गायत्री मंत्र :-
ओ३म् भूर्भुवः स्वः । तत्सवितुर्वरेण्यम् भर्गो देवस्य धीमहि । धीयो यो नः प्रचोदयात् ।। [यजु०३६/३]
(ओ३म्) यह अोंकार शब्द परमेश्वर का सर्वोत्तम नाम है, क्योंकि इस में जो अ,उ,म् तीन अक्षर मिलकर एक (अो३म्) समुदाय हुआ है । इस एक नाम से परमेश्वर के बहुत से नाम आते हैं , जैसे
अ+उ३+म् =अो३म्
अकार (अ) से ---- विराट,अग्नि अौर विश्वादि ।
उकार (उ) से ---- हिरण्यगर्भ ,वायु अौर तैजसादि ।
मकार (म) से ---- ईश्वर,आदित्य अौर प्राज्ञादि ।
(भूरिति वै प्राणः) यः प्राणयति चराचर जगत् स भूः स्वयम्भूरीश्वरः
जो सब जगत के जीवन का आधार , प्राण से भी प्रिय अौर स्वयम्भू है उस प्राण का वाचक होने से 'भूः' परमेश्वर का नाम है ।
(भुवरित्यपानः) यः सर्वं दुखमपानयति सोपानः
जो सब दुखों से रहित ,जिसके संग से जीव सब दुखों से छूट जाते हैं इसलिये उस परमेश्वर का नाम 'भुवः' है ।
(स्वरिति व्यानः) यो विविधं जगद व्यानयति व्याप्नोति स व्यानः
जो नानाविध जगत में व्यापक हो के सब का धारण करता है इसलिये उस परमेश्वर क नाम 'स्वः' है ।
ये तीनों वचन तैत्तिरीय आरण्यक [प्रपा०।अनु०५] के हैं ।
(सवितुः) यः सुनोत्युत्पादयति सर्वं हगत् स सविता तस्य
जो सब जगत् का उत्पादक अौर सब ऐश्वर्य का दाता है ।
(देवस्य) यो दीव्यति दीव्यते वा स देवः
जो सब सुखोंकादेने हारा जिसकी प्राप्ति की कामना सब करते हैं उस परमात्मा का जो
(वरेण्यम्) वत्तुर्मर्हम्
स्विकार करने योग्य अतिश्रेष्ठ
(भर्गः) शुद्धस्वरूपम्
शुद्धस्वरूप अौर पवित्र करने वाला चेतन ब्रह्म स्वरूप है ।
(तत्) उसी परमात्मा के स्वरूप को हम लोग
(धीमहि) धरेमहि
धारण करें ।किस प्रयोजन के लिये कि ,
(यः) जगदीश्वरः
जो सविता देव परमात्मा
(नः) अस्माकम्
हमारी
(धियः) बुद्धिः
बुद्धियों को
(प्रचोदयात्) प्रेरयेत्
प्रेरणा करे अर्थात बरे कर्मों से छुड़ा कर अच्छे कामों में प्रवृत्त करे ।
भाष्य :- हे सच्चिदानंदस्वरूप ! हे नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभाव ! हे अज निरंजन निर्विकार ! हे सर्वांतर्यामिन् ! हे सर्वाधार जग्तपते सकलजगदुत्पादक ! अनादे विश्वम्भर सर्वव्यापिन् ! हे करुणामृतवारिधे ! सवितुर्देवस्य तव यदों भूर्भुवः स्वर्वरेण्यम् भर्गोस्ति तद्वयम् धीमहि दधीमहि धरेमहि ध्यायेम वा कस्मै प्रयोजनायेत्यत्राह । हे भगवन् ! यः सविता देवः परमेश्वरो भवानस्माकम् धियः प्रचोदयात् । स एवास्माकम् पूज्य उपासनीय इष्टदेवो भवतु नातोन्यम् भवत्तुल्यम् भवतोधिकम् च कंचित् कदाचिन्मन्यामहे ।
हे मनुष्यों ! जो सब समर्थों में समर्थ सच्चिदानंदनन्तस्वरूप,नित्य शुद्ध, नित्य बुद्ध, नित्य मुक्तस्वभाव वाला ,
कृपा सागर , ठीक ठीक न्याय करनेहारा, जन्ममरणादि क्लेशरहित, आकार रहित , सब के घट घट का जानने वाला ,सब का धर्ता, पिता,उत्पादक,आन्नादि से विश्व का पोषण करने हारा, सकल ऐश्वर्ययुक्त्त जगत् का निर्माता , शुद्धस्वरूप अौर जो प्राप्ति की कामना करने योग्य है उस परमात्मा का जो शद्धचेतनस्वरूप है उसी को हम धारण करें । इस प्रयोजन के लिये कि वह परमेश्वर हमारे आत्मा अौर बुद्धियों का अन्तर्यामीस्वरूप हमको दुष्टाचार अधर्मयुक्त मार्ग से हटा के श्रेष्ठाचार सत्य मार्ग में चलावें, उसको छोड़कर दुसरे किसी वस्तु का ध्यान हम लोग नहीं करें । क्योंकि न कोई उसके तुल्य न कोई उसके अधिक है । वही हमारा पिता राजा न्यायधीश अौर सब सुखों का देने हारा है ।
