हम सभी देह-धारी जीव जो भी कर्म करते हैं हमारे विचार वे हमसे करवाते हैं। विचार के श्रोत का चुनाव आत्मा के उद्धार का कारण है। अहंकार या आत्मा का देह से मोह, उस चुनाव में त्रुटि करता है और उन विचारों से संपादित कर्म उस आत्मा के लिए बंधन बन जाते हैं। यही बंधन, आत्मा को जन्म-मृत्यु के लिए विवश करता है। मरे हुये, पतित आत्माओं से भरे संसार में अंतहीन और दारुण भय, लोभ, प्रतिस्प्रधा है, और इसलिये जीव जो जन्म-मृत्यु के चक्र से मोक्ष के लिए सुविचारों से जुडते हैं उनका जीवन धन्य है। आत्मा का उद्धार होने से जन्म-मृत्यु का बंधन नहीं रह जाता क्योंकि अहंकार नहीं होने से देहधारी जीव भी बिदेही ही है, और बिदेही प्राण, देहधारी के इंद्रियों में बहते हुये अपने निष्काम कर्म कर, इस संसार में आत्मा के उद्धार का उद्योग करते हैं।
हमारा शरीर या देह और उनकी इंद्रियाँ उन विचारों से आंदोलित हो जातीं हैं जो पहिले कभी हमसे मिल चुकी होतीं हैं। इंद्रियों का विचारों से यह पुरानी जान-पहिचान ही ज्ञान है। आत्मा को बार बार देहधारण (जन्म-मृत्यु) के कारण, संसार से लगाव हो जाता है जिससे उसे विचारों या प्राण से मुक्ति, पूरी तरह से नहीं मिलती। इस शरीर और उसकी इंद्रियों को भिन्न भिन्न विचार या ज्ञान-देह (जिसे बॉडी आफ नालेज भी कहते हैं) अपनी अपनी दिशा में खींचते हैं। गोस्वामी जी कहते हैं कि इस शरीर के हर एक छेद पर देवता (अर्थात अदृश्य प्राण या विचार या ज्ञान) कब्जा कर लेते हैं क्योंकि हर इंद्रियाँ अपने-अपने विषय से अपने आप जुड़ जातीं हैं। ज्ञान रूपी देवताओं का आत्मा द्वारा शरीर और मन में, आवाहन ही, यह प्राण प्रतिष्ठा है। एक संयोग ही कहा जा सकता है कि मेरे आत्मा ने अपने मन और शरीर में भौतिक शास्त्र की प्राण-प्रतिष्ठा कर दी। भौतिक शास्त्र जो ज्ञान रूप हैं उन्होने मेरे नेत्रों और कानों, हाथ और मुख से देखा, सुना, काम किया और वाणी द्वारा प्रवचन दिया। है न? जीव में विद्यालय में रहते भौतिक शास्त्र में रुचि जगाने वाले गुरु ने मेरे आत्मा को उस देवता की याद दिलाई जिसे वह पहिले से जानती थी और उसकी रुचि स्वाभाविक थी। जो भी कार्य हम करते हैं उनके प्रेरक विचार उस कार्य को करने के लिए हमें विवश करते हैं, और वह काम करने से ही मन को शांति मिलती है। सभी जीवों की यही कथा है। आत्मा के उद्धार की इस प्रक्रिया में मन की शांति के लिये ज्ञान यज्ञ करते हुये देवताओं का आशीर्वाद ले कर परम-आत्मा के अद्भुत सत्य का उदघाटन होता है। वही अंतिम यज्ञ, योग कह लाता है।
इसी तरह हर एक व्यक्ति के देह और मन में देवता निवास करते हैं, और वे ही उस शरीर और मन को लाभ या हानि, के कारक हैं। भौतिक शास्त्र की तरह, नियंत्रण के राक्षस जैसे भय , लालच और प्रतिस्प्रधा, भी इस आत्मा ने प्राण प्रतिष्ठित किये। जीव का यह देह, देवताओं और राक्षसों की वह सराय है, जिसमें कोई जब चाहे कोई आ जाता है, और जब चाहे चला जाता है। आत्मा से पतित हुये विद्वान सूप्रीम कोर्ट का पूर्व जज, एक महान खोजी पत्रकार और एक व्यवसायी कथा वाचक पंडित की चर्चा, आज कल भारत में टीवी चेनेल में हो रही है। वह महान जज, एक रात शराब पी लेता है, तब काम-देव उसके आत्मा में प्रतिष्ठित हो, उसकी यौन इच्छा से उकसाते हैं। और, वह बुड्ढा जज अपने पुत्री समान सह-कर्मी से वासना की भीख मांगने लगता है। अब काम देव जो अव्यक्त देवता हैं उनका आत्मा से संपर्क में आना, उस जज के लिए बिलकुल अच्छा नहीं हुआ। उसने कुछ ही क्षणों में, उस सूप्रीम कोर्ट के जज के अब तक के उसके प्राप्त कीर्ति को नष्ट कर दिया।
