Wednesday 23 July 2014

निकृष्ट योनियो को प्राप्त करते है ।

साई को भगवान मानकर उसके लिए श्रद्धा रखना बहुत बड़ा पाप है, इस विषय मे भगवान कृष्ण ने क्या कहा है .... पूरा पढे व अन्य को बताए ।

गीता के सातवे अध्याय में अर्जुन पूछते है - हे कृष्ण , जो मनुष्य शास्त्रवर्णित ईश्वर को छोड़, शास्त्रविधि के विरुद्ध अपनी श्रद्धा से किसी अन्य किसी की उपासना करते है , तो उनकी यह उपासना कैसी हैं ??? 

भगवान श्री कृष्ण कहते है - "त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा" -- अर्थात मनुष्य में जो शास्त्रीय संस्कार से रहित श्रद्धा उत्पन्न होती है वह तीन प्रकार की है , सात्विकी , राजसी और तामसी । 

आगे कहते है - " यजन्ते सात्विका देवान् यक्षरक्षांसि राजसा:। _ _ अर्थात -- सात्विक मनुष्य देवो को पूजते है, राजस पुरुष यक्ष आदि को , और तामस मनुष्य, मरे हुये व्यक्तियों भूत प्रेत आदि को पूजते है । 

उपरोक्त वर्णन से स्पष्ट है कि जो साईभक्त "श्रद्धा श्रद्धा " का राग अलापते है, उनकी इस कथित श्रद्धा को भगवान श्री कृष्ण तामसिक वृत्ति कह रहे है । ऐसी केवल स्वभाव से उत्पन्न तामसिक श्रद्धा कल्याण का नहीं अपितु पतन का मार्ग खोलती है । इस तामसिक श्रद्धा के उत्पन्न होने से मनुष्य की श्रद्धा मरे हुये व्यक्तियों अथवा भूत-प्रेत आदि के प्रति बन जाती है । 

कृष्ण कहते है -- " मां चेवांत:शरीरस्थं तान् विद्दयासुरनिश्चयान् -- अर्थात -- ऐसे आसुरी स्वभाव व तामसी श्रद्धा वाले मनुष्य , अपनी अज्ञानता के चलते मुझे भी कृश करते है अर्थात , मुझे भी क्लेश पहुचाते है। 

ऐसे मनुष्य अवहेलनापूर्वक शास्त्रो के मत का त्याग करके , अपनी समझ से जो अच्छा लगता है , वही करते है। इन यथेच्छाचारी मनुष्यो की श्रद्धा , पूजा व कर्म शास्त्रनिषिद्ध होते है। ऐसे तामस पुरुषो को नरकादि दुर्गति प्राप्त होती है। ये अपनी तामसिक श्रद्धा के वश में हो लोभ से भरे , अपना पापमय जीवन बिताते है, और अंततः नाना दुखो को भोगते हुये, अंधकार से आच्छादित कष्टमय लोको मे भ्रमण करते ,नरकादि के भीषण दुखो को भोगकर , भूत-प्रेतादि व कूकर, शूकर जैसी निकृष्ट योनियो को प्राप्त करते है । 

और जो अपने शास्त्रो पर श्रद्धा व आस्था रखते हुये, उनके कथानुसार अपने श्री भगवान के चरणो का आश्रय लेते है । वे अपने लोक व परलोक दोनों का उत्थान करते हुये अंततः श्री भगवान को ही प्राप्त हो जाते है ॥ॐ॥

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