--।। काल के जाल से कौन छूटते हैं ?।।--
गीता के अध्याय 7 के श्लोक 29 का अर्थ है कि जो मुझे (कि मैं काल हूँ तथा मेरी पूजा भी अति अश्रेष्ठ है ऐसे) तत्वज्ञान से जान लेते हैं तथा सम्पूर्ण अध्यात्म व सम्पूर्ण कर्म को तथा तत् ब्रह्म अर्थात् उस पूर्ण परमात्मा को जानते हैं वे मेरे द्वारा बताए इस ज्ञान के आश्रित हो कर दुःखदाई बुढ़ापा तथा मृत्यु से छूटने की कोशिश करते हैं भावार्थ है कि वे जन्म-मरण से पूर्ण रूप से छुटकारा चाहते हैं अर्थात् पूर्ण मोक्ष प्राप्त करने का ही प्रयत्न करते हैं। अध्याय 7 के श्लोक 30 में कहा है कि जो साधक मुझे ( ब्रह्म/काल ) तथा तीनों तापों (दुःखों को जो काल द्वारा जीव को पीड़ा दी जाती है) सहित जानता है और (अधियज्ञ) यज्ञों में प्रतिष्ठित पूर्णब्रह्म को जान कर हम दोनों के भेद को समझ कर वे फिर मुझे ( काल/ब्रह्म ) तत्व से जान कर कि मैं काल हूँ तथा पूर्ण परमात्मा ही पूर्ण मोक्ष दायक है फिर अंत समय में पूर्ण परमात्मा के भजन में मन को एकाग्र रखता है। इसलिए काल के दुःखों के डर के कारण काल जाल से निकल जाता है। {जैसे हम सतनाम जाप करते हैं उसमें काल (ब्रह्म) का जाप ऊँ भी है। जिसका जाप हम इस भाव से करते हैं कि हे सतपुरुष इस काल (ब्रह्म) के दुःख से बचाइऐ, इसका ऋण मुक्त हो जाए ताकि हमारा सदा के लिए इस काल (ज्योति निरंजन) से छुटकारा हो जाए तथा पूर्ण परमात्मा के भजन व पाने को मन लगाए रहते हैं। यदि काल (ज्योति निरंजन) के दुःख की भूल पड़ जाए तो जीव फिर भजन में आलस कर सकता है। इसलिए काल (ज्योति निरंजन) को तथा उस द्वारा जीवों को दी जा रही पीड़ा (कष्ट) व (अनुत्तमाम् गतिम) अति अश्रेष्ठ ( घटिया ) मुक्ति जो गीता अध्याय 7 के श्लोक 18 में कही है को जान कर जीव उस परमात्मा के आश्रित हो कर उसी पूर्ण ब्रह्म की भक्ति में चित्त को दृढ़ भाव से (एकाग्र चित्त से) अनन्य मन से रखता है अर्थात् विचलित नहीं होता।} पूर्ण ब्रह्म परमात्मा जो यज्ञों में प्रतिष्ठित (अधियज्ञ) है। अध्याय 3 के श्लोक 14,15 में पूर्ण विवरण है।
शंका - प्रभु प्रेमी पाठकों के मन में शंका उत्पन्न होगी कि जब ब्रह्म (काल) अपनी साधना को भी (अनुत्तमाम्) अति अश्रेष्ठ कह रहे हैं ( गीता अध्याय 7 श्लोक 18 ) तो फिर अपनी साधना करने को क्यों कह रहे हैं (गीता अध्याय 7 श्लोक 12 से 15) तथा तीनों गुणों (रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु, तमगुण शिव) की भक्ति करने वालों को हेय किसलिए कहा है?
