Sunday 15 November 2015

एक बार दया करके दर्शन दीजिये


हे प्रभो ! यदि आपका नाम पतितपावन है तो एक बार आकर दर्शन दीजिये | मैं आपको बारम्बार प्रणाम करके विनय करता हूँ, हे प्रभो ! दर्शन देकर कृतार्थ कीजिये | हे प्रभो ! आपके बिना इस संसार में मेरा और कोई भी नहीं है, एक बार दर्शन दीजिये, दर्शन दीजिये, विशेष न तरसाइए | आपका नाम विश्वम्भर है, फिर मेरी आशा को क्यों नहीं पूर्ण करते हैं | हे करुणामय ! हे दयासागर ! दया कीजिये | आप दया के समुद्र हैं, इसलिए किन्चित दया करने से आप दयासागर में कुछ दया की त्रुटी नहीं हो जायगी | आपकी किन्चित दया से सम्पूर्ण संसार का उध्दार हो सकता है, फिर एक तुच्छ जीव का उध्दार करना आपके लिये कौन बड़ी बात है | हे प्रभो, यदि आप मेरे कर्तव्य को देखें तब तो इस संसार से मेरा निस्तार होने का कोई उपाय ही नहीं है | इसलिये आप अपने पतितपावन नाम की और देखकर इस तुच्छ जीव को दर्शन दीजिये | मैं न तो कुछ भक्ति जानता हूँ, न योग जानता हूँ तथा न कोई क्रिया ही जानता हूँ, जो की मेरे कर्तव्य से आपका दर्शन हो सके | आप अन्तर्यामी होकर यदि दयासिन्धु नहीं होते तो आपको संसार में कोई दयासिन्धु नहीं कहता, यदि आप दयासागर होकर भी अन्तर की पीड़ा को न पहचानते तो आपको कोई अन्तर्यामी नहीं कहता | दोनों गुणों से युक्त होकर भी यदि आप सामर्थ्यवान न होते तो आपको कोई सर्वशक्तिमान और सर्वसामर्थ्यवान नहीं कहता | यदि आप केवल भक्तवत्सल ही होते तो आपको कोई पतितपावन नहीं कहता | हे प्रभो ! हे द्यासिन्धो ! एक बार दया करके दर्शन दीजिये |
जीवात्मा अपने मन से कहता है – रे दुष्ट मन ! कपटभरी प्रार्थना करने से क्या अन्तर्यामी भगवान् प्रसन्न हो सकते हैं ? क्या वे नहीं जानते कि ये सब तेरी प्रार्थनाएँ निष्काम नहीं हैं ? एवं तेरे हृदय में श्रध्दा, विशवास और प्रेम कुछ भी नहीं है ? यदि तुझको यह विशवास है कि भगवान् अन्तर्यामी हैं तो फिर किस लिये प्रार्थना करता है ? बिना प्रेम के मिथ्या प्रार्थना करने से भगवान् कभी नहीं सुनते और यदि प्रेम है तो फिर कहने से प्रयोजन ही क्या है 

No comments:

Post a Comment