Wednesday 11 February 2015

जब तुम देखते हो कि तुम मर रहे हो

‘’मृतवत लेटे रहो।‘’कल्पना करो कि तुम एकाएक मर गए हो। शरीर को छोड़ दो, क्‍योंकि तुम मर गए हो। बस कल्‍पना करो कि मृत हूं, मैं शरीर नहीं हूं, शरीर को नहीं हिला सकता। आँख भी नहीं हिला सकता। मैं चीख-चिल्‍ला भी नहीं सकता। न ही मैं रो सकता हूं, कुछ भी नहीं कर सकता। क्‍योंकि मैं मरा हुआ हूं। और तब देखो तुम्‍हें कैसा लगता है। लेकिन अपने को धोखा मत दो। तुम शरीर को थोड़ा हिला सकते हो, नहीं, हिलाओ नहीं। लेकिन मच्‍छर भी आ जाये, तो भी शरीर को मृत समझो। यह सबसे अधिक उपयोग की गई विधि है।
रमण महर्षि इसी विधि से ज्ञान को उपलब्‍ध हुए थे। लेकिन यह उनके इस जन्‍म की विधि नहीं थी। इस जन्‍म में तो अचानक सहज ही यह उन्‍हें घटित हो गई। लेकिन जरूर उन्‍होंने किसी पिछले जन्‍म में इसकी सतत सधाना की होगी। अन्‍यथा सहज कुछ भी घटित नहीं होता। प्रत्‍येक चीज का कार्य-कारण संबंध रहता है। जब वे केवल चौदह या पंद्रह वर्ष के थे, एक रात अचानक रमण को लगा कि मैं मरने वाला हूं, उनके मन में यक बात बैठ गई कि मृत्‍यु आ गई है। वे अपना शरीर भी नहीं हिला सकते थे। उन्‍हें लगा कि मुझे लकवा मार गया है। फिर उन्‍हें अचानक घुटन महसूस हुई और वे जान गए कि उनकी ह्रदय-गति बंद होने वाली है। और वे चिल्‍ला भी नहीं सके, बोल भी नहीं सके कि मैं मर रहा हूं।कभी-कभी किसी दुस्वप्न में ऐसा होता है कि जब तुम न चिल्‍ला पाते हो और न हिल पाते हो। जागने पर भी कुछ क्षणों तक तुम कुछ नहीं कर पाते हो। यही हुआ रमण को अपनी चेतना पर तो पूरा अधिकार था। पर अपने शरीर पर बिलकुल नहीं। वे जानते थे कि मैं हूं, चेतना हूं, सजग हूं, लेकिन मैं मरने वाला हूं। और यह निश्‍चय इतना घना था कि कोई विकल्‍प भी नहीं था। इसलिए उन्‍होंने सब प्रयत्‍न छोड़ दिया। उन्‍होंने आंखे बद कर ली और मृत्‍यु की प्रतीक्षा करने लगे।धीरे-धीरे उनका शरीर सख्‍त हो गया। शरीर मर गया। लेकिन एक समस्‍या उठ खड़ी हुई। वे जान रहे थे कि शरीर नहीं हूं। लेकिन मैं तो हूं, वे जान रहे थे कि मैं जीवित हूं, और शरीर मर गया है। फिर वे उस स्‍थिति से वापस आए। 
सुबह में शरीर स्‍वास्‍थ था। लेकिन वही आदमी नहीं लौटा था जो मृत्‍यु के पूर्व था। क्‍योंकि उसने मृत्‍यु को जान लिया था।अब रमण ने एक नए लोक को देख लिया था। चेतना के एक नए आयाम को जान लिया था। उन्‍होंने घर छोड़ दिया। उस मृत्‍यु के अनुभव ने उन्‍हें पूरी तरह बदल दिया। और वे इस यूग के बहुत थोड़े से प्रबुद्ध पुरूषों में हुए।और यहीं विधि है जो रमण को सहज घटित हुई। लेकिन तुमको यह सहज ही नहीं घटित होने वाली। लेकिन प्रयोग करो तो किसी जीवन में यह सहज हो सकती है। प्रयोग करते हुए भी यह घटित हो सकती है। और यदि नहीं घटित हुई तो भी प्रयत्‍न कभी व्‍यर्थ नहीं जाता है। यह प्रयत्‍न तुम में रहेगा। तुम्‍हारे भीतर बीज बनकर रहेगा। कभी जब उपयुक्‍त समय होगा और वर्षा होगी, यह बीज अंकुरित हो जाएगा।सब सहजता की यही कहानी है। किसी काल में बीज बो दिया गया था। लेकिन ठीक समय नहीं आया था। और वर्षा नहीं हुई थी। किसी दूसरे जन्‍म और जीवन में समय तैयार होता है, तुम अधिक प्रौढ़, अधिक अनुभवी होते हो। और संसार में उतने ही निराश होते हो, तब किसी विशेष स्‍थिति में वर्षा होती है और बीज फूट निकलता है।