शंका समाधान:- शास्त्रा अनुकूल भक्ति पवित्रा वेदों व पवित्रा गीता जी में वर्णित विधि (ओ3म् नाम का जाप उच्चारण करके स्मरण करने व धर्म, ध्यान, प्रणाम, हवन, ज्ञान ये पाँचों यज्ञ करने) से प्रारम्भ होती है। उससे ब्रह्मलोक में बने महास्वर्ग में एक कल्प या महाकल्प तक मोक्ष सुख प्राप्त होता है, परन्तु पाप कर्मों के दण्ड आधार से नरक तथा फिर चौरासी लाख प्रकार के प्राणियों के शरीर में कष्ट भी उठाना ही पड़ेगा। एक मानव शरीर फिर प्राप्त होगा। वे पुण्यात्माऐं जब मानव शरीर में होंगी और उन्हें कोई तत्वदर्शी संत पूर्ण परमात्मा (सतपुरुष) का ज्ञान बताएगा तो वे शीघ्र ही उस साधना पर लग जाती हैं, क्योंकि उनमें पिछले भक्ति संस्कार विद्यमान होते हैं तथा सत्य साधना करके पूर्ण मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं। अन्य देवताओं की पूजा से मोक्ष समय बहुत कम तथा नरक समय अधिक होता है तथा चैरासी लाख योनियों का कष्ट भी अधिक समय तक होता है। जैसे एक प्रकार के प्राणी (कुत्ते) के जन्म ही लगातार 20 हो जाऐं, फिर दूसरे प्राणी के रूप में जन्म भी अधिक होने के कारण अधिक कष्ट उठाते हैं। परन्तु मर्यादावत् ब्रह्म (काल) साधना करने वालों के प्रत्येक योनी के संस्कार वश कम जन्म होते हैं तथा चैरासी लाख प्रकार के प्राणियों का कर्म चक्र शीघ्र-शीघ्र भोगा जाता है। जैसे कुत्ते की मृत्यु 10 वर्ष में होती है, एक माता के गर्भ से बाहर आते ही मर जाता है। जैसे ऋषि सुखदेव जी का जीव मादा तोते के अण्डे में ही था, अण्डा खराब हो कर छूटकारा हो गया,नहीं तो तोतेकी आयु मनुष्य से भी अधिक होती है। इस प्रकार कष्टमय शरीरों से शीघ्र छुटकारा हो जाता है। अन्य देवताओं के साधकों को जब कभी मानव शरीर प्राप्त होता है तो वे फिर अपने पिछले संस्कार से बने स्वभाववश उन्हीं तीनों गुणों (रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु, तमगुण शिव आदि अन्य देवताओं) की तथा भूत-भैरवों व पितरों की ही पूजा करते हैं, कहने से भी नहीं मानते। प्रमाण पवित्र गीता अध्याय 16 श्लोक 4 से 20 तक तथा पवित्र गीता अध्याय 17 श्लोक 1 से 10 तक। जो साधक शास्त्र अनुकूल साधना पिछले जन्म में करते थे उनमें दो प्रकार के साधक बताए गये हैं,
(1) एक तो ब्रह्म साधक जो ओ3म् नाम मंत्र जाप व पाँचों यज्ञ किया करते थे, वे तो महास्वर्ग, नरक व अन्य प्राणियों के शरीर में कष्ट उठाते रहते हैं। उनके मानव जन्म भी लगातार एक से अधिक भी हो सकते हैं। यदि उन सर्व मानव जन्मों में भी पूर्ण (तत्वदर्शी) संत नहीं मिला फिर उपरोक्त सर्व स्थितियों से गुजरना पड़ता है। परन्तु सत्य साधना पर शीघ्र लग जाते हैं।
