Friday, 4 April 2014

पहले ही मां के स्तनों में दूध का निर्माण कर दिया ।

जब मन वासनाओं से आवृत रहता है तो अन्तःकरण पाप के मल से उसी तरह आच्छादित रहता है जिस प्रकार दर्पण मल से आच्छादित रहता है । पाप का मूलस्रोत इन्द्रिय है । इन्द्रियों द्वारा जब चित्त विषयों में न लगा रहे तभी उस परमशिव तत्व की प्राप्ति होती है । अतः अर्न्तदृष्टिर्बहिलक्ष्य की क्रिया बतलाई । अन्तःकरण के संस्कारोँ के द्वारा ही अन्तःकरण में शक्ति आती है । संस्कृत अन्तःकरण के लिये ही यज्ञोपवितादि सारे संस्कार हैं । आज इन संस्कारों के न होने के कारण जीवन दुःखमय हो गया है । परमात्मा ने संसार का निर्माण जीव को दुःखी बनाने के लिये किया हो यह सम्भव नहीं । लड़के को पिता पाठशाला इसलिये नहीं भेजता कि वह वहाँ जाकर निष्फल हो जाय । लड़का यह कह सकता है कि न तुम मुझे पाठशाला भेजते न मैं निष्फल होकर दुःखी होता। पिता कहेगा " बेटा ! भेजा विद्याध्यन के लिये था , पर तूने वहाँ जाकर विपरीत अभ्यास किया " । जीव में आणवदोष आना ही उसका फेल होना है । ईक्षण इस लिये नहीं किया था कि वह संस्कार हीन होकर सृष्टि में फँसे । सृष्टि के द्वारा संस्कार मय होकर वह अपने स्वरूप को पहचाने इस लिये संसार है। जब जीव शास्त्र विरुद्ध क्रियाओं में लग गया तो आणव के ऊपर मल दोष भी छा गया । आज हमने संसार को दुःख का जाल मान लिया है । संसार में हम चिन्तित बने रहते हैं । मकान , दूकान , नौकरी, वेतन बढ़ने आदि की चिन्ता से सभी चिन्ता ग्रस्त हैं । शिव ने संसार को निश्चिन्त रहने का साधन बनाया था । हम यहाँ आकर चिन्ता करने लगे । इससे अधिक निश्चिन्त बनने में प्रमाण क्या कि बच्चा उत्पन्न होने से पहले ही मां के स्तनों में दूध का निर्माण कर दिया । शिव ने प्रारब्ध का नियम ही ऐसा बनाया कि प्रारब्ध के रहते हुए हम कभी मर नहीं सकते । यदि कोई तपस्या करने लगा तो इन्द्र घबरा उठता है । इसका मतलब यह है कि साधक की साधना से मन रूपी इन्द्र को तकलीफ होती है। इन्द्र को पता तो है कि 100 वर्ष तक मैं इन्द्रासन पर आसीन रहूंगा । फिर दूसरे को तपस्या करते देख क्यों चिन्तित होता है ? ठीक जैसे आपको पता है कि जब तक प्रारब्ध है योग क्षेम बने रहेंगे फिर क्यों चिन्ता करते हैं ?

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