Tuesday 27 May 2014

हमारी रीढ़ की हड्डी में ३ सूक्ष्म नाड़िया हैं

तंत्र के एक मुख्य मार्ग कुंडलिनी जागरण में सम्भोग से समाधि की बात कही गयी है ,यद्यपि अन्य रास्ते भी होते हैं ,किन्तु इस मार्ग की विशेषता यह है की यह वही कार्य कुछ ही समय में संपन्न कर सकता है जिसे अन्य मार्ग वषों में शायद कर पायें |इसकी पद्धति पूर्ण वैज्ञानिक है और शारीरिक ऊर्जा को इसका माध्यम बनाया जाता है |धनात्मक और ऋणात्मक की आपसी शार्ट सर्किट से उत्पन्न अत्यंत तीब्र ऊर्जा को पतित होने से रोककर उसे उर्ध्वमुखी करके इस लक्ष्य को प्राप्त किया जाता है ,यद्यपि यह अत्यंत कठिन और खतरनाक मार्ग भी है जिसमे ऊर्जा न सँभालने पर पूरी सर्किट के ही भ्रष्ट होने का खतरा होता है ,पर यह मार्ग वह उपलब्धियां कुछ ही समय में दे सकता है ,जिसे पाने में अन्य मार्गों से वर्षों समय लगता है और निश्चितता भी नहीं होती की मिलेगा ही |यह मार्ग यद्यपि अत्यंत विवादास्पद रहा है किन्तु इसकी वैज्ञानिकता संदेह से परे है और सिद्धांत पूरी तरह प्रकृति के नियमो के अनुकूल है |तभी तो प्रकृति पर नियंत्रण का यह सबसे उत्कृष्ट माध्यम है ,और किसी न किसी रूप में अन्य माध्यमो में भी अपनाया जाता है |सामान्य पूजा-अनुष्ठानो में भी ब्रह्मचर्य के पालन की हिदायत दी जाती है ,उसका भी वाही उद्देश्य होता है की ऊर्जा संरक्षित करके उसे उर्ध्वमुखी किया जाए |तंत्र में अंतर बस इतना ही आता है की इस ऊर्जा को तीब्र से तीब्रतर करके रोका और उर्ध्वमुखी किया जाता है ,इस हेतु प्रकृति की ऋणात्मक शक्ति को सहायक बनाया जाता है तीब्र ऊर्जा उत्पादन में |
सम्भोग और समाधि एक ही ऊर्जा के भिन्न तल हैं|. निम्न तल यानी मूलाधार चक्र पर जब जीवन ऊर्जा की अभिव्यक्ति होती है तो यह सेक्स बन जाता है|. उच्च तल पर समान उर्जा भगवत्ता बन जाती है जिसे समाधि कहा गया है|.यौन ऊर्जा का अर्थ वीर्य से नही है.| वीर्य मात्र यौन ऊर्जा का भौतिक तल है.| यौन ऊर्जा का वाहक है वीर्य.| यौन ऊर्जा ऊपर गति करती है| इसका यह अर्थ नही है वीर्य ऊपर चढ़ जाता है|. वीर्य के ऊपर चढने का कोई उपाय नही है|. यह मनस ऊर्जा है और अदृश्य है|. इसका केवल अनुभव होता है. जैसे हवा अदृश्य है और उसका केवल अनुभव होता है.| हमारी रीढ़ की हड्डी में ३ सूक्ष्म नाड़िया हैं - इडा- पिंगला- सुषुम्ना. यह मनस उर्जा सुषुम्ना के द्वारा ऊपर का अभियान करती है. इसका सामना सात स्टेशनों से पड़ता है जिसे चक्र कहते हैं. और इस पूरी ऊर्जा की यात्रा को 'कुण्डलिनी जागरण' कहते हैं.|ध्यान और तंत्र की विधियों द्वारा इस ऊर्जा को ऊपर ले जाया जा सकता है.| यह विधिया आज से हजारों वर्ष पूर्व विश्व के प्रथम गुरु और मूल शक्ति भगवान शिव ने पार्वती को कहीं थी जिसे तन्त्र' में संस्कृत में संकलित किया गया है |प्रत्येक चक्र से शरीर जुडा हुआ है. और हर दूसरा शरीर विपरीत है. अर्थात पुरुष का दुसरा शरीर स्त्री का है और स्त्री का दुसरा शरीर पुरुष का. इसी लिए स्त्रियाँ पुरुषों से अधिक धैर्यवान होती हैं क्यूँ की उनका दूसरा शरीर पुरुष का है जो अपेक्षाकृत मजबूत है.| अर्धनारीश्वर की प्रतिमा यही सन्देश देती है|
.इस प्रकार प्रत्येक शरीर में ७ चक्रों से जुड़े ७ शरीर होते हैं. एक -एक चक्र के जागरण के साथ एक एक शरीर सक्रीय होने लगता है. |शरीर परस्पर मिल जाते हैं. कुंडली जागरण की यह प्रक्रिया ' अंतर सम्भोग' कही जाती है क्यूँ की एक स्त्री शरीर अपने ही पुरुष शरीर से संयुक्त हो जाती है, इसमें ऊर्जा नष्ट नही होती बल्कि ऊर्जा का एक अनन्य वर्तुल बन जाता है जो आध्यात्मिक जागरण और आंतरिक आनंद के रूप में परिलक्षित होता है. संतो के चेहरे पर खुमारी, तेज, दिव्यता का यही कारण है.| इस अंतर सम्भोग के अनेक दिव्य परिणाम होते हैं| बाहर के सेक्स से अनंत गुना आनंद और तृप्ति उपलब्ध होती है.| प्रत्येक चक्र के जागरण और शरीरो के मिलन से आनंद का खजाना मिलने लगता है|. बाहर सेक्स की इच्छा समाप्त हो जाती है. इसी को ब्रह्मचर्य कहते हैं.| व्यक्ति ब्रह्म जैसा हो जाता है. |उसकी चर्या ब्रह्म जैसी हो जाती है. शिव लिंग का प्रतीक इसी अंतर सम्भोग को परिलक्षित करता है.| चक्रों के जगने के साथ उसके सम्बंधित सिद्धियाँ मिल जाती हैं- जैसे ह्रदय चक्र के जगने के साथ विराट करुना व प्रेम के आनंद का भान होने लगता है|. आज्ञा चक्र के जगने के साथ व्यक्ति तीनो कालो को जानने वाला हो जाता है.| विशुद्ध चक्र के जागने के साथ व्यक्ति जो बोले वह सत्य होने लगता है.| प्राचीन आशीर्वाद की कथाये उन्ही ऋषियों की क्षमताये हैं जिनका विशुद्ध चक्र सक्रीय हो गया था.| सहस्रार चक्र आखिरी चक्र है जिसके सक्रीय होते ही व्यक्ति परम धन्यता को उपलब्ध हो जाता है| जब वह ब्रह्म ही हो जाता है- 'अहम् ब्रह्मास्मि' का उद्घोष| . उसके शक्ति के अंतर्गत समस्त सृष्टि की शक्तियां उसके पास आ जाती हैं लेकिन वह इनका उपयोग नही करता क्यूँ की उसे यह भी बोध हो जाता है की सृष्टि व इसके नियम उसी के द्वारा बनाये गये हैं.| परम ज्ञान की अवस्था को समाधि कहा गया है|. समाधि का अर्थ है समाधान.| इसकी अनुभूति चौथे शरीर से ही होने लगती है. चौथे शरीर से ही परमात्मा का ओमकार स्वरूप पकड़ में आने लगता है.|

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