Monday 21 July 2014

मनुष्य जन्म दुर्लभ

हाड़ जरै ज्यों लाकड़ी, केस जरै ज्यों घास l
सब जग जरता देख करि, भये कबीर उदास ll
झूठे सुख को सुख कहैं, मानत हैं मन मोद l
जगत चबेना काल का, कुछ मुख में कुछ गोद ll
कुसल-कुसल ही पूछते, जग में रहा न कोय l
जरा मुई ना भय मुआ, कुसल कहाँ ते होय ll
पानी केरा बुदबुदा, अस मानुष की जाति l
देखत ही छिपि जायगी, ज्यों तारा परभाति ll
पाँचौं नौबत बाजती, होत छतीसों राग l
सो मंदिर खाली परे, बैठन लागे काग ll
कबीर थोडा जीवना, माँडै बहुत मँडान l
सबही ऊभा मौत मुंह, राव रंक सुलतान ll
कहा चुनावै मेडियाँ, लम्बी भीति उसारी l
घर तो साढ़े तीन हाथ, घना तो पौने चारि ll
कबिरा गर्ब न कीजिये, ऊँचा देखि आवास l
काल्ह परै भुइँ लेटना, ऊपर जमसी घास ll
माटी कहै कुम्हार कौं, तू क्या रुँदै मोहिं l
इक दिन ऐसा होइगा, मैं रूँदूँगी तोहिं ll
कबीर यह तन जात है, सकै तो राखु बहोरि l
खाली हाथों वे गये, जिन के लाख-करोरि ll
आसपास जोधा खड़े, सभी बजावैं गाल l
मंझ महल से लै चला, ऐसा काल कराल ll
चलती चक्की देखि कै दिया कबीर रोय l
दो पाटन के बीच में बाकी बचा न कोय ll
हाँकों परबत फाटते, समुँदर घूँट भराय l
ते मुनिवर धरती गले, क्या कोई गर्व कराय ll
तन सराय मन पाहरू, मनसा उतरी आय l
कोउ काहू का है नहीं, (सब) देखा ठोंक बजाय ll
काल चक्र चक्की चलै, सदा दिवस अरु रात l
सगुन अगुन दुइ पाटला, तामें जीव पिसात ll
आसै पासै जो फिरै, निपटु पिसावै सोय l
कीला से लागा रहै, ता को बिघन न होय ll
माली आवत देखि कै, कलियाँ करैं पुकारि l
फूली फूली चुनी लई, काल्ह हमारी बारि ll
जो ऊगै सो अत्थवै, फूलै सो कुम्हिलाय l
जो चुनिये सो ढहि परै, जामै सो मरि जाय ll
मनुष्य जन्म दुर्लभ अहै, होय न बारंबार l
तरुवर से पत्ता झरैं, बहुरि न लागैं डार ll
देखा-देखी भक्ति कौ, कबहुँ न चढ़ती रंग l
बिपति पड़े यों छाँडसी, ज्यों केंचुली भुजंग ll

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