यदि आनन्द चाहते हो तो सहज हो जाओ, अभिमान और हीनता दोनों से ही परे हो जाओ। सुख-दु:ख, मान-अपमान, दिन-रात, धूप-छाँव, जीवन-मृत्यु, यह सब एक ही सिक्के के दो पहलू हैं; यदि तुम किसी एक से प्रेम करते हो तो अप्रत्यक्ष रुप से तुमने दूसरे पहलू को भी चुन लिया है क्योंकि केवल एक को चुनने की स्वतन्त्रता हमारे पास है ही नहीं। जीवन के लिये भी आत्म तत्व और शरीर दोनों की ही आवश्यकता है, हम केवल शरीर चुनें या केवल आत्मा तो जीवन कैसे संभव है ? हमारे पास एक ही स्वतन्त्रता है कि हम इन सबको सहज रुप से ले सकते हैं और अपने जीवन में सभी प्रकार की घटनाओं के घटते हुए भी अपने आनन्द में निमग्न रह सकते हैं। "सुख" की चाह में हम नये-नये दु:खों को न्यौता देते रहते हैं। हर लौकिक सुख अपने साथ एक नया दु:ख भी लायेगा, वह अकेला आ ही नहीं सकता। मानव स्वभाव है कि जो हमें प्रिय लगता है हम केवल उस पहलू को ही देखना चाहते हैं और केवल उसी की सत्ता स्वीकार करना चाहते हैं, उसके दूसरे पहलू से हम आँखें बंद कर लेते हैं परन्तु इससे दूसरे पक्ष की सत्ता समाप्त नहीं हो जाती। हम केवल जीवन के बारे में ही सोचते हैं, मृत्यु के नहीं। मृत्यु से हम आँखें बंद कर लेना चाहते हैं क्योंकि यह हमें भय प्रदान करती है कि हमारे इस "सुखी" जीवन का अंत हो जायेगा सो हम मृत्यु की चर्चा भी नहीं करते जबकि मृत्यु से बड़ा कोई सत्य है ही नहीं। जो मृत्यु के विषय में सोचेगा, वो बैचेनी से भर जायेगा और तब ही उसे लगन लगेगी जीवन की, आनन्द की। जीवन के बारे में सोचो तो मृत्यु से भय लगने लगता है किन्तु यदि मृत्यु के बारे में किंचित भी मनन करो तो जीवन जीने की कला आ जाती है। म्रुत्यु का चिंतन ही सिद्धार्थ को "बुद्ध" बना देता है। मृत्यु का चिंतन आपको पापों से दूर कर देता है, म्रुत्यु का चिंतन श्रीहरि की ओर बड़ी ही तीव्र गति से ले जाता है। मृत्यु का चिंतन आपको इस संसार में एक "यात्री" के समान रहना सिखा देता है और आपको सदैव स्मरण कराता रहता है कि "तू" कौन ? तेरा "कौन" ?
