Saturday 26 April 2014

जिससे उच्च स्तरीय साधनाओं की सहज प्राप्ति हो सके

कहा गया है की पहला सुख निरोगी काया-अर्थात स्वस्थ्य शरीर ही जीवन की सबसे बड़ी संपत्ति है और उसी से आप अन्य सुखों का उपभोग कर सकते हैं तथा साधना में आसन की दृढ़ता को प्राप्त कर सकते हैंl
कायिक सुख,चित्त की स्थिरता और एकाग्र भाव से साधनात्मक लक्ष्य की प्राप्ति के लिए जिस क्रिया का प्रयोग किया जाता है,उसे आसन कहा जाता है l सामान्य बोलचाल की भाषा में सुविधापूर्वक एकाग्रता पूर्वक स्थिर होकर बैठने की क्रिया आसन कहलाती है lजिस प्रकार इस महत्वपूर्ण क्रिया का पतंजलि ऋषि द्वारा जिस योगदर्शन की व्याख्या व प्राकट्य किया गया उसमे विवृत अष्टांग योग में आसन को उन्होंने तृतीय स्थान दिया है परन्तु इसी आसन की महत्ता को सर्वाधिक बल नाथ संप्रदाय की दिव्य सिद्धमंडलियों द्वारा प्रवर्तित षडंगयोग मे मिला है ,जहाँ पर गुरु गोरखनाथ आदि ने आसन को प्रथम स्थान पर रख कर साधना में सफलता के लिए अनिवार्य माना है l अर्थात जिसका आसन ही नहीं सधा हो भला वो साधना में सिद्धियों का वरण कैसे कर सकता है lमैंने बहुत पहले श्वेतबिंदु-रक्तबिंदु लेख श्रृंखला में इस तथ्य का विवरण भी दिया था की यदि व्यक्ति साधना काल में मन्त्र जप के मध्य हिलता डुलता है ,पैर बदलता है तो सुषुम्ना की स्थिति परिवर्तित होने से ना सिर्फ उसके चक्रों के स्पंदन में अंतर आता है अपितु मूलाधार और स्वाधिष्ठान चक्र पर तीव्र वेगी नकारात्मक प्रभाव पड़ने से साधक में काम भाव की तीव्रता भी आ जाती है और उसे स्वप्नदोष,प्रदर,प्रमेह जैसी बिमारियों का भी प्रभाव झेलना पड़ता हैl
आसन का स्थिरीकरण और शरीर की निरोगता साधना का मूल है ,इसके बाद ही चित्त को एकाग्र करने की क्रिया की जा सकती है और साधना में सफलता प्राप्त होती है ,जब साधक एकाग्र मन से लंबे समय तक जप करने में सक्षम हो जाता है तो “जपः जपात् सिद्धिर्भवेत” की उक्ति सार्थक होती है अर्थात सिद्धि को आपके गले में माला डालने के लिए आना ही पड़ता है l
परन्तु ये इतना सहज भी नहीं है क्यूंकि जब तक साधक का शरीर रोग मुक्त ना होजाये तब तक वो आसन पर दृढ़ता पूर्वक बैठ ही नहीं सकता,स्वस्थ्य शरीर से ही साधना की जा सकती है ,आसन स्थिरीकरण किया जा सकता है और तदुपरांत ही साधना में सफलता प्राप्त कर तेजस्विता पायी जा सकती है l सदगुरुदेव ने स्पष्ट करते हुए कहा था की “जब शरीर ही सभी दृष्टियों से साधना में सफलता प्राप्त करने का आधार है ,तो स्वस्थ्य शरीर की प्राप्ति के लिए विश्वामित्र प्रणीत दिव्य देह सिद्धि साधना अनिवार्य कर्म हो जाती है ,इस साधना को संपन्न करने के बाद आत्म सिद्धि का मार्ग प्रशस्त हो जाता है, देहसिद्धि की सम्पूर्ण क्रिया ६ क्रियाओं का समन्वित रूप होती है”-
मष्तिष्क नियंत्रण- साधना के लिए सदैव सकारात्मक भाव से युक्त मष्तिष्क ,जिसमे असफलता का कदापि भाव व्याप्त न हो पाए l
आसन नियंत्रण- हम चाहे जितनी भी माला जप संपन्न कर ले,तब भी हमारे बैठने का भाव और शरीर विकृत न हो l
चक्षु नियंत्रण- साधना काल व अन्य समय हमारे नेत्रो में कोई हल्का भाव ना आने पाए और सदैव हमारी दृष्टि तेजस्विता युक्त होकर सिद्धि प्राप्ति के गूढ़ सूत्रों को देख कर प्रयोग कर सके,आत्म सात कर सके l
श्वांस नियंत्रण- मन्त्र जप के मध्य श्वांस की लय व गति में परिवर्तन ना हो और साधक मंत्र जप सुगमता से कर सकेl क्यूंकि प्रत्येक प्रकार के मंत्र की दीर्घता और लघुता में भिन्न भिन्न प्रकार की श्वांस मात्र की आवश्यकता होती है l
अधोभाग नियंत्रण-साधना में बैठने की क्रिया कमर से लेकर पैरों के ऊपर निर्भर होती है, उनमे दृढ़ता प्रदान करना l