इस लिए, आत्मा को सुमति या सुविचारों का चुनाव करना चाहिये और कुमति और कुसंस्कारों का त्याग करते रहना चाहिये। यह कैसे हो? यह विधि अत्यंत सरल है। परम आत्मा का स्मरण, जीवात्माओं के सभी विघ्न को दूर करता है। राम चरित मानस, सुखमणि साहिब, भगवत गीता को सुनने और उस पर ध्यान देते रहने से आत्मा को उसकी स्मृति अपने आप आने लगती है क्योंकि वह उन्हें पहिले से ही जानता है। और उस आत्मा को इन विचारों पर ध्यान देते देख, शुद्ध और परम आत्मा भगवान शिव, श्री राम, श्री कृष्ण, स्वयं उसका अर्थ उस आत्मा को बतलाने लगते हैं। यही जीवात्मा का भजन और कीर्तन है जो परम आत्मा, उस जीवात्मा से मन और शरीर द्वारा करते हैं। उस आत्मा का मन और शरीर पुलकित रहता है क्योंकि उसका प्रकाश अंदर से बाहर की तरफ निकल रहा होता है, न कि वह चमक बाहरी प्रकाश को ही वापस परावर्तित कर कित्रिम चमक है। वह जीवात्मा देह-धारी होते हुये भी संसार से विरक्त है। वही अहंकार और उसके कारण प्राप्त जन्म-मृत्यु के चक्र से भी मुक्त है।
पवित्र विचारों के आते ही, मन में उपस्थित अन्य देवता और राक्षस, अपना अपना स्थान रिक्त कर देते हैं। विचार और मन जो विचारों का घोंसला है, वह भी रिक्त हो जाता है।मन निर्विचार हो शांत हो जाता है। मनोहर अर्थात मन को हरने वाले परम-आत्मा के अद्भुत चरित्र, आत्मा के सभी रोगों को समाप्त कर देते हैं। याद रहे, कि वे विचार कभी साथ नहीं छोड़ते। हनुमन कहते हैं 'संकट कटई मिटई सब पीरा' अर्थात संकट एक है जो आत्मा का है जबकि मन और शरीर की पीड़ा बहुत अधिक संख्या में होते हैं। इसलिए, हनुमन संकट-मोचक हैं और उनका लक्ष्य आत्मा का उद्धार है। वे पीड़ा मोचक (या पेन-किलर की दवा) नहीं हैं, क्योंकि पीड़ा का अस्तित्व उसी एक संकट के कारण ही तो है? आध्यात्मिक संदेश या उन विचारों को सुनना चाहिये जो मन की शांत अवस्था में, जीवात्मा को तभी सुनाई पड़ते हैं ... जब वह अहंकार से मुक्त हो। हनुमन, परम आत्मा श्री राम के संदेश को हर एक आत्मा से कहना चाहते हैं जिनका मन और शरीर का अपहरण हो गया है और इस संसार रूपी लंका में फंसे हुये हैं।
हमारा शरीर या देह और उनकी इंद्रियाँ उन विचारों से आंदोलित हो जातीं हैं जो पहिले कभी हमसे मिल चुकी होतीं हैं। इंद्रियों का विचारों से यह पुरानी जान-पहिचान ही ज्ञान है। आत्मा को बार बार देहधारण (जन्म-मृत्यु) के कारण, संसार से लगाव हो जाता है जिससे उसे विचारों या प्राण से मुक्ति, पूरी तरह से नहीं मिलती। इस शरीर और उसकी इंद्रियों को भिन्न भिन्न विचार या ज्ञान-देह (जिसे बॉडी आफ नालेज भी कहते हैं) अपनी अपनी दिशा में खींचते हैं। गोस्वामी जी कहते हैं कि इस शरीर के हर एक छेद पर देवता (अर्थात अदृश्य प्राण या विचार या ज्ञान) कब्जा कर लेते हैं क्योंकि हर इंद्रियाँ अपने-अपने विषय से अपने आप जुड़ जातीं हैं। ज्ञान रूपी देवताओं का आत्मा द्वारा शरीर और मन में, आवाहन ही, यह प्राण प्रतिष्ठा है। एक संयोग ही कहा जा सकता है कि मेरे आत्मा ने अपने मन और शरीर में भौतिक शास्त्र की प्राण-प्रतिष्ठा कर दी। भौतिक शास्त्र जो ज्ञान रूप हैं उन्होने मेरे नेत्रों और कानों, हाथ और मुख से देखा, सुना, काम किया और वाणी द्वारा प्रवचन दिया। है न? जीव में विद्यालय में रहते भौतिक शास्त्र में रुचि जगाने वाले गुरु ने मेरे आत्मा को उस देवता की याद दिलाई जिसे वह पहिले से जानती थी और उसकी रुचि स्वाभाविक थी। जो भी कार्य हम करते हैं उनके प्रेरक विचार उस कार्य को करने के लिए हमें विवश करते हैं, और वह काम करने से ही मन को शांति मिलती है। सभी जीवों की यही कथा है। आत्मा के उद्धार की इस प्रक्रिया में मन की शांति के लिये ज्ञान यज्ञ करते हुये देवताओं का आशीर्वाद ले कर परम-आत्मा के अद्भुत सत्य का उदघाटन होता है। वही अंतिम यज्ञ, योग कह लाता है।
