सबको माता-पिता की सेवा का लाभ उठाना चाहिये । सेवा से अभिप्राय है – तन, मन, धनद्वारा आदर से सेवा-शुश्रषापूर्वक उनको सुख पहुचाना, उनकी आज्ञा का पालन करना, उनके संकेत और मन की रूचि के अनुसार आचरण करना तथा उनके चरणों में नमस्कार करना; क्योकि बालक के पालन-पोषण और विवाह (शादी) आदि कर्यों में माता-पिता महान क्लेश सहते है तथा मबालकों के लिये अपने माता-पिता की सेवा करना परम कर्तव्य और अत्यंत आवश्यक है । इनकी सेवा करने से महान लाभ और न करने से महान हानि है । जिनके माता-पिता जीवित हैं, चाहे उनकी कितनी भी उम्र क्यों न हों, माता-पिता के आगे वे बालक ही है । अपना सर्वस्व पुत्र को देकर जाते है; ऐसे परम हितेषी माता-पिता को त्याग देते है अथवा उनकी सेवा नहीं करता, वह घोर नरकों में जाता है । एक भाई रोज हज़ार रूपये कमाता है और आज हज़ार रुपयों की थैली उसके घर आ गयी, तो कलके लिये दो हज़ार की चेष्टा करता है, पर थोड़ी देर के लिए समझ लीजिये की कल उसकी मृत्यु होनेवाली है और यह बात स्पष्ट है की मृत्यु होने के बाद उसका इस धन से कुछ भी सम्बन्ध नहीं रहता और मृत्यु बिना खबर दिए ही अचानक आती है और सम्पूर्ण धन को खर्च कर देनेतक लाख प्रयत्न करने पर भी किसी प्रकार मृत्यु से वह छुट नही सकता, उसकी मृत्यु अवश्यमेव है । ऐसी हालत में जिन पढ़े-लिखे तथा प्रतिष्ठित टाईटल पाये हुए मनुष्यों का धनसंचय करना ही ध्येय है, उनकी शहद इक्कठा करनेवाली मक्खियों से भी बढ़कर अज्ञता कही जाय तो इसमें क्या अत्युक्ति है देवताओं में श्रद्धा रखों और जब किसी देवस्थान के सामने से निकलों, देवताओं को अवश्य मस्तक झुका कर प्रणाम करो । देवताओं की कृपा से मन प्रसन्न रहता है ।
सदा संतुष्ट रहों । जो कुछ भोजन, वस्त्र या दूसरी वस्तुएँ तुम्हे मिलती हैं, उसको पाकर संतुष्ट और प्रसन्न रहो । दूसरों की वस्तुओं को देख कर ललचाओं मत । ईश्वरकी हम सब पर बड़ी भारी दया है । हमलोगों के ह्रदय में कभी ईश्वर के स्वरुप की स्मृति होती है, कभी उनके नाम की स्मृति होती है, यह ईश्वर की विशेष दया है । यों तो ईश्वर की पद-पद पर दया है, किन्तु इस तरह के भाव पैदा होते हैं यह विशेष दया है । अपने मन में कभी बुरी भावना हो तो उसे अपने स्वाभाव का दोष समझना चाहिये । अच्छी भावना हो तो उसे ईश्वर की दया समझे । तभी मनुष्य बुरे काम से बाख सकता है, अच्छे काम में लग सकता है ।
सदा संतुष्ट रहों । जो कुछ भोजन, वस्त्र या दूसरी वस्तुएँ तुम्हे मिलती हैं, उसको पाकर संतुष्ट और प्रसन्न रहो । दूसरों की वस्तुओं को देख कर ललचाओं मत । ईश्वरकी हम सब पर बड़ी भारी दया है । हमलोगों के ह्रदय में कभी ईश्वर के स्वरुप की स्मृति होती है, कभी उनके नाम की स्मृति होती है, यह ईश्वर की विशेष दया है । यों तो ईश्वर की पद-पद पर दया है, किन्तु इस तरह के भाव पैदा होते हैं यह विशेष दया है । अपने मन में कभी बुरी भावना हो तो उसे अपने स्वाभाव का दोष समझना चाहिये । अच्छी भावना हो तो उसे ईश्वर की दया समझे । तभी मनुष्य बुरे काम से बाख सकता है, अच्छे काम में लग सकता है ।
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