Sunday 25 May 2014

रहो तुम कहीं भी, सुरति परमात्मा में हो

संसार छोड़ कर जाने की कोई भी जरूरत नहीं। सुरति को पा लो कि तुम संन्यासी हो गए। सुरति सम्हल गयी कि सब सम्हल गया। और तुम जंगल भी भाग जाओगे तो क्या फायदा है, अगर सुरति संसार की बनी रही!
और अक्सर ऐसा होता है। लोग जंगल में बैठ जाते हैं जा कर, फिर यहां की याद करते हैं। और मन का तो यह ढंग ही है कि तुम जहां होते हो, वहां की फिक्र ही नहीं करता। जहां नहीं होते, वहां की फिक्र करता है। जब तुम यहां हो तब तुम्हें लगता है, 
हिमालय में बड़ा आनंद होगा। फिर तुम हिमालय पहुंच गए, तब तुम सोचते हो, पता नहीं उधर बहुत आनंद आ रहा हो, पूना में। और पता नहीं हम भटक गए, सारी दुनिया तो वहीं है। सभी तो गलत नहीं हो सकते। अब हम यहां बैठे-बैठे क्या कर रहे हैं झाड़ के नीचे? वहां भी तुम रुपए गिनोगे। वहां भी तुम हिसाब लगाओगे। वहां भी पत्नी और बच्चों के चेहरे तुम्हारे आसपास घूमेंगे। तुम रहोगे हिमालय में, लेकिन सुरति तो तुम्हारी यहां लगी रहेगी।
 रहो तुम कहीं भी, सुरति परमात्मा में हो।.

No comments:

Post a Comment