जब हिरण्यकश्यप ने क्रोधावेश मेँ स्तम्भ पर तलवार का प्रहार किया तब श्री नृसिँह भगवान "गुरु" "गुरु" बोलते हुए उस स्तम्भ से प्रकट हुए और हिरण्यकश्यप को अपनी गोद मे बिठाकर कहा कि यह न रात है न दिन , न धरती है न आकाश , न घर मेँ न बाहर , न अस्त्र है न शस्त्र बल्कि देहली पर अपने नाखून से चीर कर मार डाला ।
मनुष्य के दुःख कारण उसका देहाभिमान है । शरीर घर है , शरीर घर से रहने वाली जीभ देहली है , उसे न तो अन्दर कहा जा सकता है और न बाहर । यदि अभिमान को मारना है तो जीभ पर ठाकुरजी का नाम रखना चाहिए ।
नृसिँह भगवान "गुरु-गुरु" का उच्चारण करते हुए कहा कि गुरु के बिना भगवान के दर्शन शक्य नहीँ हैँ ।
हर प्रकार की साधना की जाए विवेक वैराग्य भी हो , षटसंपत्ति आदि भी होँ किन्तु जब तक किसी संत की , गुरु की कृपा नहीँ होती तब तक मन शुद्ध नहीँ हो पाता और भगवान की प्राप्ति भी नहीँ हो पाती । हम चाहे जितनी साधना करे किन्तु संत की कृपा होने पर ही मन हमेशा के लिए शुद्ध हो सकता है । मन तो बड़े बड़े साधुओँ को भी सताता है । वह बड़ा चंचल है । इसलिए मन शुद्धि के बिना ईश्वर का साक्षात्कार नहीँ हो सकता ।
मल विक्षेप , आवरण आदि से मन कलुषित और मलिन होता है । जिस प्रकार मलिन या चंचल जल मेँ प्रतिबिम्ब दिखाई नहीँ देता , उसी प्रकार मलिन , चंचल और आवरणयुक्त मन मेँ परमात्मा का प्रतिबिम्ब दिखाई नहीँ देता । अतः किसी संत का , गुरु का आश्रय लेना चाहिए , । गुरु की कृपा के बिना हृदय शुद्ध नहीँ हो सकता । साधना करने पर भी गुरु की कृपा के बिना काम नहीँ बनेगा , मात्र साधन साधना से हृदय शुद्ध नहीँ हो सकता है । नृसिँह भगवान भी "गुरु-गुरु" कहते हुए यह सन्देश दिया कि सबसे पहले गुरु बनाओ क्योँकि गुरु की कृपा के बिना भगवान के दर्शन नहीँ हो सकता ।।
मनुष्य के दुःख कारण उसका देहाभिमान है । शरीर घर है , शरीर घर से रहने वाली जीभ देहली है , उसे न तो अन्दर कहा जा सकता है और न बाहर । यदि अभिमान को मारना है तो जीभ पर ठाकुरजी का नाम रखना चाहिए ।
नृसिँह भगवान "गुरु-गुरु" का उच्चारण करते हुए कहा कि गुरु के बिना भगवान के दर्शन शक्य नहीँ हैँ ।
हर प्रकार की साधना की जाए विवेक वैराग्य भी हो , षटसंपत्ति आदि भी होँ किन्तु जब तक किसी संत की , गुरु की कृपा नहीँ होती तब तक मन शुद्ध नहीँ हो पाता और भगवान की प्राप्ति भी नहीँ हो पाती । हम चाहे जितनी साधना करे किन्तु संत की कृपा होने पर ही मन हमेशा के लिए शुद्ध हो सकता है । मन तो बड़े बड़े साधुओँ को भी सताता है । वह बड़ा चंचल है । इसलिए मन शुद्धि के बिना ईश्वर का साक्षात्कार नहीँ हो सकता ।
मल विक्षेप , आवरण आदि से मन कलुषित और मलिन होता है । जिस प्रकार मलिन या चंचल जल मेँ प्रतिबिम्ब दिखाई नहीँ देता , उसी प्रकार मलिन , चंचल और आवरणयुक्त मन मेँ परमात्मा का प्रतिबिम्ब दिखाई नहीँ देता । अतः किसी संत का , गुरु का आश्रय लेना चाहिए , । गुरु की कृपा के बिना हृदय शुद्ध नहीँ हो सकता । साधना करने पर भी गुरु की कृपा के बिना काम नहीँ बनेगा , मात्र साधन साधना से हृदय शुद्ध नहीँ हो सकता है । नृसिँह भगवान भी "गुरु-गुरु" कहते हुए यह सन्देश दिया कि सबसे पहले गुरु बनाओ क्योँकि गुरु की कृपा के बिना भगवान के दर्शन नहीँ हो सकता ।।
No comments:
Post a Comment