Thursday, 1 May 2014

क्योंकि यह व्यभिचारिणी भक्ति है

पुन्य आत्माओ प्रस्तुत लेख मे गीता ज्ञान दाता द्वारा उससे भिन्न किसी अन्य पूर्ण परमात्मा के गूड रहस्य उजागर को किया गया है ,, कृपा कर इस लेख को पढ़े --

पवित्र श्रीमदभगवत गीता जी के अध्याय 18के श्लोक 61 से 66 तक का भावार्थ है कि गीता ज्ञान दाता काल (ब्रह्म/क्षरपुरुष) कह रहा है कि जो पूर्ण परमात्मा (अन्य पुरुषोत्तम/अविनाशी परमात्मा/परम अक्षर ब्रह्म) सर्व जीवों के हृदय में स्थित है वही प्राणियों को कर्मानुसार यन्त्र (मशीन) की तरह घुमाता है अर्थात् कर्म आधार पर स्वर्ग-नरक-जन्म-मरण, चैरासी लाख जूनियों में चक्र कटवाता है। जो प्राणी उस (पूर्णब्रह्म/सतपुरुष) परमात्मा की शरण में नहीं है और क्षर पुरुष (ब्रह्म-काल) व तीनों गुणों (रजगुण-ब्रह्मा, सतगुण-विष्णु, तमगुण-शिव) की तथा देवी-देवताओं की उपासना करता है या बिल्कुल नहीं करता है। जैसे भी कर्म बनते हैं उनके आधार पर कर्मों का फल वही सर्वव्यापक परमात्मा (सतपुरुष) ही देता है। जैसे प्रहलाद भक्त विष्णु उपासक था तो उसकी रक्षा के लिए वह परमात्मा (पूर्णब्रह्म/सतपुरुष) ही नृसिंह रूप बना कर आया, हिरणाकशिपु को मारा तथा पश्चात् विष्णु रूप दिखा कर भक्त प्रहलाद को कृतार्थ किया। जो भक्त जिसका उपासक है उस भक्त की रक्षा वही पूर्ण परमात्मा (सतपुरुष) ही करता है तथा भक्त की श्रद्धा बनाए रखने के लिए उसी के इष्ट का रूप बना कर आता है। जो भक्ति करते हैं या नहीं करते उन सबका हिसाब धर्मराज रखता है। जो कर्मों का आधार है उसी परमात्मा के निर्देश पर फल देता है। जो उस परमात्मा (पूर्णब्रह्म) की शरण में पूर्ण गुरु के माध्यम से जाता है। वह भक्त (योगी) जन्म-मरण चैरासी लाख जूनियों से छूट जाता है तथा सतलोक (सच्चे लोक/सच्च खण्ड/सनातन स्थान) को प्राप्त होता है तथा पूर्ण मुक्त हो जाता है। कुछ अस्थाई मुक्ति (राहत) भगवान काल (क्षर पुरुष) भी दे सकता है उसके लिए क्षर ब्रह्म कहता है कि ब्रह्मा-विष्णु-शिव व देवी-देवताओं की पूजा त्याग कर केवल मुझ (ब्रह्म) की अव्याभिचारिणी (अनन्य मन से) भक्ति गुरु बना कर करने से मुझ (काल) को प्राप्त होगा। उस साधक की चौथी मुक्ति (महास्वर्ग/ब्रह्मलोक में स्थापित) कर देगा। अपनी कमाई (पुण्यों) को समाप्त करके काल (क्षर, ब्रह्म) की महाप्रलय के समय समाप्त हो जाएगा और फिर जब काल (क्षर) सृष्टी रचेगा उसमें फिर वही चौथी मुक्ति वाले साधक जन्म-मरण व चैरासी लाख जूनियों में अवश्य जाएंगे। क्योंकि क्षर ब्रह्म का संविधान है कि जैसे कर्म प्राणी करेगा उन सर्व (अच्छे व बुरे) कर्मों का फल उस (जीव) को भोगना पड़ेगा। यह अटल नियम (मत) है। अच्छे कर्मों के लिए स्वर्ग, महास्वर्ग तथा बुरे कर्मों के लिए नरक तथा कुछ अच्छे और कुछ बुरों के मिश्रण से चैरासी लाख योनियों में भी कष्ट उठाना पड़ेगा। यह काल (क्षर ब्रह्म) भगवान की साधना का परिणाम है। इसलिए काल (क्षरपुरुष) ने अध्याय 7 के श्लोक 18 में स्पष्ट कहा है कि जो परमात्मा प्राप्ति की कोशिश कर रहे हैं वे मानव शरीरधारी ज्ञानी आत्मा उद्धार हैं परंतु वे मेरी (काल की) ही अनुत्तम (घटिया) गति (मुक्ति) में अच्छी तरह व्यवस्थित हैं अर्थात् उन नादानों को उस पूर्ण ब्रह्म परमात्मा को पाने का ज्ञान न होने से वे मेरे (काल) पर ही पूर्ण आश्रित हैं जिससे वे पूर्ण शांति (पूर्ण मुक्ति) से वंचित रहते हैं। इसलिए क्षर ब्रह्म (काल) अध्याय 18 के श्लोक 62 में स्पष्ट कह रहा है कि उस परमात्मा की शरण में जा जिससे परम शांति (पूर्ण मुक्ति) व सनातन स्थान (सतलोक) को प्राप्त होगा। फिर अध्याय 18 के ही श्लोक 62 से 66 में कहा है कि अर्जुन अब तू सोच ले मेरी शरण में रहना चाहता है या उस परमात्मा की शरण में जाना चाहता है। यह गुप्त से भी गुप्त उस परमात्मा का ज्ञान तेरे को दिया है और गुप्त से भी अति गुप्त मेरे अनमोल वचन सुन तू मेरा अति प्रिय है इसलिए तुझे बताता हूँ कि तू उस एक (पूर्णब्रह्म) परमात्मा की शरण में जा। जो मेरा उपास्य देव (इष्ट) भी यही (पूर्णब्रह्म ही) है। यदि तू (अर्जुन) मेरी शरण में रहना चाहता है तो मेरे को ही प्राप्त होगा अर्थात् महास्वर्ग में जाएगा, मैं (काल) सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ। यदि मेरी शरण में रहेगा तो युद्ध अवश्य करना होगा। यहाँ तो मारो मार बनी रहेगी। वह भी जब होगा जब मेरे विधान (मत) के अनुसार साधना करेगा। यदि ब्रह्मा, विष्णु, शिव, देवी-देवताओं, पितरों व भूतों की पूजा भी साथ करता रहेगा तो भी मुझे प्राप्त नहीं होगा। क्योंकि यह व्यभिचारिणी भक्ति है जो एक इष्ट पर आधारित नहीं होते। वे व्याभिचारिणी भक्ति कर रहे हों उन्हें कोई लाभ नहीं हो सकेगा।
अध्याय 18 के श्लोक 66 में कहा है कि उस परमात्मा से लाभ लेना है तो मेरी सर्व पूजाएँ मुझमें त्याग

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