Sunday, 27 April 2014

मैं सभी को प्रेम से देखूँ

हे प्रभो ।आप मुझे भी मेरी कमियों का विदारण करके दृढ़ बनाइये । जब कमियों को दूर करके हमारा जीवन कुछ अच्छा बनता है ।तब हम चाहते हैं की  धीमे - धीमे इस इच्छावाला व्यक्ति यह अनुभव करता है की मेरी यह इच्छा तभी पूर्ण होगी जब मैं प्रेम से देखूँगा तोह लोग भी मुझे प्रेम से देखने लगेंगे और यह अनुभव करेंगे की कल्याण तभी होगा जब हम मित्रस्य = मित्र की  दृष्टि  'सभी प्रेम से देखने लगें' समाज का कल्याण इसी में है । मानव- समाज की सबसे बड़ी कमी परस्पर स्नेह का न होना ही है। स्नेह ही समाज को दृढ़ बनता है । इसका अभाव समाज को तोड़ फोड़ देता है । प्रभु का ध्यान करनेवाला 'दध्यङ्' सभी में प्रभु का दर्शन करता है, अतः सभी से स्नेह करता है। यह इस 'स्नेह करने' के सिद्धान्त से कभू डगमगाता नहीं, यह ' आथवर्ण ' न विचलित होनेवाले होकर इसका पालन करता है ।


भावार्थ -- मैं सभी को प्रेम से देखूँ और सभी सबको प्रेम से देखें।।

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