Friday, 25 April 2014

कोई सहारा भी न होगा।

क्या करते हैं हम सब? क्या हम स्वस्थ-चित्त हैं अथवा विक्षिप्तता के भी लक्षण हैं। उपभोग के योग्य वस्तुओं के अतिरिक्त भी हम कितनी ही वर्तमान में अनुपयोगी वस्तुओं को भी जुटा लेते हैं कि भविष्य [?] में काम आयेंगी। इसी प्रकार घर में अनुपयोगी वस्तुओं का ढेर भी बढता चला जाता है, पुराने वस्त्रों, बर्तनों, फ़र्नीचर, बिजली का सामान, किताबें आदि से घर का स्टोर भरता चला जाता है और प्रत्येक वस्तु रखते समय हम यह सोचते हैं कि समझदारी इसी में है कि इसे अभी किसी को दिया न जाये अथवा फ़ेंका न जाये और बहुधा ऐसा होता है कि आवश्यकता होने पर हमें स्मरण भी नहीं रहता कि यह वस्तु हमने स्टोर में रखी हुयी है; हम पुन: नयी वस्तु ले आते हैं और पुन: वही चक्र। हमारा स्टोर ही हमारी पोटली है। कल किसने देखा? जिस श्रीहरि ने आज दिया है, आवश्यकता होने पर वह कल पुन: देंगे; इसमें संशय कैसा? जो वस्तु, हमारे उपभोग में न आ रही हो और किसी अन्य के काम आ सकती हो तो वह उन्हें प्रदान कर देना उचित है। वस्त्र छोटे हो गये, पुराने हो गये तो बजाय उन्हें किलो के भाव में, बर्तनों के बदले में देने से किसी जरुरतमंद को दें क्योंकि जिस उदारता से श्रीहरि हमें दे रहे हैं; उसका कुछ अंश तो हममें भी आवे और हम कौन सी आवश्यक वस्तु दे रहे हैं परन्तु हमारा स्वभाव तो विक्षिप्तता वाला ही है न ! हम कैसे दे दें, भरे जा रहे हैं अपनी पोटली ! झुकी जा रही है कमर ! एक दिन ऐसा भी होगा कि पोटली हमसे उठेगी नहीं और कोई सहारा भी न होगा। पोटली की कोई वस्तु कभी काम न आयेगी। पोटली की कौन कहे, स्वयं अपनी ही देह को उठाने की शक्ति न होगी और उस दिन विदित होगा कि कैसी विक्षिप्तता में जीवन व्यतीत कर दिया, कोई सुधार न हुआ, अपना कल्याण न किया, किसी के काम न आये, कुछ नहीं कमाया, जो लाये थे वह भी गँवा चले। जो देखा था, वो बाबा कौन था? हमीं तो थे ! श्रीहरि ने हमें भविष्य की झाँकी दिखाई थी ताकि हम सीख ले सकें परन्तु हमारी बुद्धिमत्ता और चतुराई ऐसा होने ही कब देती है। पुन: वही प्रार्थना। हे नाथ ! एक जीवन और !
मन में है बसी बस चाह यही, प्रिय नाम तुम्हारा उचारा करूँ ।
बिठला के तुम्हें मन मंदिर में, मन मोहिनी रूप निहारा करूँ ॥
भरके दॄग-पात्र में प्रेम का जल, पद पंकज नाथ पखारा करूँ ।

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