Sunday, 25 May 2014

क्रोध के समान कोई दूसरा शत्रु नहीं।

!!!---: क्रोध :---!!!


ज्ञानी पुरुषों ने क्रोध की बहुत निन्दा की है। क्रोध मनुष्य के यश और तप का नाश कर देता है। जब मनुष्य क्रोध में आता है तो ऐसे शब्द मुँह से निकालता है और ऐसी चेष्टाएँ करता है कि उसकी तपस्या भी भङ्ग हो जाती है और यश का नाश हो जाता है। यब मनुष्य की सज्जनता का नाश कर देता है। क्रोध एस प्रचण्ड अग्नि के समान है जो मनुष्य को भस्मसात् कर देता हैः---
 मनुष्य का मुख्य शत्रु क्रोध है। यह देह में रहता हुआ ही देह को नष्ट कर डालता है, जैसे लकडी में स्थित अग्नि लकडी को ही जला डालती है। आग जैसे अपने आधार लकडी को जला देती है, वैसे ही क्रोध भी अपने आधार शरीर को जला देता है।

यह क्रोध जिस देह में उत्पन्न होता है, उसे सर्वथा जलाकर ही छोडता है। यह क्रोध अपने आश्रय अर्थात् शरीर को ही जला देता है।

अतः इस अग्नि से बचकर रहना चाहिए। क्रोध विष से भी अधिक भयंकर होता हैः---
क्रोध और कालकूट अर्थात् विष (जहर) में बहुत अन्तर है, क्योंकि क्रोध तो अपने आश्रय को भी जलाता है, किन्तु विष अपने आश्रय को नहीं जलाता । कहने का आशय है कि क्रोध का आश्रय शरीर होता है, जिसे वह जला देता है, परन्तु विष जिस पात्र में पडा रहता है, उसे नहीं जलाता। इस प्रकार विष से क्रोध अधिक भयंकर है।

क्रोध हमारे सभी गुणों का नाश कर देता हैः
क्रोध धैर्य (धीरज) को नष्ट कर डालता है, क्रोेध हमारे सुने हुए, याद की हुई विद्या को नष्ट कर डालता है, क्रोध सबकुछ नष्ट कर डालता है। क्रोध के समान कोई दूसरा शत्रु नहीं।

क्रोध अज्ञान के कारण उत्पन्न होता है और मूढता को उत्पन्न करता हैः
-क्रोध से मूढता उत्पन्न होती है और मूढता से स्मृति भ्रान्त होती है। स्मृति के भ्रान्त होने से बुद्धि नष्ट हो जाती है और बुद्धि के नष्ट होने से प्राणी स्वयं नष्ट हो जाता है।

क्रोध बुरे विचारों और भावों को जन्म देने वाला होता है। इससे द्वेष, घृणा, वैमनस्य, प्रतिकार, दुःख और अभिमान उत्पन्न होते हैं। इसीलिए इसे धर्म का नाशक कहा गया हैः---
सब अनर्थों का मूल यह क्रोध ही है और यह क्रोध ही विकारों को बढाने वाला है। यह क्रोध ही धर्म का क्षय करने वाला है, इसलिए क्रोध को छोड देना चाहिए।

क्रोध को काम से भी अधिक दुःखदायक माना गया हैः
जो सुख चाहने वाले पुरुष हैं, उनके लिए क्रोध से बढकर कोई दूसरा शत्रु नहीं हैं। इसलिए क्रोध को नियन्त्रण में रखना चाहिए । वह काम से भी अधिक दुःख देने वाला है।

यद्यपि काम की अधिकता के कारण भी मनुुष्य कष्ट उठाता है, तथापि क्रोध के कारण होने वाले कष्टों की संख्या अधिक मानी गई हैः
जैसे दुष्ट घोड़ा घुडसवार को गढे में गिरा देता है, इसी प्रकार यह क्रोध भी मनुष्य को शीघ्र ही नरक में डाल देता है।

गीता में अर्जुन ने श्रीकृष्ण से पूछा कि मनुष्य पाप करना नहीं चाहता, फिर भी वह कैसे पाप कर लेता हैः
हे कृष्ण, यह पुरुष न चाहता हुआ भी किसके द्वारा बलपूर्वक प्रेरित हुआ पाप करता है।

श्रीकृष्ण ने दार्शनिक उत्तर देते हुए                                                                                                                                                                                                               यह जो काम, अर्थात् इन्द्रिय सुखों में, विशेषकर उपस्थेन्द्रिय के भोग में दृढ अनुराग है और इसके व्याघात से उत्पन्न होने वाला क्रोध है, यह रजोगुण से पैदा होता है, यह बडा सर्वभक्षी है, यह बडा पापी है, इसे अपना वैरी (शत्रु) जान।

