Tuesday 7 July 2015

परंतु मुक्ति मिल जाना संभव नहीं है।

केवल एक ज्ञान ही नित्य और आदि अन्त से रहित है। जगत में ज्ञान से भिन्न कोई अन्य वस्तु विद्यमान नहीं है। इंद्रियों की उपाधि के द्वारा जो कुछ पृथक-पृथक प्रतीत होता है, वह केवल ज्ञान की भिन्नता के कारण ही प्रतीत होता है। भक्तों पर कृपा करने के उद्देश्य से मैंने यह योग का अनुशासन कहा है। सब भूतों की आत्मा मुक्तिदायक है। यह इस शास्त्र का लक्ष्य है जो मत विवादमय और दुर्ज्ञान के कारणरूप है, उनका त्याग करके आत्मज्ञान का आश्रय लें, यही भूतों की अनन्य गति है।
कोई विद्वान सत्य की प्रशंसा करते हैं तो कोई तपस्या की और कोई शुद्ध आचार को ही श्रेष्ठ बताते हैं। कोई क्षमा को उचित मानते हैं तो कोई सब में समान भाव रखना ही ठीक बताते हैं। कोई सरलता का अनुमोदन करते हैं तो कोई दान की ही प्रशंसा किया करते हैं। कोई पितर कर्म (तर्पणादि) की महत्ता स्वीकार करते हैं । कोई कर्म अर्थात सगुण उपासना को ही मान्यता देते हैं। कुछों के मत में वैराग्य ही श्रेष्ठ है।

कोई विद्वान पुरुष गृहस्थ धर्म को प्रशंसनीय कहते हैं तो कोई परमज्ञानी अग्निहोत्र आदि कर्मों को ही प्रशस्त मानते हैं। किसी के मत में मंत्र योग ही श्रेष्ठ है और किसी के विचार में तीर्थ यात्रा आदि करना या तीर्थसेवन करना ही श्रेष्ठ है। इस प्रकार अनेकानेक विद्वानों ने संसार सागर से मुक्त होने के लिए अपनी-अपनी मति के अनुसार अनेक उपाय बताए हैं।

इस प्रकार कृत्य और अकृत्य अर्थात विधि-निषेध कर्मों के ज्ञाता पुरुष पाप कर्मों से विमुक्त रहकर भी व्यामोह में ही पड़े रहते हैं तथा पाप-पुण्य के अनुष्ठान रूप उपयुक्त मतों के आश्रय में रहते हैं। परिणामस्वरूप अनुष्ठाता को जन्म-मरण के चक्र में बार-बार घूमते रहना होता है। इसका तात्पर्य यह है कि शुभ कर्मों के करने से चित्त की शुद्धि तो संभव है, परंतु मुक्ति मिल जाना संभव नहीं है।

कुछ विद्वान गोपनीय शास्त्रों के अध्ययन में तत्पर रहना श्रेष्ठ बताते हैं। अनेकों का कहना है कि आत्मा नित्य और सर्वज्ञ गमन करने में समर्थ है। कुछ भी सत्य नहीं हैं। वे अपने दृढ़ चित्त से यही कहते हैं कि स्वर्गादि लोक हैं ही कहां? अर्थात स्वर्गादि लोक कहीं है ही नहीं। कुछ विद्वानों का मत है कि जो कुछ भी है, वह ज्ञान का प्रवाह ही है अर्थात संसार की सब दृश्यमान वस्तुएं ज्ञान के अतिरिक्त कुछ नहीं हैं। किसी किसी का निश्चय है कि जो कुछ है, वह शून्य ही है(यह शून्यवादियों का मत है) इसी प्रकार कुछ लोगों के विचार में प्रकृति और पुरुष दो ही तत्त्व हैं।

जो परमार्थ के विरुद्ध है उनकी मति तो और भी भिन्न है। इस प्रकार अपनी अपनी मति के अनुसार मान्यता बनाए हुए लोग कर्मों में लगे रहते हैं। किन्हीं का कहना है कि ईश्वर है ही नहीं और किन्हीं का कहना है कि यह जगत प्रपंच ईश्वरमय ही है। इस भांति अनेक विद्वान अनेक भेदों का वर्णन करते हैं और अपने मत में दृढ़ता पूर्वक तत्पर रहते हैं अर्थात वे किसी अन्य मत की कोई बात भी सुनना चाहते ।

इस प्रकार अनेक मनुष्यों ने विभिन्न नाम वाले और पृथक पृथक विधि विधान वाले विविध मतों को लेकर शास्त्रों की रचना कर डाली है। परंतु ऐसे सभी शास्त्र लोकों को व्यामोह में डालने वाले हैं। अर्थात उन भिन्न भिन्न मत के शास्त्रों को पढ़ने से भ्रम उत्पन्न हो जाता है और साधक कुछ निश्चय करने में असमर्थ रहता है जिसके कारण जीवन समाप्त होने तक भी चित्त में भ्रांति बनी रहती है। परंतु ऐसे विवादशील पुरुषों का मत कहने की शक्ति हममें नहीं है, जिससे कि मनुष्य मुक्ति मार्ग को छोड़कर भवचक्र में ही भ्रमण करते रहते हैं।

सभी शास्त्रों का अवलोकन करके उन पर पुनः पुनः विचार करके यही निश्चय होता है कि एक मात्र यही योग शास्त्र परममत रूप एवं श्रेष्ठ है। इसकी ठीक प्रकार से रचना हुई है। इसको जानने के लिए अवश्य ही परिश्रम करना चाहिए। क्योंकि (जब अन्य शास्त्र निरर्थक ही हैं तब) उनका ज्ञान प्राप्त करने का प्रयोजन ही क्या है?

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