Sunday, 25 May 2014

तब बहुत दुःख होता है।

संसार की वस्तुओं का त्यागपूर्वक उपभोग करो, किसी के धन का लोभ मत करो। यह धन किसका है ? यह धन परमात्मा का ही है।

प्रकृति का स्वभाव त्याग का है, संग्रह का नहीं। जो समझदार व्यक्ति संसार की वस्तुओं का उपभोग तो करता है, किन्तु उसमें लिप्त नहीं होता, वह सुखी होता है। जो व्यक्ति उपभोग भी करता हो और कालाबाजारी अर्थात् जमा करता हो तो वह कभी सुखी नहीं हो सकता। ये वस्तुएँ एक दिन हमारे पास वास्तव में नहीं होंगी, यह विचार कर मन को त्यागी बनाना चाहिए। 

जिन वस्तुओं का हम स्वयं त्याग कर देते हैं, उसमें आनन्द होता है। जो हमें मजबूरी में त्यागना पडता है उसमें दुःख होता है।

एक धर्म-सभा हो रही थी। धर्म-भाव से प्रेरित होकर एक सज्जन ने 5000 रुपए दान कर दिए। सभा के अधिकारियों ने उसकी उद्घोषणा की और उसकी प्रशंसा की। दान देकर वह व्यक्ति बहुत खुश था। 

एक दिन वही व्यक्ति रेलवे स्टेशन पर रेल की प्रतीक्षा कर रहा था। अचानक उसकी जेब कट गई। वह रोने लगा। लोगों ने पूछा क्यों रहे हो ? उसने उत्तर दिया कि जेब कट गई। लोगों ने पूछा जेब में कितने रुपए थे? उसने कहा कि पाँच सौ रुपए थे। पूछने वाला उसका परिचित था। उसने कहा, भले आदमी एक सप्ताह पहले तुमने 5000 हजार दान कर दिए, तब तुम्हें कुछ नहीं हुआ और आज तुम बच्चों की तरह फूट-फूटकर रो रहे हो ? वह बोला 5000 हजार रुपए मैंने स्वेच्छा से दान किए थे और उसे छोडने के लिए तैया था, किन्तु आज जो 500 सौ गए हैं, वह मैं देने और छोडने के लिए तैयार नहीं था। ये मुझसे बलात् छीने गए हैं।

परिणाम यह निकला कि जब हम स्वयं देने के लिए तैयार होते हैं तो दुःख नहीं होता, अपितु सुख होता है, किन्तु जब हम छोडने के लिए तैयार नहीं होते, तब हमसे वह बलात् (जबरदस्ती) छीन लिया जाता है, तब बहुत दुःख होता है।

सुख देने में हैं जमा करने में नहीं। एक माँ अपने बच्चों को खिलाकर खुश होती है, खुद खाकर नहीं।

सरकारी अफसर को नौकरी पर सारी सुख-सुविधाएँ सरकार की ओर से मिलती हैं--बंगला, गाडी, अन्य सुविधाएँ। अफसर को पता है कि ये वस्तुएँ हमारी नहीं हैं, एक दिन हमें यहाँ से जाना पडेगा और जाते समय ये सारी सुख सुविधाएँ छोडनी पडेगी। इस विचार से अधिकारी सरकारी सुविधाओं का उपभोग करता है और जब भी उसे छोडना पडता है तब उसे दुःख नहीं होता। 

इसी प्रकार हमें संसार में रहना चाहिए। हम यहाँ यात्री हैं। यात्रा के बाद जैसे सीट और गाडी बहुत तेजी से छोडकर गाडी से उतर जाते हैं, वैसे ही मृत्यु के समय दुःखी नहीं होना चाहिए, अपितु नए स्थान, नए कार्य के लिए उत्साहित होना चाहिए, कि परमात्मा नई जिम्मेदारी देने वाला है, उसका हम स्वागत करें।

मन्त्र के अन्त में कहा, यह धन किसका है ? मन्त्र में ही उत्तर भी छिपा हुआ है। "क" नाम परमात्मा का है। उत्तर मिला कि यह सब धन परमात्मा का है। 

जो अपना नहीं है, उसे छोडने में दुःख क्यों ? यह तो परमात्मा का है। ऐसा सोच-विचार कर त्यागपूर्वक इस संसार में रहना चाहिए। यही संसार में रहने का तरीका है। जो ऐसे रहता है, उसकी सफलता पूर्वक सम्पन्न होती है। परमात्मा ऐसे लोगों से सन्तुष्ट होता है और उसे मुक्ति की ओर अग्रसर करता है।

सुख का यही सबसे बडा साधन है।

!!! हरि-ओम् तत् सत् !!!!

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