(2) दूसरी प्रकार के शास्त्र विधि अनुसार साधना करने वाले वे साधक हैं जो कभी किसी युग में पूर्ण परमात्मा की साधना पूर्ण संत (तत्वदर्शी संत) से प्राप्त करके किया करते थे। परन्तु मुक्त नहीं हो पाए। वे साधक एक ब्रह्मण्ड में बने सतगुरु कबीर लोक में चले जाते हैं। जहाँ पर उन साधकों की अपनी भक्ति कमाइ समाप्त नहीं होती, क्योंकि परमपिता का भण्डारा मुफ्त (निःशुल्क) चलता रहता है। वहाँ अन्य कोई नहीं जा सकता। फिर उन साधकों को पूर्ण परमात्मा पुनर् मानव जन्म उस समय प्रदान करता है जब कोई (तत्वदर्शी) संत पूर्ण साधना बताने वाला आने वाला होता है। उस समय वे साधक उस सत्य साधना बताने वाले पूर्ण संत की वाणी पर (प्रवचनों पर) शीघ्र विश्वास कर लेते हैं तथा भक्ति प्रारम्भ कर देते हैं।
उन्हीं में से कुछ आत्माऐं नकली सतलोक व नकली साधना का मिलता-जुलता ज्ञान बताने वाले नकली संतों को पूर्ण संत मान कर उसी पर आधारित हो जाती हैं तथा फिर कुए के मेंढक बन कर उसी ज्ञान को सुनते रहते हैं। सत्यज्ञान को सुन कर आँखों देखकर भी नहीं मानते दूसरी प्रकार के शास्त्र अनुकूल साधक जो किसी युग में सतनाम जाप वाली साधना किए हुए हैं वे पिछले शास्त्रा अनुकूल साधक भी काल जाल में ही रह जाते हैं। यदि वे तत्वज्ञान को ध्यान से सुन व पढ़ लेते हैं तो तुरन्त पूर्ण संत (तत्वदर्शी संत) की शरण में आ जाते हैं। जो पूर्ण संत की शरण में नहीं आते वे पिछले सत्यभक्ति साधना की कमाई अनुसार अनेकों मानव शरीर प्राप्त करते रहते हैं तथा पूर्ण संत के अभाव से फिर चैरासी लाख प्राणियों के शरीरों व नरक-स्वर्ग के चक्र में फंस जाते हैं।
गीता के अध्याय 7 के श्लोक 29 का अर्थ है कि जो मुझे (कि मैं काल हूँ तथा मेरी पूजा भी अति अश्रेष्ठ है ऐसे) तत्वज्ञान से जान लेते हैं तथा सम्पूर्ण अध्यात्म व सम्पूर्ण कर्म को तथा तत् ब्रह्म अर्थात् उस पूर्ण परमात्मा को जानते हैं वे मेरे द्वारा बताए इस ज्ञान के आश्रित हो कर दुःखदाई बुढ़ापा तथा मृत्यु से छूटने की कोशिश करते हैं भावार्थ है कि वे जन्म-मरण से पूर्ण रूप से छुटकारा चाहते हैं अर्थात् पूर्ण मोक्ष प्राप्त करने का ही प्रयत्न करते हैं। अध्याय 7 के श्लोक 30 में कहा है कि जो साधक मुझे ( ब्रह्म/काल ) तथा तीनों तापों (दुःखों को जो काल द्वारा जीव को पीड़ा दी जाती है) सहित जानता है और (अधियज्ञ) यज्ञों में प्रतिष्ठित पूर्णब्रह्म को जान कर हम दोनों के भेद को समझ कर वे फिर मुझे ( काल/ब्रह्म ) तत्व से जान कर कि मैं काल हूँ तथा पूर्ण परमात्मा ही पूर्ण मोक्ष दायक है फिर अंत समय में पूर्ण परमात्मा के भजन में मन को एकाग्र रखता है। इसलिए काल के दुःखों के डर के कारण काल जाल से निकल जाता है। {जैसे हम सतनाम जाप करते हैं उसमें काल (ब्रह्म) का जाप ऊँ भी है। जिसका जाप हम इस भाव से करते हैं कि हे सतपुरुष इस काल (ब्रह्म) के दुःख से बचाइऐ, इसका ऋण मुक्त