Sunday 20 September 2015

जिस दुःख मे नारायण का स्मरण हो वह सुख है , उसे दुःख कैसे कहेँ


श्रीकृष्ण ने सुदर्शन चक्र से ब्रह्मास्त्र का निवारण किया । परीक्षित की रक्षा करने के बाद वे द्वारिका पधारने को तैयार हुए तो कुन्ती का दिल भर आया उनकी अभिलाषा है कि चौबीस घंटे मैँ श्रीकृष्ण को निहारा करुँ ।
अतः कुन्ती उनके मार्ग मेँ खड़ी हो गयी श्रीकृष्ण रथ से उतरे तो कुन्ती उनका वंदन करने लगी । वंदन से प्रभू बन्धन मेँ आते हैँ । वंदन के समय अपने सारे पापो को याद करने से हृदय दीन और नम्र होगा ।
कुन्ती मर्यादा - भक्ति है , साधन भक्ति है । यशोदा पुष्टि - भक्ति है । यशोदा का सारा व्यवहार भक्तिरुप था । प्रेम लक्षणा भक्ति मेँ व्यवहार और भक्ति मेँ भेद नहीँ रहता । वैष्णव की क्रियाएँ भक्ति ही बन जाती हैँ । प्रथम मर्यादा भक्ति आती है , उसके बाद पुष्टि भक्ति । मर्यादा भक्ति साधन है सो वह आरम्भ मेँ आती है , पुष्टि भक्ति साध्य है अतः वह अन्त मेँ आती है ।
कुन्ती की भक्ति दास्यमिश्रित वात्सल्य भक्ति है , हनुमान जी भक्ति दास्यभक्ति है ,वे दास्यभक्ति के आचार्य है ।
दास्यभाव से हृदय दीन बनता है । दास्यभक्ति मेँ दृष्टि चरणो मेँ स्थिर करनी होती है। बिना भाव के भक्ति सिद्ध नही हो सकती है । कुन्ती वात्सल्य भाव से श्रीकृष्ण का मुख निहारती हैँ , चरण दर्शन से तृप्ति नही हुयी सो मुख देख रही हैँ , कुन्ती स्तुति करती है -

नमः पंकजनाभाय नमः पंकजमालिने ।
नमः पंकजनेत्राय नमस्ते पंकजाड़्घ्रये ।।
जिनकी नाभि से ब्रह्मा का जन्मस्थान कमल प्रकट हुआ है जिन्होँने कमलोँ की माला धारण की है . जिनके नेत्र कमल के समान विशाल और कोमल है और जिनके चरणोँ मेँ कमल चिह्न हैँ ऐसे हे कृष्ण आपको बार बार वंदन है ।
प्रभू के सभी अंगो की उपमा कमल से दी गयी है >
नवकंज लोचन ,कंजमुख करकंजपद कंजारुणम् !!
भगवान की स्तुति रोज तीन बार करना है -- सुबह मेँ , दोपहर मेँ , और रात को सोने से पहले । इसके अलावा सुख , दुःख और अन्तकाल मेँ भी स्तुति करना है । अर्जुन दुःख मेँ स्तुति करता है , कुन्ती सुख मेँ स्तुति करती है , और भीष्म अन्तकाल मेँ स्तुति करते हैँ । सुखावसाने , दुःखावसाने , देहावसने स्तुति करना है ।
हम अति सुख मे भगवान को भूल जाते है , जीव पर भगवान अनेक उपकार करते हैँ किन्तु वह सब भूल जाता है । परमात्मा के उपकार भूलना नहीं चाहिए ।
कुन्ती कहती हैँ
बिना जल के नदी की शोभा नहीँ है , प्राण के बिना शरीर शोभा नहीँ देता . कुंकुम का टीका न हो तो सौभाग्यवती स्त्री नहीँ सुहाती । इसी प्रकार आपके विना पांडव भी नहीँ सुहाते । नाथ आपसे ही हम सुखी हैँ ।।
गोपी गीत मेँ गोपियाँ भी भगवान के उपकार का स्मरण करती हैँ > विषजलाप्ययाद् व्यालराक्षासाद् वर्षमारुताद् वैद्युतानलात् ।।
कुन्ती याद करती हैँ कि जब भीम को दुर्योधन ने विषमिश्रित लडडू खिलाये थे , उस समय आपने उसकी रक्षा की थी । लाक्षागृह से बचाया ।
मेरी द्रौपदी को जब दुःशासन भरी सभा वस्त्र खीँचने लगा उस समय आपने उसकी रक्षा की ,जिसे भगवान ढकते है उसे कौन उघाड़ सकता है ।
जीव ईश्वर को कुछ भी नही दे सकता , जगत का सब कुछ ईश्वर का ही है ।
कुन्ती कहती है नाथ हमारा त्याग न करो आप द्वारिका जा रहेँ है किन्तु एक वरदान माँगने की इच्छा है वरदान देकर आप चले जाइए ।
कुन्ती जैसा वरदान न किसी ने माँगा है न कोई माँगेगा ।
विपदः सन्तु नः शश्वत्तत्र तत्र जगद्गुरो ।
भवतो दर्शनं यत्स्यादपुनर्भवदर्शनम् ।।
हे जगदगुरु ! हमारे जीवन मे प्रतिक्षण विपदा आती रहेँ क्योकि विपदावस्था मे निश्चित ही आपके दर्शन होते रहेँगे ।
जिस दुःख मे नारायण का स्मरण हो वह सुख है , उसे दुःख कैसे कहेँ ?
सुख के माथे सिल परौ हरी हृदय से पीर ।
बलिहारी वा दुःख की जो पल पल नाम जपाय ।।
श्रीहरिशरणम्

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