Sunday 25 May 2014

माता, बहिन और अपनी लड़की के विषय में भी सावधान रहे

मनुष्य को चाहिए कि वह माता, बहिन और अपनी लड़की के विषय में भी सावधान रहे, क्योंकि इंद्रियाँ बलवान् होती हैं और मौका पड़ने पर विद्वान् को भी खींच ले जाती है।"
गीता कहती है कि एक साधक स्तर का व्यक्ति संभव है कि इंद्रियों को विषयों से हटा ले, पर वे मन पर हमला न कर दें, इसलिए उसे सूक्ष्म इंद्रिय निग्रह में निष्णात होना चाहिए। अगले श्लोक में भगवान् कहते है

इसलिए हर साधक के लिए अभीष्ट है कि वह इन संपूर्ण इंद्रियों को वश में करके समाहित चित्त हो मरे परायण होकर ध्यान में बैठे क्योंकि जिस पुरुष की इंद्रियाँ वश में होती हैं, उसी की बुद्धि स्थिर हो जाती है।"
भगवान् श्रीकृष्णा कहते हैं
 जल में चलने वाली नाव को वायु हर लेती है, वैसे ही विषयों में विचरती हुर्इ इंद्रियों में से मन जिस इंद्रिय के साथ रहता है, वह एक ही इंद्रिय इस अयुक्त पुरुष की बुद्धि को हर लेती है।"
यह श्लोक कर्इ मायनों में विशिष्ट है। संत ज्ञानेश्वर कहते हैं- यह श्लोक खतरे की घंटी का सूचक है। बताया गया है कि मनुष्य भले ही लगभग स्थितप्रज्ञ हो गया हो, तो भी उसे असावधान नहीं रहना चाहिए। वे लिखते है:-
प्राप्ते हि पुरुषे इंद्रियें लालिलीं जरी कवतिकें।
तरी आक्रमिला जाण दु:खें सांसारिकें ॥ 
मराठी में वर्णित इस कथन का भावार्थ है कि "पहँुचा हुआ पुरुष (आप्त पुरुष) भी यदि कुतूहल से इंद्रियों को दुलराए तो उस पर प्रापंचिक दु:खों का आक्रमण हुआ ही समझों।"
विहाय कामान्य: सर्वान्पुमांश्रचरती नि:स्पृह:।
निर्ममो निरअहँकार : स शान्तिमधिगच्छति ॥ 
अर्थात् जो पुरुष संपूर्ण कामनाओं को त्यागकर ममतारहित, अहंकार रहित और स्पृहारहित हुआ विचरता है, वही शांति को प्राप्त होता है एवं स्थितप्रज्ञ कहलाता है।
अगले श्लोक में भगवान् कहते हैं-
 दु:खों की प्राप्ति होने पर जिसके मन में उद्वेग नहीं होता, सुखों की प्राप्ति में जो सर्वथा निस्पृह है तथा जिसके राग, भय और क्रोध नष्ट हो गए हैं, ऐसा मुनि स्थिर बुद्धि कहा जाता है। दु:खों के कारण तो कर्इ आते हैं, पर उन्हें स्थितप्रज्ञ सहन कर लेता है, उद्विग्र नहीं होता। उसे सुख की कामना भी नहीं होती। सुख पाने की आकांक्षा में वह उद्विग्र भी नहीं होता। वह वीतराग हो जाता है। स्वयं को राग, भय, क्रोध से परे चलकर अपनी मन: स्थिति उच्चस्तर की बना लेता है। हम जैसे सामान्य व्यक्ति सुखों की इच्छा बराबर बनाए रखते हैं, दु:ख में परेशान हो जाते हैं। यही हममें व स्थितप्रज्ञ में सबसे बड़ा अंतर है। परमपूज्य गुरुदेव कहते थे कि दु:ख को तप बना लो एवं सुख को योग बना लो।

 जो पुरुष स्नेहरहित होकर उस शुभ या अशुभ वस्तु को प्राप्त होकर न प्रसन्न होता है और न द्वेष रखता है, उसकी बुद्धि स्थिर है। इसी प्रकार अगले श्लोक में एक महत्वपूर्ण बात भगवान् के श्रीमुख से निकलती है-
 सब ओर से अपने अंगों को जैसे समेट लेता है, वैसे ही जब यह पुरुष इंद्रियों के विषयों से इंद्रियों को सब प्रकार से हटा लेता है, तब उसकी बुद्धि स्थिर है (ऐसा समझना चाहिए)।"
3. अहंकार रहित मर्यादापूर्ण आचरण:- साधक सदा अहंकार रहित होकर मर्यादापूर्ण आचरण करे। अधिकतर यह देखा जाता है कि व्यक्ति के पास कोर्इ प्रतिभा अथवा सिद्धि साधना से आयी तो उसका अहंकार जगना शुरू हो जाता है। जैसे ही अहंकार का द्वार खुलता है negative energy का आगमन होने लगता है। एक कठिनार्इ और आती है साधक कर्इ बार स्वाभिमान की आड़ में अहंकार की फसल बोने लगता है। परन्तु यदि साधक सावधान है व परमात्मा के द्वारा उसकी बुद्धि प्रेरित है (धियो यो न: प्रचोदयात् ) तो उसको इन बारिकियों में अन्तर नजर आ जाता

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