हो जाए ताकि हमारा सदा के लिए इस काल (ज्योति निरंजन) से छुटकारा हो जाए तथा पूर्ण परमात्मा के भजन व पाने को मन लगाए रहते हैं। यदि काल (ज्योति निरंजन) के दुःख की भूल पड़ जाए तो जीव फिर भजन में आलस कर सकता है। इसलिए काल (ज्योति निरंजन) को तथा उस द्वारा जीवों को दी जा रही पीड़ा (कष्ट) व (अनुत्तमाम् गतिम) अति अश्रेष्ठ ( घटिया ) मुक्ति जो गीता अध्याय 7 के श्लोक 18 में कही है को जान कर जीव उस परमात्मा के आश्रित हो कर उसी पूर्ण ब्रह्म की भक्ति में चित्त को दृढ़ भाव से (एकाग्र चित्त से) अनन्य मन से रखता है अर्थात् विचलित नहीं होता।} पूर्ण ब्रह्म परमात्मा जो यज्ञों में प्रतिष्ठित (अधियज्ञ) है। अध्याय 3 के श्लोक 14,15 में पूर्ण विवरण है।
शंका - प्रभु प्रेमी पाठकों के मन में शंका उत्पन्न होगी कि जब ब्रह्म (काल) अपनी साधना को भी (अनुत्तमाम्) अति अश्रेष्ठ कह रहे हैं ( गीता अध्याय 7 श्लोक 18 ) तो फिर अपनी साधना करने को क्यों कह रहे हैं (गीता अध्याय 7 श्लोक 12 से 15) तथा तीनों गुणों (रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु, तमगुण शिव) की भक्ति करने वालों को हेय किसलिए कहा है?
शंका समाधान:- शास्त्रा अनुकूल भक्ति पवित्रा वेदों व पवित्रा गीता जी में वर्णित विधि (ओ3म् नाम का जाप उच्चारण करके स्मरण करने व धर्म, ध्यान, प्रणाम, हवन, ज्ञान ये पाँचों यज्ञ करने) से प्रारम्भ होती है। उससे ब्रह्मलोक में बने महास्वर्ग में एक कल्प या महाकल्प तक मोक्ष सुख प्राप्त होता है, परन्तु पाप कर्मों के दण्ड आधार से नरक तथा फिर चौरासी लाख प्रकार के प्राणियों के शरीर में कष्ट भी उठाना ही पड़ेगा। एक मानव शरीर फिर प्राप्त होगा। वे पुण्यात्माऐं जब मानव शरीर में होंगी और उन्हें कोई तत्वदर्शी संत पूर्ण परमात्मा (सतपुरुष) का ज्ञान बताएगा तो वे शीघ्र ही उस साधना पर लग जाती हैं, क्योंकि उनमें पिछले भक्ति संस्कार विद्यमान होते हैं तथा सत्य साधना करके पूर्ण मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं। अन्य देवताओं की पूजा से मोक्ष समय बहुत कम तथा नरक समय अधिक होता है तथा चैरासी लाख योनियों का कष्ट भी अधिक समय तक होता है। जैसे एक प्रकार के प्राणी (कुत्ते) के जन्म ही लगातार 20 हो जाऐं, फिर दूसरे प्राणी के रूप में जन्म भी अधिक होने के कारण अधिक कष्ट उठाते हैं। परन्तु मर्यादावत् ब्रह्म (काल) साधना करने वालों के प्रत्येक योनी के संस्कार वश कम जन्म होते हैं तथा चैरासी लाख प्रकार के प्राणियों का कर्म चक्र शीघ्र-शीघ्र भोगा जाता है। जैसे कुत्ते की मृत्यु 10 वर्ष में होती है, एक माता के गर्भ से बाहर आते ही मर जाता है। जैसे ऋषि सुखदेव जी का जीव मादा तोते के अण्डे में ही था, अण्डा खराब हो कर छूटकारा हो गया,नहीं तो