इसी तरह हर एक व्यक्ति के देह और मन में देवता निवास करते हैं, और वे ही उस शरीर और मन को लाभ या हानि, के कारक हैं। भौतिक शास्त्र की तरह, नियंत्रण के राक्षस जैसे भय , लालच और प्रतिस्प्रधा, भी इस आत्मा ने प्राण प्रतिष्ठित किये। जीव का यह देह, देवताओं और राक्षसों की वह सराय है, जिसमें कोई जब चाहे कोई आ जाता है, और जब चाहे चला जाता है। आत्मा से पतित हुये विद्वान सूप्रीम कोर्ट का पूर्व जज, एक महान खोजी पत्रकार और एक व्यवसायी कथा वाचक पंडित की चर्चा, आज कल भारत में टीवी चेनेल में हो रही है। वह महान जज, एक रात शराब पी लेता है, तब काम-देव उसके आत्मा में प्रतिष्ठित हो, उसकी यौन इच्छा से उकसाते हैं। और, वह बुड्ढा जज अपने पुत्री समान सह-कर्मी से वासना की भीख मांगने लगता है। अब काम देव जो अव्यक्त देवता हैं उनका आत्मा से संपर्क में आना, उस जज के लिए बिलकुल अच्छा नहीं हुआ। उसने कुछ ही क्षणों में, उस सूप्रीम कोर्ट के जज के अब तक के उसके प्राप्त कीर्ति को नष्ट कर दिया।
इस लिए, आत्मा को सुमति या सुविचारों का चुनाव करना चाहिये और कुमति और कुसंस्कारों का त्याग करते रहना चाहिये। यह कैसे हो? यह विधि अत्यंत सरल है। परम आत्मा का स्मरण, जीवात्माओं के सभी विघ्न को दूर करता है। राम चरित मानस, सुखमणि साहिब, भगवत गीता को सुनने और उस पर ध्यान देते रहने से आत्मा को उसकी स्मृति अपने आप आने लगती है क्योंकि वह उन्हें पहिले से ही जानता है। और उस आत्मा को इन विचारों पर ध्यान देते देख, शुद्ध और परम आत्मा भगवान शिव, श्री राम, श्री कृष्ण, स्वयं उसका अर्थ उस आत्मा को बतलाने लगते हैं। यही जीवात्मा का भजन और कीर्तन है जो परम आत्मा, उस जीवात्मा से मन और शरीर द्वारा करते हैं। उस आत्मा का मन और शरीर पुलकित रहता है क्योंकि उसका प्रकाश अंदर से बाहर की तरफ निकल रहा होता है, न कि वह चमक बाहरी प्रकाश को ही वापस परावर्तित कर कित्रिम चमक है। वह जीवात्मा देह-धारी होते हुये भी संसार से विरक्त है। वही अहंकार और उसके कारण प्राप्त जन्म-मृत्यु के चक्र से भी मुक्त है।
पवित्र विचारों के आते ही, मन में उपस्थित अन्य देवता और राक्षस, अपना अपना स्थान रिक्त कर देते हैं। विचार और मन जो विचारों का घोंसला है, वह भी रिक्त हो जाता है।मन निर्विचार हो शांत हो जाता है। मनोहर अर्थात मन को हरने वाले परम-आत्मा के अद्भुत चरित्र, आत्मा के सभी रोगों को समाप्त कर देते हैं। याद रहे, कि वे विचार कभी साथ नहीं छोड़ते। हनुमन कहते हैं 'संकट कटई मिटई सब पीरा' अर्थात संकट एक है जो आत्मा का है जबकि मन और शरीर की पीड़ा बहुत अधिक संख्या में होते हैं। इसलिए, हनुमन संकट-मोचक हैं और उनका लक्ष्य आत्मा का उद्धार है। वे पीड़ा मोचक (या पेन-किलर की दवा) नहीं हैं, क्योंकि पीड़ा का अस्तित्व उसी एक संकट के कारण ही तो है? आध्यात्मिक संदेश या उन विचारों को सुनना चाहिये जो मन की शांत अवस्था में, जीवात्मा को तभी सुनाई पड़ते हैं ... जब वह अहंकार से मुक्त हो। हनुमन, परम आत्मा श्री राम के संदेश को हर एक आत्मा से कहना चाहते हैं जिनका मन और शरीर का अपहरण हो गया है और इस संसार रूपी लंका में फंसे हुये हैं।
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