पंचभूतात्मक नियंत्रण- हमारे शरीर में व्याप्त पंचभूत तत्व यथा जल,अग्नि,वायु,आकाश और पृथ्वी की मात्रा को साधना काल में घटा-बढ़ा कर शरीर को साधनात्मक वतावर की अनुकूलता प्रदान की जा सकती है lतब ऐसे में हमारा शरीर बाह्य और आंतरिक रोगों और पीडाओं से मुक्त होता हुआ साधना पथ पर अग्रसर होते जाता है,प्रकारांतर में वो पूर्ण आरोग्य की प्राप्ति कर लेता है l
इस प्रकार की क्रियाओं के बाद ही शरीर साधना के लिए तत्पर हो पाता है ,और बिना शरीर को नियंत्रित किये या अनुकूल बनाये साधना में प्रवेश करने से कोई लाभ नहीं होता है l
वस्तुतः रोगमुक्त निर्जरा काया की प्राप्ति आज के युग में इतनी सहज नहीं है ,क्यूंकि आज का युग पूरी तरह से प्रदूषित,शापित और भोग युक्त है ,तब ऐसे में दिव्यदेह सिद्धि साधना हमारा मार्ग सुगम कर देती है l सदगुरुदेव ने इस साधना का विवेचन करते हुए स्पष्ट किया था की साधक जगत को ये साधना ब्रम्हर्षि विश्वामित्र जी की देन है, उपरोक्त ६ क्रियाओं का इस साधना में पूर्ण समावेश है,वस्तुतः इस मंत्र में माया बीज,काली बीज और मृत्युंजय बीज को ऐसे पिरोया गया है की मात्र इसका उच्चारण ही ब्रह्माण्ड से सतत प्राणऊर्जा का प्रवाह साधक में करने लगता है और उसकी आंतरिक न्यूनताओं का शमन होकर उसकी देह कालातीत होने के मार्ग पर अग्रसर होने लगती हैl
पारद की वेधन क्षमता अनंत है और वो अविनाशी तत्व है ,अतः इस साधना की पूर्णता के लिए महत्वपूर्ण सामग्री पारद शिवलिंग और पंचमुखी रुद्राक्ष है, इस साधना को किसी भी सोमवार या गुरूवार से प्रारंभ किया जा सकता है,सूर्योदय से,श्वेत वस्त्र,उत्तर दिशा का प्रयोग इस साधना के लिए निर्धारित हैl
प्रातः उठकर पूर्ण पवित्र भाव से स्नान कर सूर्य को अर्घ्य प्रदान करे तथा उनसे साधना में पूर्ण सफलता की प्रार्थना करे,तत्पश्चात साधना कक्ष में जाकर सफ़ेद आसन पर बैठ जाये और सामने बाजोट पर सफ़ेद वस्त्र बिछाकर सदगुरुदेव का दिव्य चित्र, उनकी दाई तरफ भगवान गणपति का विग्रह या प्रतीक रूप में सुपारी की स्थापना करे फिर गुरु चित्र के सामने दो ढेरी चावलों की बनाये अपने बायीं तरफ की ढेरी पर गाय के घृत का दीपक प्रज्वलित करे(याद रखियेगा की सदगुरुदेव के चित्र के सामने दो ढेरी बनानी है और गणपति विग्रह के सामने इतनी जगह छोडनी है जहाँ एक इतना बड़ा ताम्बे का कटोरा रखा जा सके जिसमे आधा लीटर पानी आ जाये) और दाई तरफ तेल का दीपक रखना है l इसके बाद गणपति जी के सामने ताम्बे का पात्र रख कर उसमे रक्तचंदन से एक गोला बनाकर उसमे “ह्रौं” लिख दे और उसके ऊपर पारद शिवलिंग तथा रुद्राक्ष स्थापित कर दे l इस क्रिया के बाद आप गणपति पूजन,गुरु पूजन और शिवलिंग पूजन पंचोपचार विधि या सामर्थ्यानुसार करे और गुरुमंत्र की ११ माला जप करे lतत्पश्चात ॐ का ११ बार उच्चारण करे ताम्बे के पात्र में रखे स्वच्छ जल से (जिसमे गंगा जल मिला लिया गया हो) १-१ चाय के छोटे चम्मच से शिवलिंग के ऊपर दिव्य देह सिद्धि मंत्र का उच्चारण करते हुए जल अर्पित करे, ये क्रिया १४ दिनों तक नित्य १ घंटे करनी है lयाद रहे उपांशु जप करना है ,जो जल आप नित्य अर्पित करेंगे उसे अगले दिन अपने स्नान के जल में मिलकर स्नान कर लेना है l
दिव्य देह सिद्धि मंत्र-
ॐ ह्रौं ह्रीं क्रीं जूं सः देह सिद्धिम् सः जूं क्रीं ह्रीं ह्रौं ॐ ll
OM HROUM HREENG KREENG JOOM SAH DEH SIDDHIM SAH JOOM KREENG HREENG HROUM OM l
१४ दिनों के बाद आप शिवलिंग को पूजनस्थल पर स्थापित कर दे और रुद्राक्ष को यथाशक्ति दक्षिणा के साथ भगवती काली या दुर्गा मंदिर में अर्पित कर दे तथा बाद के दिनों में मात्र २१ बार मंत्र का नित्य उच्चारण करते रहे,सदगुरुदेव की असीम कृपा से हम सभी के समक्ष ऐसी गोपनीय साधनाए बची रही है है,अतः साधनात्मक उन्नति की प्राप्ति के लिए अपनी कमियों को दूर करे और स्वस्थ्य शरीर के द्वारा साधना करे तथा आसन की स्थिरता को प्राप्त करे जिससे उच्च स्तरीय साधनाओं की सहज प्राप्ति हो सके

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