Thursday, 10 April 2014

मन मनुष्य के शरीर का सबसे महत्वपूर्ण भाग है

      मन मनुष्य के शरीर का सबसे महत्वपूर्ण भाग है इसे तीसरी आंख या छठी इंद्रिय भी कहते हैं, इसे अग्रेंजी में माइंड कहते हैं। मन ही मनुष्य के शरीर का संपूर्ण बौद्धिक संचालन करता है अर्थात यह शरीर को चलाने वाला ड्राइवर है। यह द्रव्य का तरंग रूप है और यह आत्मा के साथ गुथा हुआ रहता है एवं सारे शरीर में व्याप्त है। इसे हम शरीर की संचार प्रणाली कह सकते हैं यह आत्मा से संपर्क बनाए हुए ब्रह्मांड में कहीं भी जाने में सक्षम है इसकी गति असीमित है यह प्रकाश की गति से कई गुना तेज गति से चल सकता है यह एक सेकिंड में ब्रह्मांड के किसी भी कोने में पहुंच सकता है यदि हम विज्ञान की भाषा में कहें तो इसका तरंगदैर्ध्य अनंत है। यक्ष प्रश्न के उत्तर में युधिष्ठर ने मन को सबसे तेज चलने वाला बताया था। मन के तीन भाग होते हैं। 

1.चित्त, 2.बुद्धि 3.अहंकार। 

                   चित्त का काम है जानना या ज्ञान प्राप्त करना, बुद्धि का काम है निर्णय करना एवं अहंकार का काम है गलत निर्णय करना या निर्णय को बदलने का प्रयास  करना। मन का अस्तित्व तब तक रहता है जब तक प्राणी जीवित है मृत्यु के बाद इसका कोई अस्तित्व नहीं रहता न ही यह कहीं स्वतंत्र अवश्था में रह सकता है क्योंकि मन एक गतिशील संचार प्रणाली का नाम है जो कि सिर्फ जीवित प्राणियों में ही रहती है। जब मन काम करना बंद कर देता है तब मनुष्य कोमा की स्थिति में चला जाता है।

                   जब हमें कोई कार्य करना होता है तब सबसे पहिले हमारे मन में उस कार्य को करने का विचार आता है जैसे हमें हाथ उपर उठाना है तब सबसे पहिले हमारे मन में हाथ उठाने का विचार आएगा इसके बाद बुद्धि निर्णय करेगी कि हाथ उठाना है या नहीं, हाथ उठाने का निर्णय कर लेने के बाद बुद्धि प्राण अर्थात उर्जा रूप को उत्तेजित करेगी उर्जा नर्व के माध्यम से हाथ उठाने के लिए आवश्यक उर्जा के साथ मस्तिष्क तक संदेश पहुंचाएगी संदेश मिलते ही मस्तिष्क हाथ उठाने के लिए आवश्यक रसायन तैयार करेगा जो हाथ की मांसपेशियों में आवश्यक खिंचाव उतपन्न कर हाथ को ऊपर उठा देंगे परंतु इतनी लम्बी प्रक्रिया सेकिंड के दसवें भाग से भी कम समय में हो जाती है। हमारे द्वारा किए जाने वाले छोटे से छोटे शारीरिक या मानसिक कार्य करने के लिए हमेशा यही प्रक्रिया दुहराई जाती है चाहे  कार्य ज्ञानेद्रियों द्वारा किया जाना हो या कर्मेद्रियों द्वारा किया जाना हो, कार्य हो जाने का संदेश भी वापिस मन तक पहुंचता है तब मन फिर हाथ को सामान्य स्थिति में लाने के लिए संदेश भेजता है। उपरोक्त उदाहरण से स्पष्ट होता है कि हमारे शरीर में क्रियाएं कितनी तेजी से होतीं हैं। शरीर में होने वाली रासायनिक क्रियाओं का हमें कोई पता ही नहीं  लगता। अर्थात शरीर में होने वाली स्थाई सामान्य क्रियाएं जो शरीर को क्रियाशील रखने के लिए आवश्यक हैं, जो कि आजीवन बिना रुके तेजी से शरीर में चलती रहतीं हैं, इनका हमें कोई पता नहीं चलता क्योंकि इन क्रियाओं का संचालन प्राण करता है। इसके अलावा बौद्धिक क्रियाओं का संचालन मन करता है, सामान्य क्रियाओं के अलावा बौद्धिक रूप से शरीर में होने वाली छोटी से छोटी हलचल का संदेश मन तक पहुंचता है यदि मन के रास्ते में कोई रुकावट पैदा हो जाय तो हमें शरीर में होने वाली किसी भी हलचल दर्द आदि का पता न चलेगा, अर्थात हम बेहोशी की अवश्था में पहुंच जाऐंगे। इसके रास्ते में रूकावट पैदा कर डाक्टर बड़े बड़े आपरेशन कर देते हैं। इस प्रकार मन हमारे  शरीर में ज्ञानेद्रियों कर्मेन्द्रियों सहित शरीर का बौद्धिक संचालन करता है।