सुख-दु:ख हमारे मन की दो स्थितियाँ हैं, सत्य तो यह है कि श्रीहरि से मिलन से बड़ा न तो कोई सुख है और न ही दु:ख। संसार की प्रत्येक अनुकूल स्थिति में भी दु:ख छिपा हुआ है। हम स्वप्नदर्शी हो गये हैं सो हम अपने को प्रिय अनुभव होने वाले केवल एक ही पहलू को देखते हैं। हम सहज हो जायें, हम तो यात्री हैं, जो जैसा दृश्य आवे, उसका आनन्द लें, हमें तो "चलना" है, केवल यही स्मरण रहे कि दृश्यों में इतना न उलझ जावें कि अपनी यात्रा को ही विराम दे दें। तुम धन्य हो प्रभु ! कैसे-कैसे नयनाभिराम दृश्य ! कैसी-कैसी तुमहारी रचनायें ! हे मेरे जीवन सर्वस्व ! मेरे प्राणाधार ! हे अकारणकरुणावरुणालय ! इस जीवनपथ पर तुम्हारी अनुभूति अपने सहयात्री के रुप में होती रहे जो केवल इसलिये मेरे साथ है कि मैं अपने को अकेला न समझूँ और इस यात्रा को स्थगित न कर दूँ ; मेरे स्वामी को मेरी बहुत चिंता है, वे चाहते हैं कि मैं यथाशीघ्र अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लूँ। क्लान्त होने पर वे मुझसे तनिक विश्राम की भी कह देते हैं और कैसी प्रेम भरी मुस्कान से मेरी ओर देखते हैं, उनके देखते ही सारी थकान क्षण भर में मिट जाती है, नया उत्साह, नयी उमंग और मेरे ठाकुर का संग ! मेरे साथ वे हैं तो अब क्या दुर्लभ है ? जब दुर्लभ ही सुलभ है तो अब चाहूँ तो क्या ? लक्ष्य ? कौन सा लक्ष्य ? अब क्या रह गया ? अब तो जो यात्रा है वह केवल संग रहने की यात्रा है, आनन्द की यात्रा है, आनन्द के लिये चलना है, रुकना है। अब भाषा की आवश्यकता कहाँ ? बस निहारना है, हमने कहा ? उन्होंने कहने से पहले सुन लिया ! वे स्नेहासिक्त तिरछी चितवन से मुस्करा दिये, समझने को भी अब कुछ नहीं बचा। कौन समझे ? कौन बचा है ? तू मुझमें, मैं तुझमें प्रियतम, और रहा अब परिचय क्या ?
सुख-दु:ख हमारे मन की दो स्थितियाँ हैं, सत्य तो यह है कि श्रीहरि से मिलन से बड़ा न तो कोई सुख है और न ही दु:ख। संसार की प्रत्येक अनुकूल स्थिति में भी दु:ख छिपा हुआ है। हम स्वप्नदर्शी हो गये हैं सो हम अपने को प्रिय अनुभव होने वाले केवल एक ही पहलू को देखते हैं। हम सहज हो जायें, हम तो यात्री हैं, जो जैसा दृश्य आवे, उसका आनन्द लें, हमें तो "चलना" है, केवल यही स्मरण रहे कि दृश्यों में इतना न उलझ जावें कि अपनी यात्रा को ही विराम दे दें। तुम धन्य हो प्रभु ! कैसे-कैसे नयनाभिराम दृश्य ! कैसी-कैसी तुमहारी रचनायें ! हे मेरे जीवन सर्वस्व ! मेरे प्राणाधार ! हे अकारणकरुणावरुणालय ! इस जीवनपथ पर तुम्हारी अनुभूति अपने सहयात्री के रुप में होती रहे जो केवल इसलिये मेरे साथ है कि मैं अपने को अकेला न समझूँ और इस यात्रा को स्थगित न कर दूँ ; मेरे स्वामी को मेरी बहुत चिंता है, वे चाहते हैं कि मैं यथाशीघ्र अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लूँ। क्लान्त होने पर वे मुझसे तनिक विश्राम की भी कह देते हैं और कैसी प्रेम भरी मुस्कान से मेरी ओर देखते हैं, उनके देखते ही सारी थकान क्षण भर में मिट जाती है, नया उत्साह, नयी उमंग और मेरे ठाकुर का संग ! मेरे साथ वे हैं तो अब क्या दुर्लभ है ? जब दुर्लभ ही सुलभ है तो अब चाहूँ तो क्या ? लक्ष्य ? कौन सा लक्ष्य ? अब क्या रह गया ? अब तो जो यात्रा है वह केवल संग रहने की यात्रा है, आनन्द की यात्रा है, आनन्द के लिये चलना है, रुकना है। अब भाषा की आवश्यकता कहाँ ? बस निहारना है, हमने कहा ? उन्होंने कहने से पहले सुन लिया ! वे स्नेहासिक्त तिरछी चितवन से मुस्करा दिये, समझने को भी अब कुछ नहीं बचा। कौन समझे ? कौन बचा है ? तू मुझमें, मैं तुझमें प्रियतम, और रहा अब परिचय क्या ?
No comments:
Post a Comment