तोतेकी आयु मनुष्य से भी अधिक होती है। इस प्रकार कष्टमय शरीरों से शीघ्र छुटकारा हो जाता है। अन्य देवताओं के साधकों को जब कभी मानव शरीर प्राप्त होता है तो वे फिर अपने पिछले संस्कार से बने स्वभाववश उन्हीं तीनों गुणों (रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु, तमगुण शिव आदि अन्य देवताओं) की तथा भूत-भैरवों व पितरों की ही पूजा करते हैं, कहने से भी नहीं मानते। प्रमाण पवित्र गीता अध्याय 16 श्लोक 4 से 20 तक तथा पवित्र गीता अध्याय 17 श्लोक 1 से 10 तक। जो साधक शास्त्र अनुकूल साधना पिछले जन्म में करते थे उनमें दो प्रकार के साधक बताए गये हैं,
(1) एक तो ब्रह्म साधक जो ओ3म् नाम मंत्र जाप व पाँचों यज्ञ किया करते थे, वे तो महास्वर्ग, नरक व अन्य प्राणियों के शरीर में कष्ट उठाते रहते हैं। उनके मानव जन्म भी लगातार एक से अधिक भी हो सकते हैं। यदि उन सर्व मानव जन्मों में भी पूर्ण (तत्वदर्शी) संत नहीं मिला फिर उपरोक्त सर्व स्थितियों से गुजरना पड़ता है। परन्तु सत्य साधना पर शीघ्र लग जाते हैं।
(2) दूसरी प्रकार के शास्त्र विधि अनुसार साधना करने वाले वे साधक हैं जो कभी किसी युग में पूर्ण परमात्मा की साधना पूर्ण संत (तत्वदर्शी संत) से प्राप्त करके किया करते थे। परन्तु मुक्त नहीं हो पाए। वे साधक एक ब्रह्मण्ड में बने सतगुरु कबीर लोक में चले जाते हैं। जहाँ पर उन साधकों की अपनी भक्ति कमाइ समाप्त नहीं होती, क्योंकि परमपिता का भण्डारा मुफ्त (निःशुल्क) चलता रहता है। वहाँ अन्य कोई नहीं जा सकता। फिर उन साधकों को पूर्ण परमात्मा पुनर् मानव जन्म उस समय प्रदान करता है जब कोई (तत्वदर्शी) संत पूर्ण साधना बताने वाला आने वाला होता है। उस समय वे साधक उस सत्य साधना बताने वाले पूर्ण संत की वाणी पर (प्रवचनों पर) शीघ्र विश्वास कर लेते हैं तथा भक्ति प्रारम्भ कर देते हैं।
उन्हीं में से कुछ आत्माऐं नकली सतलोक व नकली साधना का मिलता-जुलता ज्ञान बताने वाले नकली संतों को पूर्ण संत मान कर उसी पर आधारित हो जाती हैं तथा फिर कुए के मेंढक बन कर उसी ज्ञान को सुनते रहते हैं। सत्यज्ञान को सुन कर आँखों देखकर भी नहीं मानते दूसरी प्रकार के शास्त्र अनुकूल साधक जो किसी युग में सतनाम जाप वाली साधना किए हुए हैं वे पिछले शास्त्रा अनुकूल साधक भी काल जाल में ही रह जाते हैं। यदि वे तत्वज्ञान को ध्यान से सुन व पढ़ लेते हैं तो तुरन्त पूर्ण संत (तत्वदर्शी संत) की शरण में आ जाते हैं। जो पूर्ण संत की शरण में नहीं आते वे पिछले सत्यभक्ति साधना की कमाई अनुसार अनेकों मानव शरीर प्राप्त करते रहते हैं तथा पूर्ण संत के अभाव से फिर चैरासी लाख प्राणियों के शरीरों व नरक-स्वर्ग के चक्र में फंस जाते हैं।
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