क्रोध जीवन के रस को नष्ट कर डालता है। जैसे जल के तीव्र प्रवाह में बडे-बडे वृक्षादि बह जाते हैं, वैसे मनुष्य क्रोध के प्रवाह के आगे बह जाता है। जैसे नशीले पदार्थ के मद में व्यक्ति को भले-बुरे का ज्ञान नहीं रहता, वैसे क्रोध के नशे में व्यक्ति को अच्छे-बुरे का कोई ध्यान नहीं रहता।

जिन व्यक्तियों पर विवेक का अंकुश रहता है, वे अपने क्रोध पर नियन्त्रण रखते हैं। वे क्रोध की स्थिति में भी अपने विवेक को खोते। 

क्रोध की स्थिति में व्यक्ति की आँखों के डोरे लाल हो जाते हैं, भौंहे तन जाती हैं, चेहरा तमतमा उठता है, आवाज में कर्कशता आ जाती है, वह चिल्लाने लगता है। अपशब्द व गालियाँ देता है, आलोचना करता है, चुगली करता है, शत्रु को उल्टे शब्द बोलता हैः
मुझे क्या बोलना चाहिए, क्या नहीं बोलना चाहिए, क्रोध के कारण इसका ज्ञान नहीं रहता। क्रोधी व्यक्ति के लिए कुछ भी अकार्य नहीं है। वह बुरे-से-बुरा कर्म कर डालता है। उसके लिए अवाच्य कुछ भी नहीं है। सब कुछ बक देता हैः---

क्रोधी के सामने अकार्य और अवाच्य जैसा कुछ नहीं रहता, अर्थात् वह कुछ भी कर सकता है और कुछ भी बोल सकता है।

क्रोध की स्थिति में व्यक्ति दूसरों की पिटाई कर देता हैः
क्रोध में आकर मनु्ष्य पाप कर डालता है और क्रोध के वशीभूत होकर वह गुरुओं की भी हत्या कर डालता है। क्रोध में आकर वह अपनी कठोर वाणी से कल्याणकर्ता व्यक्ति का भी तिरस्कार कर देता है।
क्रोधी व्यक्ति अपनी माता, अपने पिता, पुत्र, भाई व मित्र को भी मार डालता है और क्रोध से ही स्वामी तथा अपने सहोदर भाई को भी वह मार डालता है।

क्रोध में पागल व्यक्ति अवध्य लोगों की हत्या कर देता है और जो वध करने योग्य है, उसकी पूजा करने लगता है। और तो और वह क्रोध में आकर अपने-आपको भी मार डालता है।

क्रोध क्षुद्रता का लक्षण है। क्षुद्र व्यक्ति ही प्रायः क्रोध का शिकार होते हैः---

उत्तम प्रकृति वालों को क्षणभर के लिए क्रोध आता है। मध्यम कोटि वाले व्यक्ति को दो घडियों तक क्रोध आता है। अधम कोटि के व्यक्ति दिन-रात क्रोध करते हैं और चाण्डाल पुरुष में मृत्युपर्यन्त क्रोध रहता है।

क्रोध के इन्हीं दुष्परिणामों को देखकर संयमी पुरुषों ने क्रोध की निन्दा की हैः---
इस लोक में तथा परलोक में उत्तम परम कल्याण को चाहने वाले मनस्वी लोगों ने क्रोध के इन सभी दोषों को देखकर ही क्रोध को जीता है।

जो मनुष्य उत्पन्न हुए क्रोध को प्रज्ञा द्वारा शान्त कर देता है, उस तेजस्वी पुरुष को तत्त्व-दर्शी लोग विद्वान् कहते हैं।

महात्मा बुद्ध ने क्रोध के बारे में कहा थाः
जो बढे हुए क्रोध को रथ की तरह थाम ले, उसे मैं सारथि कहता हूँ। दूसरे लोग मात्र लगाम पकडने वाले हैं।

शरीर को विक्षोभ से सुरक्षित रखें, उसे संयम में रखे, शरीर द्वारा दुष्कर्मों को छोडकर शरीर के द्वारा सत्कर्म करें।

वाणी को विक्षोभ से बचाए, वाणी को संयम में रखे। वाणी के दोषों को छोडकर वाणी से सद्वचन बोले।

मन को विक्षोभ से बचाए, मन को संयम में रखे। मन के दोषों को छोडकर मन से सत् चिन्तन करें।

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