समुद्र में जल की तरह इस संसार में प्राण (विचार, पानी/प्राणी) भरा हुआ है किन्तु दिखता हैं (जिसके कारण इसे परलोक कहते हैं) और व्यक्त देह-धारी, समुद्र में तैरते हुये बर्फ के शिखर की तरह दिखते हैं (जिसके कारण इसे लोक कहते हैं), और उसी में विलीन हो जाते हैं। हम देह-धारी व्यक्ति, देहांत के बाद की अवस्था के बारे में, कभी कभी बहुत सोचते हैं कि प्राण या विचार उस बिना अहंकार या बिना किसी पहिचान के, किस तरह जी सकता है? याद रहे, कि लोग, शरीर की मृत्यु, मरने या देहांत से कभी नहीं डरते, बल्कि वे अपनी पहिचान खो देने या अहंकार या पद के नष्ट होने से डरते हैं। जिनका कोई पहिचान नहीं होता, कोई पद नहीं होता, कोई सफलता-असफलता नहीं होती, कोई अपेक्षा या इच्छा नहीं होती, उसका देहधारी होना या शुद्ध विचार रूप में देह रहित होने में कोई भिन्नता नहीं है। वही जीव, मुक्त है, क्योंकि उसे जन्म-मृत्यु बांध कर करेगी क्या? जिन देहधारियों को देह-बोध नहीं होता वे बिदेही ही हैं। श्री कृष्ण जब अर्जुन को देहधारी कहते हैं तब उनका आशय यही है कि वे स्वयं देह-बोध से मुक्त हैं। श्री कृष्ण जो बिदेही, देह-बोध मुक्त देह-धारी आत्मा हैं, अपने को देह-धारी नहीं कहते और देह-धारी और दैहिक सम्बन्धों से मोहित अर्जुन को यह समझाते हैं कि अव्यक्त ब्रह्म के सत्य का ज्ञान, सभी देह-धारियों के लिये कितना कठिन है इसलिये साक्षी भाव से इस प्रकृति द्वारा हो रहे कर्म को अपने मन और शरीर से संपादित देखने का साहस करो। धर्म युद्ध में शरीर का नष्ट हो जाना किसी के लिये भी शोक और भय का कारण नहीं होता किन्तु मन पर बोझ ले कर जीना आत्मा के पैरों की बेड़ी है, जिससे ग्लानि के कारण उसका आत्मबल नष्ट हो जाता है। मृत्यु को समझने का यह अवसर ही संसार से मन को विरक्त करने की औषधि है।
बिदेही, देह-बोध मुक्त देह-धारी अथवा देह-रहित आत्मा, सर्व समर्थ है क्योंकि उसके लिए भौतिक शरीर की कोई बाध्यता नहीं है, उसे संबंध के मोह नहीं सताते। वह विचार बन, किन्तु निरहंकार रह, अपने लिए देह-धारियों को माध्यम बना उन कार्यों को करता है जो उनका निष्काम कर्म है। भगवन शिव का स्वरूप 'विशुद्ध ज्ञान देहाय त्रिवेदी दिव्य चक्षुशे' है। शिव का देह विशुद्ध ज्ञान है, अर्थात शिव देहधारी नहीं है किन्तु विचारों या प्राण के वे श्रोत हैं जिससे सभी देहधारी अपने भांति-भांति के इंद्रियों और शरीर का पोषण करते हैं। शिव जो अव्यक्त हैं वे ही सभी के कार्यों को उन उत्तम विचार के द्वारा भिन्न भिन्न देह-धारियों द्वारा करते हुये दिखते हैं।
भगवान को जो भी करना होता है देहधारियों के माध्यम से करते हैं। प्राण या विचार ही उनके अव्यक्त हाथ हैं और उनका बन असीमित है। हमारे मन में जो प्रेरणा होती है उसे ध्यान से देखें? ये विचार कहाँ से आते हैं? विचार ही हमें किसी भी कार्य कराते हैं, और उनके बल से ही जीवन में सारे अच्छे और बुरे कार्य होते हैं। हम सभी, उन अदृश्य शक्तियों के भौतिक प्रतिबिंब हैं जो यंत्र की तरह चलते और चलाये जाते हैं। सभी यांत्रिक जीव, घट-घट वासी परमात्मा के ही दर्शन हैं।
जीव देहधारी होते हुये भी मरे होते हैं। भ्रष्ट सरकारी अधिकारी जो असंवेदनशील है और निर्मल विचारों से प्रभावित नहीं होता उसे मरा हुआ कहते हैं। उनका मन नियंत्रण में नहीं रहता और उसके शांत न रहने से उनके विचार उनके उधर इधर खींचते रहते हैं। आत्मा का यह पतन मरे हुये जीव के रूप में दिखते हैं।वह एक पोस्टर की तरह है जो यंत्र किसी काम का नहीं, अहंकार से भरा, और लोग उससे डरते हैं। यही देहधारी जीव, चलते फिरते और दिखते हैं किन्तु आत्मा से मरे हुये हैं क्योंकि उनकी आत्मा पतित है। भागीरथ को गंगा इसलिए पृथ्वी पर लानी पड़ी थी क्योंकि सगर के पुत्र, पतित हो चुके थे। मरे हुये लोगों का उद्धार, उनके आत्मा का उद्धार है। गंगा, ज्ञान है और उसका अवतरण, आत्मा के उद्धार के लिए ही किया गया ।
