Thursday 25 June 2015

जिसके करने से पुण्य अर्जित होता है।

सभी शास्त्रों का अवलोकन करके उन पर पुनः पुनः विचार करके यही निश्चय होता है कि एक मात्र यही योग शास्त्र परममत रूप एवं श्रेष्ठ है। इसकी ठीक प्रकार से रचना हुई है। इसको जानने के लिए अवश्य ही परिश्रम करना चाहिए। क्योंकि (जब अन्य शास्त्र निरर्थक ही हैं तब) उनका ज्ञान प्राप्त करने का प्रयोजन ही क्या है?

शिव जी कहते हैं कि मेरे द्वारा कहा गया यह योगशास्त्र गोपनीय है,इसलिए इसे तीनों लोकों में से केवल उसी को देना चाहिए,जो कि महात्मा और श्रेष्ठ भक्t
वेद के दो मत हैं-कर्मकांड और ज्ञानकांड। उनमें कर्मकांड और ज्ञानकांड दोनों के भी दो-दो भेद माने गए हैं। कर्मकांड के दो भागों को निषेध और विधि के नाम से जाना जाता है। निषेध कर्म के करने से अवश्य ही पाप होता है और विधि कर्म के कारण निश्चित रूप से पुण्य होता है।

विधि कर्म नित्य,नैमित्तिक और सकाम के भेद से तीन प्रकार के होते हैं। नित्यकर्म अर्थात देव-पूजन, संध्या आदि इसके न करने से पाप होता है। सकाम कर्मफल की इच्छा से किया जाता है और नैमित्तिक कर्म अर्थात पर्व काल में तीर्थ आदि के पुण्यजलों में स्नान दान आदि है, जिसके करने से पुण्य अर्जित होता है।

दो प्रकार का फल माना जाता है। स्वर्ग और नरक। स्वर्ग और नरक दोनों ही अनेक प्रकार के होते हैं। पुण्य कर्म करने वाले को स्वर्ग और पाप कर्म करने वाले को नरक की प्राप्ति होती है। यह सृष्टि निश्चय ही कर्मबंधन से युक्त है, इसे अन्यथा नहीं समझना चाहिए। सृष्टि के कर्म बंधन का तात्पर्य यह है कि संसार में आकर मनुष्य जो कुछ कर्म या अकर्म करता है,जब तक उनके फल का भोग नहीं किया जाता और जब तक किंचित भी कर्म शेष रहता है,तब तक संसार के बंधन से छुटकारा नहीं मिलता।

स्वर्ग में जीव को अनेक प्रकार के सुखों का अनुभव प्राप्त होता है और इसी प्रकार नरक में उसे अनेक प्रकार के दुःसहनीय दुखों को भोगना होता है। पाप कर्मों के करने से दुःख की और पुण्य कर्मों का करने से सुख की प्राप्ति है, इसलिए हमेशा पुण्य कर्म करने के लिए प्रयास करना चाहिए।

जैसे पाप का फल भोग लेने पर जीव को पुनः संसार में जन्म लेना होता है, वैसे ही पुण्य का फल भोगने पर भी पुनर्जन्म ग्रहण करना होता है। ऐसा अवश्य होता है, इसमें अन्यथा नहीं समझना चाहिए। स्वर्ग भी निश्चय ही दुःख का स्थान है, क्यों कि वहां परस्त्री का दर्शन (अप्सरा आदि का भोग) मिलता है, जिससे रागद्वेष ईर्ष्या आदि एवं इच्छित स्त्री के न मिलने से मानसिक व्यथा उत्पन्न होना स्वाभाविक है और यह सब दुःख रूप ही है, इसमें कुछ भी संशय नहीं है।

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