‘’मृतवत लेटे रहो। क्रोध में क्षुब्‍ध होकर उसमें ठहरे रहो।‘’निश्‍चय ही जब तुम मर रहे हो तो वह कोई सुख का क्षण नहीं होगा। वह आनंदपूर्ण नहीं हो सकता। जब तुम देखते हो कि तुम मर रहे हो। भय पकड़ेगा। मन में क्रोध उठेगा, या विषाद, उदासी, शोक, संताप, कुछ भी पकड़ सकता है। व्‍यक्‍ति-व्‍यक्‍ति में फर्क है।सूत्र कहता है—‘’क्रोध में क्षुब्‍ध होकर उसमे ठहरे रहो, स्‍थित रहो।‘’अगर तुमको क्रोध घेरे तो उसमे ही स्‍थित रहो। अगर उदासी घेरे तो उसमे भी। भय, चिंता, कुछ भी हो, उसमें ही ठहरे रहो, डटे रहो, जो भी मन में हो, उसे वैसा ही रहने दो, क्‍योंकि शरीर तो मर चुका है।यह ठहरना बहुत सुंदर है। अगर तुम कुछ मिनटों के लिए भी ठहर गए तो पाओगे कि सब कुछ बदल गया। लेकिन हम हिलने लगते है। यदि मन में कोई आवेग उठता है तो शरीर हिलने लगता है। उदासी आती है, तो भी शरीर हिलता है। इसे आवेग इसीलिए कहते है कि यह शरीर में वेग पैदा करता है।
मृतवत महसूस करो—और आवेगों को शरीर हिलाने इजाजत मत दो। वे भी वहां रहे और तुम भी वहां रहो। स्‍थिर, मृतवत। कुछ भी हो, पर हलचल नहीं हो, गति नहीं हो। बस ठहरे रहो।‘’या पुतलियों को घुमाएं बिना एकटक घूरते रहो।‘’यह मेहर बाबा की विधि थी। वर्षो वे अपने कमरे की छत को घूरते रहे, निरंतर ताकते रहे। वर्षो वह जमीन पर मृतवत पड़े रहे और पुतलियों को, आंखों को हिलाए बिना छत को एक टक देखते रहे। ऐसा वे लगातार घंटो बिना कुछ किए घूरते रहते थे। टकटकी लगाकर देखते रहते थे।आंखों से घूरना अच्‍छा है। क्‍योंकि उससे तुम फिर तीसरी आँख मैं स्‍थित हो जाते हो। और एक बार तुम तीसरी आँख में थिर हो गए तो चाहने पर भी तुम पुतलियों को नहीं घूमा सकते हो। वे भी थिर हो जाती है—अचल।मेहर बाबा इसी घूरने के जरिए उपलब्‍ध हो गए। और तुम कहते हो कि इन छोटे-छोटे अभ्‍यासों से क्‍या होगा। लेकिन मेहर बाबा लगातार तीन वर्षों तक बिना कुछ किए छत को घूरते रहे थे। तुम सिर्फ तीन मिनट के लिए ऐसी टकटकी लगाओ और तुमको लगेगा कि तीन वर्ष गुजर गये। तीन मिनट भी बहुत लम्‍ब समय मालूम होगा। तुम्‍हें लगेगा की समय ठहर गया है। और घड़ी बंद हो गई है। लेकिन मेहर बाबा घूरते रहे, घूरते रह, धीरे-धीरे विचार मिट गए। और गति बंद हो गई। मेहर बाबा मात्र चेतना रह गए। वे मात्र घूरना बन गए। टकटकी बन गए। और तब वे आजीवन मौन रह गए। टकटकी के द्वारा वे अपने भीतर इतने शांत हो गए कि उनके लिए फिर शब्‍द रचना असंभव हो गई।
मेहर बाबा अमेरिका में थे। वहां एक आदमी था जो दूसरों के विचार को, मन को पढ़ना जानता था। और वास्‍तव में वह आदमी दुर्लभ था—मन के पाठक के रूप में। वह तुम्‍हारे सामने बैठता, आँख बंद कर लेता और कुछ ही क्षणों में वह तुम्‍हारे साथ ऐसा लयवद्ध हो जाता कि तुम जो भी मन में सोचते, वह उसे लिख डालता था। हजारों बार उसकी परीक्षा ली गई। और वह सदा सही साबित हुआ। तो कोई उसे मेहर बाबा के पास ले गया। वह बैठा और विफल रहा। और यह उसकी जिंदगी की पहली विफलता थी। और एक ही। और फिर हम यह भी कैसे कहें कि यह उसकी विफलता हुई।वह आदमी घूरता रहा, घूरता रहा, और तब उसे पसीना आने लगा। लेकिन एक शब्‍द उसके हाथ नहीं लगा। हाथ में कलम लिए बैठा रहा और फिर बोला—किसी किस्‍म का आदमी है। यह, मैं नहीं पढ़ पाता हूं, क्‍योंकि पढ़ने के लिए कुछ है ही नहीं। यह आदमी तो बिलकुल खाली है। मुझे यह भी याद नहीं रहता की यहां कोई बैठा है। आँख बंद करने के बाद मुझे बार-बार आँख खोल कर देखना पड़ता है कि यह व्‍यक्‍ति यहां है कि नहीं। या यहां से हट गया है। मेरे लिए एकाग्र होना भी कठिन हो गया है। क्‍योंकि ज्‍यों ही मैं आँख बंद करता हूं कि मुझे लगता है कि धोखा दिया जा रहा है। वह व्‍यक्‍ति यहां से हट जाता है। मेरे सामने कोई भी नहीं है। और जब मैं आँख खोलता हूं तो उसको सामने ही पाता हूं। वह तो कुछ भी नहीं सोच रहा है।उस टकटकी ने, सतत टकटकी ने मेहर बाबा के मन को पूरी तरह विसर्जित कर दिया था।

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