । भक्त
कौन है ? जो भगवान से एक
क्षण भी अलग
नही हो सकता वही भक्त
है । पूर्वार्ध मे जो काम
रुपी रावण को मारता है
उसी का उत्तरकाण्ड
सुन्दर
बनता है ,वृद्धावस्था मे
राज्य करता है ।
जब जीवन के पूर्वार्ध मे
युवावस्था मे काम
को मारने का प्रयत्न
होगा तभी उत्तरार्ध -
उत्तरकाण्ड सुधर
पायेगा । अतः जीवन
को सुधारने का प्रयत्न
युवावस्था से
ही करना चाहिए ।