Tuesday 29 July 2014

ऐसे अधिकारी जीव को ही परमात्मा मिलते हैँ

दीपक के प्रकाश मेँ चाहे कोई भागवत पाठ करे या चोरी । दीपक के मन मे न तो किसी के प्रति सुभाव होगा न तो कुभाव । दीपक का धर्म तो एक ही है प्रकाशित होना , प्रकाश देना । प्रकाश का किसी के कर्म के साथ कोई सम्बन्ध नही है "ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति ।" परमात्मा सभी के हृदय मे बस कर दीपक की भाँति प्रकाश देते है । जीव के पाप या पुण्य कर्म का साक्षीभूत परमात्मा पर कोई प्रभाव नहीँ पड़ता । ईश्वर न तो निष्ठुर है न दयालु । ईश्वर का अपना कोई धर्म नहीँ ।ईश्वर आनन्दरुप हैँ , सर्वव्यापी हैँ । परमात्मा बुद्धि से परे है । ईश्वर ही बुद्धि को प्रकाशित करते है । ईश्वर को प्रकाश देने वाला कोई नहीँ हैँ वह स्वयं प्रकाशी है । ईश्वर के सिवाय अन्य सभी परप्रकाशी है ।
ईश्वर का दीपक सा यह स्वरुप हमेँ प्रकाश देता है इस स्वरुप का अनुभव करने हेतु ज्ञानी पुरुष ब्रह्माकार वृत्ति धारण करते हैँ । जब मन ईश्वर का सतत् चिन्तन करे , वृत्ति जब कृष्णाकार, ब्रह्माकार बने तभी मन को शान्ति मिलती है । ईश्वर को छोड़कर मनोवृत्ति को जहाँ भी रखा जायेगा वह स्थान उसमेँ समा नही पायेगा ईश्वर के अतिरिक्त सभी कुछ अल्प है । अतः अन्य किसी भी वृत्ति प्रवृत्ति मेँ मनोवृत्ति को शान्ति नही मिलेगी जब वृत्ति कृष्णाकार , ब्रह्माकार , भगवतस्वरुप बनेगी तभी आनन्द की प्राप्ति होगी ।
सत्यनिष्ठ जीव ही सत्यव्रत मनु है । कृतमाला के किनारे बसने का अर्थ है , सत्कर्म की परम्परा मेँ जीना । ऐसा होने पर ही सत्यव्रत जीवात्मा की वृत्ति ब्रह्माकार होती है । और भगवान मत्स्यनारायण उनके हाथ मेँ आते हैँ । ऐसे अधिकारी जीव को ही परमात्मा मिलते हैँ 

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