गोस्वामी तुलसीदास का जीवन एक सुंदर कथा है। वे हम सभी की तरह देह-धारी जीव थे। सौभाग्य से वे बिलकुल अनाथ थे क्योंकि उनकी माता उनके जन्म दे कर ही चल बसी। जिसे एक भिक्षुणी से पाला हो उनके जन्म और देहांत का मूल्य? उनको कोई देखने वाला नहीं था, उनकी किसी रूप में कोई पहिचान थी ही नहीं और इस दीन अवस्था में वे उसी तरह अहंकार रहित हो गए जैसे कोई निस्प्रह योगी हो। उन्हें वीतरागी होने का स्वाभाविक अवसर मिला। तब उन्होने, यह खोज की, और पाया कि किस तरह वे देह धारी हो कर भी, किसी देह बोध या अहंकार से मुक्त हैं। उन्होने किसी तरह यह जान लिया कि उनके इंद्रियों और मस्तिष्क को, कोई और है जो विचार रूप में है उन्हें कुछ कहना चाहता है। उन्होने उस विचार को हनुमन का नाम दिया, और उन विचारों पर ध्यान देने लगे। धीरे धीरे, अब वे उस विचार रूपी हनुमन या उस विशेष प्राण से परिचित हो गए। जब भी वह विचार आता, गोस्वामी तुलसी का मन उसके साथ हो रहता और तब उनका शरीर पुलकित हो जाता।भूख-प्यास, श्रम, रोग या अहंकार ये सभी संसार के वे प्रभाव हैं जो मन को कीचड़ की तरह गंदा तो करते हैं किन्तु मन में अंदर की ओर गोस्वामी तुलसी दास के विचार स्वरूप में स्थित हनुमन के सनिध्य में, रह उनकी आत्मा को कोई हानि नहीं होती। मन जब अंदर से शुद्ध होता है तब वह किसी भी बाहरी गंदगी को टिकने नहीं देता।
हनुमन ने उन्हें श्री राम के चरित्र के बारे में बताया, और उनको शुद्ध-ज्ञान से निर्मित देह 'भगवान शिव' से उनका परिचय कराया। विज्ञान रूपी भगवान शिव, उस अहंकार रहित देहधारी गोस्वामी तुलसी दास को देख, बहुत प्रसन्न हुये और उनके शरीर को माध्यम बना, अवधि भाषा में, श्री राम चरित मानस ग्रंथ लिखा जिससे आज हम सभी परिचित हैं। देहधारी गोस्वामी तुलसीदास के हाथों से, राम चरित मानस की रचना बेदेही भगवन शिव ने की। फिर, गोस्वामी तुलसी दास ने अपने आराध्य श्री राम को, अपने भौतिक इंद्रियों से देखना चाहा। हनुमन ने उन्हें बताया कि सभी जीवों में वही परम आत्मा श्री राम हैं किन्तु यह देख पाना, देखने वाले पर निर्भर है और भगवान शिव जब गोस्वामी तुलसी दास जी के नेत्रों से देखेंगे केवल तब, संसार में श्री राम ही दिखते हैं। इस तरह, भगवान शिव ने, गोस्वामी तुलसी से नेत्रों से श्री राम को देखा और गोस्वामी जी के हाथों उन्होने ने राम चरित मानस उनको अर्पण की। यह सभी अनुभव स्वयं आत्मा के हैं और शरीर रूपी यंत्र को एक दूरबीन की तरह प्रयोग कर, किसी भी काल में और काल के परे देखने में सक्षम है। हम सभी जीव, गोस्वामी तुलसीदास जी की तरह सरलता से बन सकते हैं किन्तु हमारा पद या शरीर बोध और सांसरिक परिचय जो हमें जन्म-मृत्यु के बंधन से विचलित करता है उस के कारण, इस आध्यात्मिक लाभ से वंचित हैं।
यह सारा संसार परम-आत्मा का ही संकल्प है। किन्तु, इसके निर्माण कर्ता जो इतिहास हमें बताता है वे कुछ देह-धारी व्यक्ति हैं। उनका नाम और परिचय हम जानते हैं किन्तु उनके वे प्रेरक विचार जो अव्यक्त या देह-रहित हैं जिनकी दृढ़ता और कर्म को देखा नहीं जा सकता। अर्थात, लोक और परलोक यहीं है, जो दिखता है वही लोक और जो नहीं दिखता है किन्तु सक्षम प्राण या विचार हैं, वे ही परलोक या देहांत के उपरांत का लोक है। ये दोनों, लोक-पर लोक, संसार रूपी समुद्र में हिम-शीला के शिखर की तरह दिखते हैं और वही शिखर उसी में विलीन भी हो जाती है।
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