Saturday 14 March 2015

आज आपकी वजह से हमें भी दर्शन हो

जब औरंगजेब ने ब्रज के मंदिरों को तोड़ना प्रारंभ किया तो इससे घबराकर गोवर्धन के श्रीनाथ मंदिर के गोपाल जी की प्रतिमा को तत्कालीन पुजारी ने झाड़ियों में छिपा दिया था।
माधवेन्द्रपुरी जी के लिए श्रीगोपाल जी स्वयं दूध का पात्र लाये
एक बार श्री माधवेन्द्रपुरी जी व्रज की यात्रा करते-करते गिरिराज गोवर्धन पर्वत की परिक्रमा के दौरान वे थककर एक वृक्ष के नीचे विश्राम करने लगे। उनकी वृत्ति अयाचित थी अर्थात वे भोजन के लिए भी किसी से भी याचना नहीं करते थे। उस दिन उन्हें दिनभर कुछ नहीं मिला।
शाम के समय उसी वृक्ष के नीचे बैठे भगवन नाम का उच्चारण करने लगे। उन्हें किसी के पैरों कि आवाज सुनाई दी। वे चौंककर पीछे की ओर देखने लगे, उन्होंने देखा एक काले रंग का ग्यारह-बारह वर्ष की अवस्था वाला बालक हाथ में दूध का पात्र लिए उनकी ओर आ रहा है।
बालक ने बड़े कोमल स्वर में कहा - महात्मा जी! भूखे क्यों बैठे हो? लो इस दूध को पी लो।
पुरी जी ने कहा - तुम कौन हो? और तुम्हें ये कैसे पता कि मैं इस वृक्ष के नीचे बैठा हूँ?
बालक ने हँसते हुए कहा - मैं जाति का ग्वाला हूँ और मेरा घर पास में ही है। मेरी माता यहाँ जल भरने आई थीं। उसी ने आपको यहाँ बैठे हुए देखा और घर जाकर मुझे दूध लेकर भेजा है आप इसे पी लीजिए। मैं अभी थोड़ी देर में पात्र ले जाऊँगा।
पुरी जी ने दूध पिया। इतना स्वादिष्ट दुग्ध उन्होंने अपने जीवन में कभी नहीं पिया था। उस साँवरे बालक की छवि उन्हें हृदय में गड़ गई। वे उसी का चिंतन करने लगे। दूध पीकर उस बालक की प्रतीक्षा करने लगे। आधी रात बैठे-बैठे हो गई, बालक नहीं आया।
श्री गोपाल जी का प्राकट्य
उन्हें नींद आ गयी और नींद में उसी बालक ने हँसते हुए कहा - पुरी! मैं बहुत दिन से तुम्हारे आने की प्रतीक्षा कर रहा था, तुम आ गए! मैं इस झाड़ी के नीचे दबा हुआ हूँ, तुम मुझे यहाँ से निकालो। निद्रा टूटने के बाद उन्होंने ब्रजवासियों को बुलाया और उनसे अपने स्वप्न के बारे में बताया।
ब्रजवासियों ने खोदकर मूर्ति को निकाला और वहीं पर एक छप्पर छँवाकर एक ऊँचे आसन पर श्री गोपाल जी को स्थापित किया और खूब मल-मलकर स्नान कराया, सुगन्धित चन्दन से शरीर पर लेपन किया। धूप, दीप, नैवद्य से यथाविधि पूजा की।
पुरी जी ने गोपाल जी का बहुत बड़ा अन्नकूट उत्सव किया। ऐसा उत्सव हुआ कि हजारों प्रकार की प्रसाद की सामग्री बनकर तैयार हो गई और जितना भोग लगता, बँटता, उतना ही फिर प्रकट हो जाता। कोई बिना प्रसाद का नहीं रहा। दो युवक पुरी जी के शरणापन्न हुए पुरी जी ने उन्हें दीक्षा देकर श्रीगोपाल जी की सेवा में लगा दिया। इस प्रकार दो वर्ष बीत गए।
श्री गोपाल जी के श्री अंग में दाह हुआ
एक दिन गोपाल ने पुरी को कहा - जमीन में बहुत समय तक रहने के कारण मेरा शरीर जल रहा है। आप जगन्नाथ पुरी के मलयाचल से चंदन लाकर हमारे शरीर पर लेपन करो, जिससे मेरे शरीर का ताप शांत हो जायेगा।
करीब 2 हजार कि. मी. की यात्रा कर पुरी जगन्नाथ पुरी गए। ओडिशा व बंगाल की सीमा पर वे 'रेमुणाय' में पहुँचे, जहाँ गोपीनाथ जी का मंदिर था। उन्होंने उनके दर्शन किये।
पुजारियों से भगवान के साज-श्रृंगार, भोग-राग, सबके बारे में पूछा। अंत में उन्होंने पूछा - यहाँ पर भगवान का मुख्य भोग किस वस्तु का लगता है ?
