Wednesday, 18 June 2014

अपने शत्रु और मित्र हम स्वयं हैं|

सुख की खोज हमारे जीवन का लक्ष्य नहीं है| हमारा एकमात्र लक्ष्य है -- परब्रह्म परमेश्वर को खोजना व उन्हें व्यक्त करना| यही भगवान की सेवा है|
हानि-लाभ, सुख-दुःख और जन्म-मरण ------ इन सब का कारण हमारे स्वयं के विचारों व भावों के अतिरिक्त और कोई नहीं है| हमारे विचार, सोच और भाव ही हमारे कर्म हैं|
ये सब मायावी दलदल है| जितना निकलने का प्रयास करते हैं, उतना ही फँसते जाते हैं| दूसरा कोई हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता| अपने शत्रु और मित्र हम स्वयं हैं|
हर संकल्प, हर इच्छा या कामना पूर्ण अवश्य होती है पर साथ में दुःखदायी कर्मों की सृष्टि भी कर देती है| ये ही पाप-पुण्य हैं| सृष्टि की रचना ही ऐसी है|
हमारे मनीषियों ने काम (कामना), क्रोध, लोभ, मोह, मद (अहंकार) और मत्सर्य (ईर्ष्या) को नर्क के द्वार बतलाये हैं, जो सत्य है|
अतः हमारा हर संकल्प ---- शिव संकल्प हो| समष्टि के प्रति कल्याण की शुभ कामना ही हमारा कल्याण करेगी|
इस मायावी दलदल से निकलने का एक ही मार्ग है और वह है ---- परमात्मा को समपर्ण, पूर्ण समर्पण|
वहीँ यह भाव काम आता है ------ "वयं तव", यानि हम तुम्हारे हैं|
अपने अच्छे-बुरे सब कर्म भगवान को बापस सौंप दो| उन्हें ही जीवन का कर्ता बनाओ| किसी के प्रति द्वेष, घृणा और क्रोध मत रखो| सबके कल्याण की कामना करो, उनकी शरण लो और उन्हें ही समर्पित होने की साधना करो| कल्याण होगा| हमारा आश्रय भगवान ही हैं| उन्हें किसी भी नाम से पुकारो| वे सदा हमारे ह्रदय में हैं और हम सदा उनके ह्रदय में हैं| यह सारा ब्रह्मांड हमारा घर है और सारी सृष्टि हमारा परिवार| यह उन्हीं की अभिव्यक्ति है और हम उन्हीं के हैं|
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय |

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