Sunday 22 March 2015

मूर्खों के सामने हीरा भी पत्थर होता है

भगवान्‌के दो स्वरूप हैं । वे कौन-कौन-से हैं ? एक तो है दारुगत । जैसे काठमें आग होती है, दियासलाईमें आग होती है, पत्थरमें आग होती है, पर वह आग दीखती नहीं । ऐसे यह भगवान्‌का अगुणरूप सर्वत्र रहनेवाला है, पर यह दीखता नहीं । दूसरा रूप वह है, जो देखनेमें आता है । जैसे आग जलती हुई दीखती है, वह अग्निका प्रकटरूप है, ऐसे ही सगुण भगवान् अवतार लेकर लीला करते हैं, वह सगुणरूप प्रकट अग्निकी तरह है । भगवान् मनुष्योंकी तरह ही आचरण करते हैं । मनुष्यरूपमें प्रकट होनेके कारण वे प्रत्यक्ष दीखते हैं । एक दीखनेमें न आनेवाला और एक दीखनेमें आनेवाला‒दो रूप अग्निके हुए; परंतु अग्नि एक ही तत्त्व है । दीखने और न दीखने से आग दो नहीं हुई । ऐसे ही अगुण अर्थात् अप्रकट और सगुण अर्थात् प्रकट‒ये दो रूप परमात्मा के हुए, परंतु परमात्मा एक ही हैं ।

काठमें अथवा दियासलाईमें आग रहती है, वह आग दूसरी है और सुलगती है, वह आग दूसरी है‒ऐसा कोई नहीं कह सकता । दोनों एक ही हैं । एक तो दीखती है और एक नहीं दीखती । केवल इतना अन्तर है । ऐसे नहीं दीखनेवाले परमात्माके रूपको अगुण कह देते हैं दीखनेवाले रूपको सगुण कह देते हैं, पर परमात्मा दो नहीं हैं, तत्त्व एक ही है । इस तत्त्वको समझना ही ‘ब्रह्म बिबेकू’ है ।

‘उभय अगम जुग सुगम नाम तें’‒दोनों ही परमात्माके रूप अगम्य हैं । इनकी प्राप्ति करना चाहें तो निर्गुणकी प्राप्ति भी कठिन है और सगुणकी प्राप्ति भी कठिन है । इनको जानना चाहें तो अगुण और सगुण दोनोंको जानना कठिन है । इन दोनोंमें भी गोस्वामीजी महाराज आगे चलकर कहेंगे कि सगुणका जानना और भी कठिन है । अवतार लेकर मनुष्य जैसे चरित्र करते हैं‒इस कारण उनको जाननेमें कठिनता है ।

“निर्गुन रूप सुलभ अति सगुन जान नहिं कोइ ।
सुगम अगम नाना चरित सुनि मुनि मन भ्रम होइ ॥“
…………..(मानस, उत्तरकाण्ड, दोहा ७३ ख)

अगुणरूपको तो हर कोई जान सकता है, पर सगुण-रूपको हर कोई नहीं जानता । मनुष्यकी तरह आचरण करते देखकर बड़े-बड़े ऋषि-मुनियोंके मनमें भी भ्रम हो जाता है । वे भगवान्‌को मनुष्य ही मान लेते हैं । वे कहते हैं, यह तो मनुष्य ही है । गीतामें भी भगवान्‌ने कहा है‒‘देवता और महर्षि भी मेरे परम अविनाशी भावको नहीं जानते, इसलिये अवतार लेकर घूमते हुए मुझको मूढ़ लोग साधारण मनुष्य मानकर मेरी अवज्ञा करते हैं अर्थात् मेरा तिरस्कार, अपमान, निन्दा करते हैं[*] ।’ उन मूर्खों के सामने हीरा भी पत्थर होता है । न जानने के कारण वे निन्दा करते हैं । उनकी निन्दा का कोई मूल्य नहीं है । कारण कि वे बेचारे जानते नहीं, अनजान हैं ।

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