Sunday 27 April 2014

पर-स्त्रियोंकी ओर देखनेसे नेत्र मलिन हो गये हैं

जय सीताराम 
श्रीतुलसीदासजी महाराज
विनय पत्रिका(82)
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मोहजनित मल लाग बिबिध बिधि कोटिहु जतन न जाई।
जनम जनम अभ्यास-निरत चित, अधिक अधिक लपटाई।।
नयन मलिन परनारि निरखि, मन मलिन बिषय सँग लागे।
हृदय मलिन बासना-मान-मद, जीव सहज सुख त्यागे।।
परनिंदा सुनि श्रवण मलिन भे, बचन दोष पर गाये।
सब प्रकार मलभार लाग निज नाथ-चरण बिसराये।।
तुलसिदास ब्रत-दान, ग्यान-तप, सुध्धिहेतु श्रुति गावै।
राम-चरन-अनुराग-नीर बिनु मल अति नास न पावै।।
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मोहसे उत्पन्न जो अनेक प्रकारका (पापरूपी कचरा ) मल लगा हुआ है, वह करोडों उपयोंसे भी नहीं छुटता। अनेक जन्मोंसे यह मन पापमें लगे रहनेका अभ्यासी हो रहा है, इसीलिये यह मल अधिकाधिक लिपटता ही चला जाता है।।
पर-स्त्रियोंकी ओर देखनेसे नेत्र मलिन हो गये हैं, विषयोंका संग करनेसे मन मलिन हो गया है और वासना, अहंकार तथा गर्वसे हृदय मलिन हो गया है तथा सुखरूप स्व-स्वरूपके त्यागसे जीव मलिन हो गया है।।
परनिन्दा सुनते-सुनते कान और दुसरोंका दोष कहते-कहते वचन मलिन हो गये हैं। अपने नाथ श्रीरामजीके चरणोंको भूल जानेसे ही यह मलका भार सब प्रकारसे मेरे पीछे लगा फिरता है।।
इस पापके धुलनेके लिये वेद तो व्रत, दान, ज्ञान, तप आदि अनेक उपाय बतलाता है; परंतु हे तुलसीदास! श्रीरामके चरनोंके प्रेमरूपी जल बिना इस पापरूपी मलका समूल नाश नहीं हो सकता।।
"जय श्री सीताराम" 

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