पुजारियों ने उत्तर दिया, "यहाँ श्री गोपीनाथ भगवान का क्षीर भोग ही सर्वोत्तम प्रधान भोग है। गोपीनाथ जी की क्षीर को 'अमृतकेलि' नाम से पुकारते हैं। बारह पात्रों में शाम को खीर का भोग लगता है।"
उस मंदिर में गोपीनाथ को खीर का प्रसाद लगाते देखकर पुरी ने सोचा कि पूजा की पद्धति तो समझ ली, परन्तु खीर कैसी होती है? इसे मैं समझ नहीं सका, अगर मैं उस खीर को खा पाता तो वैसी ही खीर अपने गोपाल को अर्पण करता। माँग सकते नहीं थे, क्योकि अयाचित-वृत्ति थी और माँगे बिना कोई देता नहीं।
उन्होंने अपनी इच्छा किसी के सामने प्रकट नहीं की। संध्या को भोग लगकर, शयन आरती हो गई और कपाट बंद हो गए। पुरी जी गाँव से थोड़े दूर एक स्थान में जाकर पड़ रहे।
श्री गोपीनाथ जी ने अपने ही प्रसाद की चोरी कर डाली
आधी रात के समय पुजारी जी ने स्वप्न देखा - साक्षात् गोपीनाथ भगवान सामने खड़े हैं और कह रहे हैं - मेरा एक जरूरी काम करो। मेरा के परम भक्त माधवेन्द्र पुरी महाभगावत संन्यासी ग्राम के बाहर ठहरा है। उसकी इच्छा मेरे क्षीर प्रसाद को पाने की है। अपने भक्त की मनोकामना को पूर्ण करने के निमित्त मैंने अपने भोग के बारह पात्रो में से एक को चुराकर अपने वस्त्रों में छिपा लिया है। तुम उसे ले-जाकर अभी पुरी को दे आओ।
इतना सुनते ही पुजारी चौंक पड़े। पट खोले, वस्त्रों को हटाया। सचमुच उनमे एक क्षीर से भरा हुआ पात्र रखा था। पुजारी जी पात्र को लेकर नगर के बाहर चिल्लाने लगे - माधवेन्द्र पुरी किनका नाम है ?
पुजारी के मुख से अपना नाम सुनकर पुरी महाराज बाहर निकल आये और कहने लगे - महाराज, मेरा नाम ही माधवेन्द्र पुरी है। कहिये, क्या आज्ञा है ?
पुरी महाराज का परिचय पाते ही पुजारी जी चरणों में गिर पड़े और बोले - महाभाग! आप धन्य हैं। हम जैसे पैसों के गुलाम को भगवान के साक्षात् दर्शन हो ही कैसे सकते थे परन्तु आज आपकी वजह से हमें भी दर्शन हो गए और सारी कहानी सुना दी।
रोते-रोते पुरी जी ने आँचल पसार कर प्रसाद लिया, और चाट-चाटकर खाया और पात्र के टुकड़े करके रख लिए जिसे वे रोज खाते थे।
अगले दिन माधवेन्द्र पुरी के जगन्नाथ पुरी पहुँचने से पहले ही यह क्षीरचोर की खबर चारों तरफ फैल गई। उनका नाम ही 'क्षीरचोर गोपीनाथ' हो गया। जगन्नाथ पुरी में माधवेन्द्र पुरी ने भगवान जगन्नाथ के पुजारी से मिलकर अपने गोपाल के लिए चंदन माँगा। पुजारी ने पुरीजी को महाराजा से मिलवा दिया और महाराजा ने अपने क्षेत्र की एक मन (करीब 37 किलो) विशेष चंदन लकड़ी, केसर और कर्पूर की भी व्यवस्था कर दी और अपने दो विश्वस्त अनुचरों के साथ पुरीजी को विदाकर दिया।
जब पुरी जी वापस लौटे तो रास्ते में फिर रेमूणाय में श्री गोपीनाथ मंदिर के पास पहुँचते, तीन-चार दिन फिर रुके तो गोपाल फिर उनके स्वप्न में आए और कहा कि वो चंदन गोपीनाथ को ही लगा दें क्योंकि गोपाल और गोपीनाथ एक ही हैं। तुम हममें भेद-बुद्धि मत रखो। उन्हें लगाने से ही हमारा ताप दूर हो जायेगा।
माधवेन्द्र पुरी ने गोपाल के निर्देशानुसार चंदन घिसवाने के लिए दो आदमी और रख लिए। ग्रीष्म काल के चार महीनों तक वहीं रहकर पुरी महाराज भगवान के अंग पर कर्पूर-चंदन आदि का लेप कराते रहे फिर अपने गोपाल के पास लौट आये।
बोलिये जय श्रीकृष्ण

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