Thursday, 1 May 2014

सतनाम को सारनाम, सारशब्द, सतनाम, सतलोक तथा सतपुरूष कहते हैं।


सद्ग्रन्थों के मन्त्रो (श्लोकों) में परमात्मा की महिमा है तथा उसको प्राप्त करने की विधि भी है। जब तक उस विधि को ग्रहण नहीं करेगें तब तक आत्म कल्याण अर्थात् ईश्वरीय लाभ प्राप्ति असम्भव है। जैसे पवित्र गीता अध्याय 17 मन्त्र (श्लोक) 23 में कहा है कि पूर्ण परमात्मा की प्राप्ति का तो केवल ॐ तत सत मन्त्र है, इसको तीन विधि से स्मरण करके मोक्ष प्राप्ति होती है। ओम् मंत्र ब्रह्म अर्थात् क्षर पुरूष का जाप है, तत् मंत्र (सांकेतिक है जो उपदेश लेने वाले को बताया जाएगा) परब्रह्म अर्थात् अक्षर पुरूष का जाप है तथा सत् मन्त्र (सांकेतिक है इसे सत् शब्द अर्थात् सारनाम भी कहते हैं। यह भी उपदेश लेने वाले को बताया जाएगा) पूर्ण ब्रह्म अर्थात् परम अक्षर पुरूष (सतपुरूष) का जाप है। इस (ॐ-तत्-सत्) के जाप की विधि भी तीन प्रकार से है। इसी से पूर्ण मोक्ष सम्भव है। 

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आर्य समाज प्रवर्तक श्री दयानन्द जी जैसे वेद ज्ञान हीन व्यक्तियों को यह भी नहीं पता था कि यह वाक्य किस वेद का है। ‘‘सत्यार्थ प्रकाश’’ (दयानन्द मठ दीनानगर पंजाब से प्रकाशित) समुल्लास तीन में पृष्ठ 38,39 पर इसी मन्त्र (भूर्भुवः स्वः तत्- - -) का अनुवाद करते समय लिखा है कि भूः भुर्व स्वः यह तीन वचन तैत्तिरीय आरण्यक के हैं, मन्त्र के शेष भाग (तत् सवितुः- - -प्रचोदयात) के विषय में कुछ नहीं लिखा है कि कहाँ से लिया गया है। स्वामी दयानन्द जी ने ‘‘सत्यार्थ प्रकाश’’ में किए इसी मन्त्र के अनुवाद में तथा यजुर्वेद में किए इस मन्त्र (भू भुर्वः- - -) के अनुवाद में विपरित अर्थ किया है। तैत्तिरीय आरण्यक तो एक उपनिषद् है जिसमें किसी ऋषि का अपना अनुभव है। जबकि वेद प्रभु प्रदत ज्ञान है। हमने वेद पर आधारित होना है न कि किसी ऋषि द्वारा रचित अपने अनुभव की पुस्तक पर। यदि ‘सत्यार्थ प्रकाश‘ पुस्तक की पोल न खुलती तो कुछ दिनों बाद यह भी एक उपनिषद् का रूप धारण कर लेता। आने वाले समय में अन्य पुस्तकों की रचना करते समय ‘सत्यार्थ प्रकाश‘ के अज्ञान का समर्थन लेते तथा इससे भी अधिक अज्ञान युक्त पुस्तकों की रचना हो जाती।
जैसे गुरु ग्रन्थ साहेब में श्री नानक साहेब जी की अमृतवाणी तथा परम पूज्य कबीर परमेश्वर जी की अमृतवाणी वेद ज्ञान युक्त है तथा वेदों से आगे का भी ज्ञान विद्यमान है। परंतु राधास्वामी पंथ के प्रथम संत व प्रवर्तक माने जाने वाले श्री शिवदयाल जी उर्फ राधास्वामी जी के अज्ञान युक्त वचनों से रची पुस्तक ‘सार वचन नसर व वार्तिक‘ को एक प्रमाणित शास्त्र मान कर श्री सावन सिंह जी महाराज ने (जो श्री खेमामल उर्फ शाहमस्ताना जी के पूज्य गुरु जी थे। श्री शाहमस्ताना जी ने ही बेगु रोड़ सिरसा में धन-धन सतगुरु-सच्चा सौदा पंथ की स्थापना की है) पुस्तक ‘सार वचन नसर व वार्तिक‘ वाले विवरण का समर्थन लेकर ‘संतमत प्रकाश‘ पुस्तक के कई भागों की रचना कर डाली, जिनमें सद्ग्रन्थों के विरूद्ध कोरा अज्ञान भरा है। जैसे श्री शिवदयाल जी ने उपरोक्त पुस्तकों में वचन-4 में कहा है कि सतनाम को सारनाम, सारशब्द, सतनाम, सतलोक तथा सतपुरूष कहते हैं। इसी आधार से श्री सावन सिंह जी ने संतमत प्रकाश भाग-3 पृष्ठ-76 पर कहा है कि सतनाम को सतलोक कहते हैं। फिर पृष्ठ-79 पर लिखा है कि सतनाम चौथा राम है, यह असली राम है। श्री शिवदयाल जी महाराज के वचनों के आधार से श्री सतनाम सिंह जी द्वितीय गद्दीनशीन डेरा धन-धन सतगुरू सच्चा सौदा सिरसा वाले ने पुस्तक ‘सच्चखंड की सड़क’ पृष्ठ 226 पर लिखा है कि सतलोक महाप्रकाशवान है। इसी को सतनाम, सारनाम, सारशब्द भी कहते हैं।

