Sunday 13 September 2015

विकारों से अपनी अंतरज्योत को ढक लिया है।


आत्म-कल्याण
जीवन का सत्य परमात्म-तत्व या चेतना का प्रकाश बाहर नहीं, बल्कि हमारे अंदर है । अंदर के इस परम तत्व को पा लेने से ही वाह्य संसार का सत्य दिखने लगता है या अंदर प्रकाश होता है, तभी बाहर प्रकाश फैलता है ।
इस सत्य की अनुभूति या परमात्म तत्व का बोध अंतर्मन में गोता लगाने से ही प्राप्त होता है । इसके लिए तप-साधना का मार्ग है । किसी आध्यात्मिक चेतना संपन्न मनीषी द्वारा ही यह संभव है । इतनी लंबी साधना के बाद जिस सत्य का बोध होता है, वही जीवन-दर्शन परिपक्व होकर विचारधारा का रूप ग्रहण करता है ।
‘आत्मकल्याण’ को समझने के लिए ये जान लेना जरूरी है कि हमारे शरीर में आत्म-रूप में परमात्मा बैठे हैं । अर्थात् आत्मा उसी परमात्मा का अंश है । आत्मा उस परमतत्व का एक सूक्ष्म अणु है और इस रूप में वह विराट सभी जीवों के अंदर है । इसलिए आत्मा और परमात्मा में अभेद है, अभिन्नता है ।
सच तो यह है कि आत्मा को अखंड रूप में देखना और पहचानना ही आत्मा के समष्टि रूप को जानना है । मेरे अंदर जो आत्मा है, वही दूसरे प्राणी के अंदर भी है । इस सत्य को जान लेने के बाद किसी प्राणी के लिए कल्याण का भाव आत्म-कल्याण ही है । इसलिए आत्म-कल्याण की भावना अपने उदात्त रूप में विश्वकल्याण की भावना में आगे चलकर परिवर्तित हो जाती है । जब आपके हृदय का गागर आनंद और आत्म संतोष से भर जाएगा तो संसार उसी चेतना के प्रकाश से जगमगाने लगेगा ।
जो मनुष्य मानसिक रूप से प्रफुल्ल हो और शारीरिक रूप से स्वस्थ हो, वही जगत् कल्याण कर सकता है । जब नदी भरी रहती है तब स्वत: प्यासी धरती और प्यासे जीव को उससे तृप्ति मिलती है । इसलिए पहले नदी का भरा रहना आवश्यक है। हमारा जीवन परमात्मा का अंश
है। एक ही ज्योति समस्त जीवों में जल रही है । अंतर यह होता है कि हमने संसार में आकर विकारों से अपनी अंतरज्योत को ढक लिया है।

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