Thursday 29 May 2014

हरि ओउम् तत् सत् ..बाकि सब गपशप

अहँकार यानि के "मै" हूँ मेरा अस्तित्व है ..यह भाव..! अहँकार ही वह सूक्ष्म परदा है जो जीव ब्रह्म को अलग किये हुए है ..यदि अहंकार मिट गया तो जीव ब्रम्ह की एकता हो जायेगी ,जो की मानव जीवन का चरम लक्ष्य है ! मन, बुद्धि चित्त, अहँकार इन चारो को अन्तःकरण चतुष्टय कहते है ..एक सामान्य मानव तो मन के क्रियाकलापों में ही व्यस्त रह कर उसी में उलझ कर रह जाता है ...मन की चार अवस्थाये होती है क्षिप्त विक्षिप्त विमूढ़ और एकाग्र ..अध्यात्मिक चिंतन और सतोगुण से इश्वर पर ध्यान केंद्रित करने पर मन एकाग्र हो जाता है ..उस एकाग्र मन के विलय से "बुद्धि" को जाना जाता है , बुद्धि चार प्रकार की होती है १) बुद्धि २) मेधा ३) ऋतंभरा ४) प्रज्ञा . परम वैराग्य की स्तिथि (सब प्रकार के मोह माया बंधनों का विवेक पूर्ण त्याग) उत्पन्न होने पर मानव ऋतंभरा से प्रज्ञा बुद्धि को जानता है ..एकाग्र मन का बुद्धि में और प्रज्ञा बुद्धि का चित्त में विलय हो जाता है ..चित्त मंडल एक प्रकार जीव का "हार्ड डिस्क"या मेमोरी कार्ड है जिसमे अनेक जन्म जन्मान्तरो की स्मृतियाँ और संस्कार विद्धमान रहती है ..इस चित्त मंडल को जानने से मनुष्य की "सविकल्प" समाधी लगती है जब ध्यान से चित्त्मंडल के अनेक जन्मो के संस्कार दग्ध और समाप्त होते है (हार्ड डिस्क फॉर्मेटिंग )तो चित्त निर्मल हो जाता है इस निर्मल चित्त से "अहँकार" को जाना जाता है अहँकार में चित्त की वृत्तियाँ सूक्ष्म बीज रूप में विद्धमान रहती है काम क्रोध मद लोभ मोह की सूक्ष्म तन्मात्राएँ ..इस अवस्था में योगी और ब्रह्म की "धूप छाँव" की स्तिथि होती है अहँकार रुपी बादलों के कारण ...इस अवस्था में अत्यंत सतर्कता की आवश्यकता होती है अगर थोडा भी फिसले तो गए काम से .. महर्षि विश्वामित्र जैसे योगी भी इसी अवस्था में काम रूपी बीज के पूर्ण नष्ट न होने के कारण फिसल गए थे .. और अंत में जब इन षड्रिपुओ के बीज तत्वों का सम्पूर्ण नाश हो जाता है तब "अहँकार" नष्ट हो कर जीव ब्रह्म की एकता हो जाती है ..निर्विकल्प समाधी य मोक्ष ..ओउम् हरि ओउम् तत् सत् ..बाकि सब गपशप ..., एक हरि कथा ही कथा ..बाकि सब इस सँसार की "व्यथा"

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