पकड लेना, घेर लेना, समेट लेना। हमारा जीवन परिग्रह का है। हम हर वस्तु को, चाहे हमारे काम की हो या न हो, पकडे बैठे हैं, किसी चीज को छोडने के लिए तैयार नहीं है।
"संग्रह" करना हमारा स्वभाव है। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि संग्रह करना, जमा करना मनुष्य का नैसर्गिक प्रवृत्ति है। एक सेठ थे, बडे साहूकार, बडी-बडी हवेलियाँ थी उनकी, परन्तु हुए रास्ते में एक बटन भी दीख जाता तो उठाकर जेब में डाल लेते
वैसे तो हर मनुष्य की कोई-न-कोई आवश्यकता होती है, परन्तु "परिग्रह" में जिस चीज की आवश्यकता न भी हो, उसे भी मनुष्य नहीं छोडता, उससे चिपटा रहता है, एक तरह से वह अपने को कबाडी बनाये रखता है। "अपरिग्रह" में जिस चीज की मनुष्य को आवश्यकता हो, उसे भी वह छोडने का प्रयास करता है, उसके बिना काम चल जाए---यह चाहता है।
रामचन्द्र जी ने लंका को जीतकर लंका वालों को ही दे दियाः
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अपरिग्रह का ऐसा उदाहरण पूरे संसार कहीं नहीं मिलेगा, भारत में ऐसा उदाहरण मिल तो जाएगा, किन्तु इसके मुकाबले का नहीं, या बहुत कम मिलेगा।
आज हमें जो पद (ओहदा) मिल जाता है, उसके साथ हम ऐसे जुड जाते है, जैसे हमारा जन्म-जन्मान्तर का सम्बन्ध हो और हम उस पर एकाधिकार कर लेते हैं। सभा, सोसाइटी, मन्दिर-मस्जिद, गुरुद्वारे, चर्चे आदि में एक बार मन्त्री या प्रधान बन जाएँ तो कुर्सियों से चिपक जाते हैं, छोडने का नाम नहीं लेते। इसलिए नियम बनाना पडता है कि कोई भी व्यक्ति तीन बार से अधिक मन्त्री या प्रधान नहीं बन सकता।
इस उदाहरण को पढिए और मनन कीजिए और हो सके तो अल्पांश में अपने जीवन में ग्रहण व धारण कीजिए।
श्री रामचन्द्र जी को आज राज्य दिया जाना था। राजतिलक की तैयारी हो रही थी। अगले दिन उन्हें सूचना दी गई कि राज्य नहीं, अब आपको वन में जाना है। वह भी एक, दो या पाँच-दश वर्ष नहीं, अपितु चौदह वर्ष के लिए। महर्षि वाल्मीकि लिखते हैं
राज्य लेते हुए और राज्य छोडते हुए रामचन्द्र जी के मुख पर कोई भेद नहीं आया। सिंहासन पर चढने का समाचार सुनकर वे आसमान पर नहीं चढ गे, राज्य प्राप्त करने की जगह 14 वर्ष वन जाने की बात सुनकर वे हाय-तोबा नहीं मचाने लगे।
यहाँ पर वाल्मीकि ने राम की उपमा सूर्य से दी है। जैसे सूर्य उदय और अस्त (उन्नति और अवनति) होते समय एक समान अरुण (लाल) रंग का होता है, ठीक वैसे राम राज्य मिलने पर बहुत ऊधम नहीं मचाये, न तो ढोल नगाडे बजाये, राज्य चले जाने पर भी कोई दुःख नहीं, कोई आन्दोलन नहीं, कोई तोड-फोड नहीं। राज्य गया तो गया, ऊपर वन भी जाना है और वह भी 14 वर्ष के लिए। ये ऊपर से और अधिक दण्ड की तरह था। लेकिन श्रीराम के चेहरे पर कोई शिकन नहीं। एक पल के लिए भी नहीं। सहर्ष तैयार हो गए।
श्रीरामचन्द्र जी ने लंका को जीता। जीतने के बाद रावण के भाई विभीषण को ही लंका का राज्य सौंप कर घर लौट आए। इसे ही "अपरिग्रह" कहते हैं।
एक बार सभी बोलिए जय श्रीराम.....
