Saturday 21 March 2015

विषय वासना युक्त मन ही तो असुर है

स्कन्द पुराण में समुद्र मंथन की प्रसिद्ध कथा है ।महर्षि दुर्वासा के शाप से इन्द्र जब श्री हीन हो गये तो क्षीर सागर को मथने की योजना बनी ।
मंथन कार्य से सार प्राप्त होता है ।मंदराचल को मथानी बनाया गया ।
मनुष्य ही स्वभाव से देवता और असुर होता है ।दुर् वासना अर्थात् विषय वासना इन्द्रियो को शक्ति हीन कर देता है ।मन ही इनका स्वामी होता है ।यह मन ईश्वर की टेक रखकर चिंतन करता है ।श्वास ही वासुकि नाग है ।इस चिंतन क्रम में सबसे पहले कालकूट अर्थात शरीर को नष्ट करने वाला मनोविकार ही उत्पन्न होता है , जिसे परमज्ञान रुपी शिव ही आत्मसात करते हैं , वे पाचन नहीं करते क्योंकि मनोविकार दीर्घकालीन अभ्यास से ही दूर होते हैं , केवल ईश्वर कृपा से नहीं ।दूज का चंद्र मन की निर्मलता का प्रथम चरण है जिसे शिव माथे पर रखते हैं यानि मन दोषमुक्ति की ओर अग्रसर होते ही ज्ञान मिलना शुरु हो जाता है ।चिंतन से ही सभी उपयोगी तथा विनाशकारी चीजों का आविष्कार होता है ।लक्ष्मी विष्णु को मिलती है अर्थात सबकुछ ईश्वर का ही है , ध्यान देने की बात है कि श्री हीन इन्द्र हुये , लेकिन लक्ष्मी मिली विष्णु को ।वस्तुतः यथार्थ में आत्मा ही मालिक है , वही सबका पोषण आदि करता है।बहुत सारे चीजों के बाद अंत में आयुर्वेद के जनक धन्वंतरी अमृत कलश लेकर निकले।
शरीर को शक्तिशाली , रोगमुक्त, दीर्घायु बनाना आयुर्वेद ही है ।मृत शरीर है , अमृत आत्मा है ।कलश नाभि के पास वह स्थान है जहाँ प्राणापान को सम किया जाता है ।कर्म कांड के कलश स्थापना में भी उसमें पाँचो वायु को प्रतीक आवाहन किया जाता है ।
उत्तम वस्तु तो सबको इच्छित रहती है , सो देवता असुर अमृत के लिये लड़ने लगे ।तब ईश्वर मोहिनी रुप से मध्यस्थता किये ।सुन्दर रुप सौन्दर्य में आसक्ति सबको रहती है , परंतु भावना अलग 
।मोहिनी को देवता आदर और सात्विक भाव से तथा असुर कामुक भाव से देखते थे ।
अब मोहिनी ने देवो को अमृत तथा असुरो को विष पिलाया ।एक नजर से यह छल लगता है , और ईश्वर के कर्म फल और सर्वन्यायकत्व के सिद्धांत को गलत भी करता है (अमृत के लिये कर्म देवो के जितना , असुरो ने भी बराबर किया , तो अमृत पर उनका भी हक बनता है ।ईश्वर सबको समान दृष्टि से देखते हैं , पक्षपात नहीं करते )।
वस्तुतः ऐसा हुआ नहीं ।देवो तथा असुरो के लिये अमृत पाने का उद्देश्य अलग था तथा अमृत की परिभाषा भी अलग थी ।देवताओं के लिये अमृत, आत्मा की प्राप्ति , मोक्ष उद्देश्य था ।जबकि असुर सांसारिक सुखो में अमरता चाहते थे ।यह सामान्य स्वभाव होता है ।
तो मोहिनी ने देवो को अमृत तथा असुरो को विष यानि विषय वासना दिया जो उनका अभीष्ठ था ।विषय वासना युक्त मन ही तो असुर है ।
गीता में भी दैवी संपदा को अर्जन करने के बाद ही आत्मा को पाने का विधान विस्तार से बताया गया है ।आत्म बल को ही ऋषियों ने यथार्थ संपत्ति माना है ।गीता का श्रोता अर्जुन धनंजय भी है यानि आत्म बल को अर्जित कर चुका है ।
अमृत कोई पेय पदार्थ नहीं है , जो मरा नहीं , नष्ट नहीं हुआ , शाश्वत है , सनातन है वही अमृत है ।
अमृत का अधिकारी दैवी संपदा से युक्त मनुष्य ही है ।
छल से अपात्र व्यक्ति जब आत्म ज्ञान पा लेता है तब आत्मा और मन रुपी सूर्य चंद्र अमृत के लाभ से उसे वंचित रखते हैं और प्रतिशोध में वे आत्मा और मन को ही दूषित करने का असफल प्रयास करते रहते हैं ।

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