Tuesday 29 April 2014

यही संतवृत्ति है।

संत का क्रोध...
एक बार एक संत नाव पर कहीँ जा रहे थे। 
वे कभी राजा थे किँतु अब वे संसारी वैभव छोङ चुके थे। 
राम नाम की लौ लगाकर वे संत हो गये थे।
उस नाव का आदमी दुष्ट प्रवृति का आदमी था। 
संत को चुपचाप शांत बैठे देखकर उसे बुरा लगा।
उसने अकारण ही उनके मुँह पर जोर से एक थप्पङ मार दिया।
संत ने उसे मुस्कराकर देखा और फिर ध्यान मग्न हो गये।
वह दुष्ट व्यक्ति चिढकर दूसरा थप्पङ मारना ही चाहता था कि आकाशवाणी हुई - 
"इस दुष्ट को दंड मिले अतः नाव को डुबो दिया जायेगा" ।
"नहीँ भगवान ऐसा दंड मत देँ " संत ने प्राथना की
"तब केवल इस दुष्ट को डुबो दिया जाये" 
फिर आकाशवाणी हुई।
संत ने फिर इसका विरोध किया यह दंड बहुत कड़ा हो जायेगा प्रभु।
तो फिर इस दुष्ट को क्या सजा दिया जाये?
संत ने उत्तर दिया इसे विवेकशील बना दिया जाय और इसकी बुद्धि धर्म तथा ईश्वर की ओर कर दी जाय। 
यही दंड ठीक रहेगा।
"एवमस्तु" आकाशवाणी से स्वर उभरा और संत फिर ध्यानमग्न हो गये।
नाव के गन्तव्य तट पर पहुँचने तक उस दुष्ट मनुष्य का मन शुद्द होकर भगवान के चरणोँ की ओर उन्मुख हो चुका था ।
वह उसी समय संत के चरणोँ पर गिर पड़ा और अपने अपराध के लिए उसने गिड़गिड़ाकर झमायाचना की।
यह है संत की बङाई। 
संत का क्रोध भी दया से प्रेरित था, जिससे एक अत्यंत अधमवृत्ति के मनुष्य का उद्दार हो गया।
दया बुद्दि से दंड देना पुण्य है, अच्छा है। 
यही संतवृत्ति है।
हिँसा अथवा ईर्ष्या की बुद्दि से दंड देना पाप है

No comments:

Post a Comment