"संग्रह" करना हमारा स्वभाव है। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि संग्रह करना, जमा करना मनुष्य का नैसर्गिक प्रवृत्ति है। एक सेठ थे, बडे साहूकार, बडी-बडी हवेलियाँ थी उनकी, परन्तु हुए रास्ते में एक बटन भी दीख जाता तो उठाकर जेब में डाल लेते
वैसे तो हर मनुष्य की कोई-न-कोई आवश्यकता होती है, परन्तु "परिग्रह" में जिस चीज की आवश्यकता न भी हो, उसे भी मनुष्य नहीं छोडता, उससे चिपटा रहता है, एक तरह से वह अपने को कबाडी बनाये रखता है। "अपरिग्रह" में जिस चीज की मनुष्य को आवश्यकता हो, उसे भी वह छोडने का प्रयास करता है, उसके बिना काम चल जाए---यह चाहता है।
रामचन्द्र जी ने लंका को जीतकर लंका वालों को ही दे दियाः
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अपरिग्रह का ऐसा उदाहरण पूरे संसार कहीं नहीं मिलेगा, भारत में ऐसा उदाहरण मिल तो जाएगा, किन्तु इसके मुकाबले का नहीं, या बहुत कम मिलेगा।
आज हमें जो पद (ओहदा) मिल जाता है, उसके साथ हम ऐसे जुड जाते है, जैसे हमारा जन्म-जन्मान्तर का सम्बन्ध हो और हम उस पर एकाधिकार कर लेते हैं। सभा, सोसाइटी, मन्दिर-मस्जिद, गुरुद्वारे, चर्चे आदि में एक बार मन्त्री या प्रधान बन जाएँ तो कुर्सियों से चिपक जाते हैं, छोडने का नाम नहीं लेते। इसलिए नियम बनाना पडता है कि कोई भी व्यक्ति तीन बार से अधिक मन्त्री या प्रधान नहीं बन सकता।
इस उदाहरण को पढिए और मनन कीजिए और हो सके तो अल्पांश में अपने जीवन में ग्रहण व धारण कीजिए।
श्री रामचन्द्र जी को आज राज्य दिया जाना था। राजतिलक की तैयारी हो रही थी। अगले दिन उन्हें सूचना दी गई कि राज्य नहीं, अब आपको वन में जाना है। वह भी एक, दो या पाँच-दश वर्ष नहीं, अपितु चौदह वर्ष के लिए। महर्षि वाल्मीकि लिखते हैं
राज्य लेते हुए और राज्य छोडते हुए रामचन्द्र जी के मुख पर कोई भेद नहीं आया। सिंहासन पर चढने का समाचार सुनकर वे आसमान पर नहीं चढ गे, राज्य प्राप्त करने की जगह 14 वर्ष वन जाने की बात सुनकर वे हाय-तोबा नहीं मचाने लगे।
यहाँ पर वाल्मीकि ने राम की उपमा सूर्य से दी है। जैसे सूर्य उदय और अस्त (उन्नति और अवनति) होते समय एक समान अरुण (लाल) रंग का होता है, ठीक वैसे राम राज्य मिलने पर बहुत ऊधम नहीं मचाये, न तो ढोल नगाडे बजाये, राज्य चले जाने पर भी कोई दुःख नहीं, कोई आन्दोलन नहीं, कोई तोड-फोड नहीं। राज्य गया तो गया, ऊपर वन भी जाना है और वह भी 14 वर्ष के लिए। ये ऊपर से और अधिक दण्ड की तरह था। लेकिन श्रीराम के चेहरे पर कोई शिकन नहीं। एक पल के लिए भी नहीं। सहर्ष तैयार हो गए।
श्रीरामचन्द्र जी ने लंका को जीता। जीतने के बाद रावण के भाई विभीषण को ही लंका का राज्य सौंप कर घर लौट आए। इसे ही "अपरिग्रह" कहते हैं।
एक बार सभी बोलिए जय श्रीराम.....
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