Tuesday 5 May 2015

वह तुम्हारे समीप आत्म - स्वरूप ही हैं


तहँ आपै आप निरंजना, तहँ निसवासर नहि संजमा ॥ टेक ॥ 
तहँ धरती अम्बर नाहीं, तहँ धूप न दीसै छांहीं ।
तहँ पवन न चालै पानी, तहँ आपै एक बिनानी ॥ १ ॥ 
तहँ चंद न ऊगै सूरा, मुख काल न बाजै तूरा ।
तहँ सुख दुख का गम नाहीं, ओ तो अगम अगोचर माहीं ॥ २ ॥ 
तहँ काल काया नहिं लागै, तहँ को सोवै को जागै ।
तहँ पाप पुण्य नहिं कोई, तहँ अलख निरंजन सोई ॥ ३ ॥ 
तहँ सहज रहै सो स्वामी, सब घट अंतरजामी ।
सकल निरन्तर वासा, रट दादू संगम पासा ॥ ४ ॥ 
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव इसमें, ब्रह्म - वस्तु का निर्देश कर रहे हैं कि हे जिज्ञासुओं ! सहजावस्था रूप समाधि में आपै - आप स्वयं निरंजन स्वरूप ब्रह्म ही है । वहाँ किसी प्रकार के संयम आदि साधन नहीं हैं । न रात है, न दिन, न धरती है, न आकाश है, न धूप है, न छाया है, न पवन है, न पानी है, वहाँ आप स्वयं एक सजातीय विजातीय स्वगत भेद रहित कर्ता - हर्ता एक ब्रह्म ही है । वहाँ न चन्द्रमा उदय होता है, और न सूर्य, और न वहाँ काल, प्राणियों को ले जाने वाला मुख से बाजा ही बजाता है । उस स्वरूप में न सुख है, न दुःख है, मन इन्द्रियों का अविषय अनुभव - गम्य राम हृदय में आत्मा - स्वरूप से स्थित हैं । उस ब्राह्मी अवस्था में शरीर को काल भी दंड नहीं देता । अज्ञानी सोते हैं, ज्ञानी जागते हैं । पाप - पुण्य का फल, सुख - दुःख नहीं होता है । अलख मन - वाणी का अविषय, आप स्वयं निरंजन ब्रह्म ही हैं । वहाँ निर्द्वन्द्व स्वरूप सबका स्वामी, अन्तर्यामी, सब शरीरों में आप स्वयं आत्म - रूप से स्थित हैं । वही सबके भीतर अन्तराय रहित निरन्तर बस रहे हैं । मुक्त पुरुष कहते हैं कि हे मुमुक्षुओं ! वह तुम्हारे समीप आत्म - स्वरूप ही हैं, उन्हीं का स्मरण करो ।

No comments:

Post a Comment