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उपरोक्त ज्ञान से स्पष्ट है कि इन पंथों के सन्तों को कोई ज्ञान नहीं था। जिनकी लिखित कहानियाँ ही गलत है तो क्रियाऐं भी गलत हैं। जिनकी थ्यूरी ही गलत है तो प्रैक्टीकल भी गलत है। हमने पवित्र अमृतवाणी श्री नानक साहेब जी तथा अमृतवाणी परम पूज्य कबीर परमेश्वर (कविर्देव) जी तथा जिन संतों को कविर्देव (कबीर प्रभु) स्वयं मिले तथा तत्वज्ञान से परिचित कराया उनकी अमृतवाणी को आधार मान कर सत्य का ग्रहण करना है तथा असत्य का परित्याग करना है।

उदाहरण: जैसे कोई गणित के प्रश्न को हल कर रहा है और वह सही नहीं हो पा रहा है तो उसका सही हल ढूंढने के लिए मुख्य व्याख्या को ही आधार मान कर पुनर् पढ़ा जाता है। तब वह प्रश्न हल हो जाता है। यदि गलत किए हुए प्रश्न के हल को ही आधार मान कर प्रयत्न करते रहेंगे तो समाधान असंभव है। इसी प्रकार पूर्व संतों व ऋषियों द्वारा लिखी अपने अनुभव की पुस्तकों के स्थान पर सद्ग्रन्थों को ही आधार मान कर पुनर् पढ़ने व उन्हीं के आधार से साधना करन से ही प्रभु प्राप्ति व मोक्ष संभव है। 

गीता जी में लिखा है कि हे अर्जुन ! जब तेरी बुद्धि नाना प्रकार के भ्रमित करने वाले शास्त्र विरूद्ध ज्ञान से हट कर एक शास्त्र आधारित तत्व ज्ञान पर स्थिर हो जाएगी तब तू योगी (भक्त) बनेगा। भावार्थ है कि तब तेरी भक्ति प्रारम्भ होगी। जैसे पथिक गंतव्य स्थान की ओर न जा कर अन्य दिशा को जा रहा हो उसकी वह यात्रा कुमार्ग की है। उससे वह अपने निज स्थान पर नहीं पहुच सकता। जब वह कुमार्ग त्याग कर सत मार्ग पर चलेगा तब ही उसके लिए मंजिल प्राप्त करना संभव है।
इसलिए श्रद्धालुओं से प्रार्थना है कि जब आप शास्त्र विरूद्ध साधना से हट कर शास्त्रानुसार साधना पर लगोगे तब आपका सत भक्ति मार्ग प्रारम्भ होगा।

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