ओ३म् भूर्भुवः स्वः । तत्सवितुर्वरेण्यम् भर्गो देवस्य धीमहि । धीयो यो नः प्रचोदयात् ।। [यजु०३६/३]
(ओ३म्) यह अोंकार शब्द परमेश्वर का सर्वोत्तम नाम है, क्योंकि इस में जो अ,उ,म् तीन अक्षर मिलकर एक (अो३म्) समुदाय हुआ है । इस एक नाम से परमेश्वर के बहुत से नाम आते हैं , जैसे
अ+उ३+म् =अो३म्
अकार (अ) से ---- विराट,अग्नि अौर विश्वादि ।
उकार (उ) से ---- हिरण्यगर्भ ,वायु अौर तैजसादि ।
मकार (म) से ---- ईश्वर,आदित्य अौर प्राज्ञादि ।
(भूरिति वै प्राणः) यः प्राणयति चराचर जगत् स भूः स्वयम्भूरीश्वरः
जो सब जगत के जीवन का आधार , प्राण से भी प्रिय अौर स्वयम्भू है उस प्राण का वाचक होने से 'भूः' परमेश्वर का नाम है ।
(भुवरित्यपानः) यः सर्वं दुखमपानयति सोपानः
जो सब दुखों से रहित ,जिसके संग से जीव सब दुखों से छूट जाते हैं इसलिये उस परमेश्वर का नाम 'भुवः' है ।
(स्वरिति व्यानः) यो विविधं जगद व्यानयति व्याप्नोति स व्यानः
जो नानाविध जगत में व्यापक हो के सब का धारण करता है इसलिये उस परमेश्वर क नाम 'स्वः' है ।
ये तीनों वचन तैत्तिरीय आरण्यक [प्रपा०।अनु०५] के हैं ।
(सवितुः) यः सुनोत्युत्पादयति सर्वं हगत् स सविता तस्य
जो सब जगत् का उत्पादक अौर सब ऐश्वर्य का दाता है ।
(देवस्य) यो दीव्यति दीव्यते वा स देवः
जो सब सुखोंकादेने हारा जिसकी प्राप्ति की कामना सब करते हैं उस परमात्मा का जो
(वरेण्यम्) वत्तुर्मर्हम्
स्विकार करने योग्य अतिश्रेष्ठ
(भर्गः) शुद्धस्वरूपम्
शुद्धस्वरूप अौर पवित्र करने वाला चेतन ब्रह्म स्वरूप है ।
(तत्) उसी परमात्मा के स्वरूप को हम लोग
(धीमहि) धरेमहि
धारण करें ।किस प्रयोजन के लिये कि ,
(यः) जगदीश्वरः
जो सविता देव परमात्मा
(नः) अस्माकम्
हमारी
(धियः) बुद्धिः
बुद्धियों को
(प्रचोदयात्) प्रेरयेत्
प्रेरणा करे अर्थात बरे कर्मों से छुड़ा कर अच्छे कामों में प्रवृत्त करे ।
भाष्य :- हे सच्चिदानंदस्वरूप ! हे नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभाव ! हे अज निरंजन निर्विकार ! हे सर्वांतर्यामिन् ! हे सर्वाधार जग्तपते सकलजगदुत्पादक ! अनादे विश्वम्भर सर्वव्यापिन् ! हे करुणामृतवारिधे ! सवितुर्देवस्य तव यदों भूर्भुवः स्वर्वरेण्यम् भर्गोस्ति तद्वयम् धीमहि दधीमहि धरेमहि ध्यायेम वा कस्मै प्रयोजनायेत्यत्राह । हे भगवन् ! यः सविता देवः परमेश्वरो भवानस्माकम् धियः प्रचोदयात् । स एवास्माकम् पूज्य उपासनीय इष्टदेवो भवतु नातोन्यम् भवत्तुल्यम् भवतोधिकम् च कंचित् कदाचिन्मन्यामहे ।
हे मनुष्यों ! जो सब समर्थों में समर्थ सच्चिदानंदनन्तस्वरूप,नित्य शुद्ध, नित्य बुद्ध, नित्य मुक्तस्वभाव वाला ,
कृपा सागर , ठीक ठीक न्याय करनेहारा, जन्ममरणादि क्लेशरहित, आकार रहित , सब के घट घट का जानने वाला ,सब का धर्ता, पिता,उत्पादक,आन्नादि से विश्व का पोषण करने हारा, सकल ऐश्वर्ययुक्त्त जगत् का निर्माता , शुद्धस्वरूप अौर जो प्राप्ति की कामना करने योग्य है उस परमात्मा का जो शद्धचेतनस्वरूप है उसी को हम धारण करें । इस प्रयोजन के लिये कि वह परमेश्वर हमारे आत्मा अौर बुद्धियों का अन्तर्यामीस्वरूप हमको दुष्टाचार अधर्मयुक्त मार्ग से हटा के श्रेष्ठाचार सत्य मार्ग में चलावें, उसको छोड़कर दुसरे किसी वस्तु का ध्यान हम लोग नहीं करें । क्योंकि न कोई उसके तुल्य न कोई उसके अधिक है । वही हमारा पिता राजा न्यायधीश अौर सब सुखों का देने हारा है ।
No comments:
Post a Comment