                   जब बुद्धि के पास निर्णय करने के लिए विकल्प ज्यादा होते हैं तब अहंकार अपना काम करने लगता है इसे भी हम एक उदाहरण से समझते हैं मानलो दो अलग अलग व्यक्तियों को घर से रेलवे स्टेशन जाना है जो कि दस किलोमीटर दूर है एक व्यक्ति के पास रेलवे स्टेशन जाने के कई विकल्प मौजूद हैं जैसे पैदल जाना साइकिल, बस  आटो रिक्शा  टेक्सी आदि परंतु दूसरे व्यक्ति के पास  पैदल जाने के अलावा कोई विकल्प नही है तब दूसरे व्यक्ति में अहंकार कोई काम नहीं करेगा और वह तुरंत निर्णय लेकर पैदल चल देगा। परंतु पहला व्यक्ति जिसके पास कई विकल्प हैं निर्णय लेने में कुछ देर लगाएगा इसके अलावा वह तीन प्रकार से निर्णय ले सकता है पहला अपनी सामर्थ के अनुसार दूसरा सामर्थ से कम तीसरा सामर्थ से अधिक यदि वह सामर्थ सें अधिक खर्च कर जाने का निर्णय लेता है तब उसके मन में तनाव भी उतपन्न होगा। इस प्रकार मनुष्य के मन में बुद्धि और अहंकार का टकराव हमेशा होता रहता है जो कि तनाव एवं तनाव से उतपन्न होने वाली बीमारियों का कारण बनता है। बुद्धि और अहंकार हमेशा एक दूसरे को दबाने की कोशिश करते रहते हैं। गरीब एवं श्रमजीवी लोगों में अहंकार बहुत कम होता है परंतु बुद्धिजीवी एवं उच्चवर्ग में अहंकार चरम पर होता है एवं तनाव से संबंधित बीमारियां भी इन्हीं दो वर्गों में ज्यादा होतीं हैं इसी कारण आज दुनिया में जो भी निर्णय लिए जाते हैं वह प्रकृति एवं जीवन के हित में नहीं होते क्योंकि निर्णय लेने वाले व्यक्तियों में अहंकार चरम पर होता हैं। आध्यात्म के माध्यम से हम सीख सकते हैं कि निर्णय लेने के कई विकल्प मौजूद होते हुए भी अहंकार को अपना काम करने से कैसे रोका जा सकता है इसका तरीका दूसरे भाग में बताएंगे। 

                       हमारे मन में जो भी विचार उठते हैं उनका भाव हमेशा हमारे चेहरे एवं आखों पर पर प्रगट होने लगता है हम किसी भी व्यक्ति के चेहरे को देखकर तुरंत बता देते हैं कि अमुक व्यक्ति प्रसन्न है, उदास है, चिंतित है, तनाव ग्रस्त है या क्रोधित है आदि, अर्थात चेहरे को देखकर मन में उतपन्न विचारों को पढ़ा जा सकता है। हम अभी उसी बदलाव को देख पाते हैं जो चेहरे पर स्पष्ट रूप से प्रगट हो जाता है सूक्ष्म रूप से प्रगट होने वाले बदलाव को हम नहीं देख सकते। पुराने समय में हमारे ऋषि मुनि इस विधि को जानते थे वे मनुष्य के अलावा चेहरे को देखकर जानवरों के विचारों को भी पढ़ लेते थे। जिस प्रकार विज्ञान ने आज कमप्यूटर की मशीनी भाषा को आम भाषा में बदल लिया है इसी प्रकार मन में उतपन्न विचारों को आम भाषा में बदला जा सकता है इससे जानवरों के विचारों को भी पढ़ा जा सकेगा, इसके लिए विज्ञान को अभी समय लगेगा क्योंकि अभी विज्ञान मन तक नहीं पहुंचा है। विज्ञान ने अभी झूठ पकड़ने वाली मशीन एवं नार्को टेस्ट आदि विधियां विकसित की हैं परंतु इन विधियों द्वारा मस्तिष्क में उतपन्न रसायनों एवं तरंगों का विश्लेषण कर परिणाम निकाले जाते हैं जो पूर्णतः विश्वासनीय नहीं है क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति की मानसिक स्थिति अलग होती है यदि कोई व्यक्ति मन को नियंत्रित करना जानता है या अनजाने ही उसका मन नियंत्रित हो जाता है तब इन विधियों द्वारा गलत परिणाम मिल सकते हैं। यदि कोई व्यक्ति सन्यासी है तब उस पर किए गए टेस्ट भी गलत परिणम दे सकते हैं। यहां सन्यासी का मतलब घर द्वार छोड़कर चले जाने वाले  आधुनिक सन्यासियों से नहीं है, जैसा कि उपर लिखा जा चुका है कि हमारे मन में उतपन्न विचारों का भाव हमारे चेहरे पर प्रगट होता रहता है, परंतु किसी व्यक्ति में यदि किसी भी अच्छी या बुरी परस्थिति में या सुख दुख में चेहरे पर कोई भाव प्रगट नहीं होते अर्थात किसी भी परस्थिति का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता तब उसे सन्यासी कहा जाता है आध्यात्म के अनुसार सन्यासी की यही परिभाषा है।  ( कोमा को हिन्दी में सन्यास कहते हैं सन्यासी की उतपत्ति इसी सन्यास शब्द से हुई है। ) एक गृहस्थ व्यक्ति सन्यासी हो सकता है, हमारे जितने भी प्रसिद्ध सन्यासी ऋषि मुनि एवं धर्म संस्थापक हुए हैं उनमें ज्यादातर गृहस्थ थे। हमारे जितने भी देवता हैं वे कोई भी बिना पत्नि के नहीं हैं। ईश्वर को पाने के लिए गृहस्थ जीवन का त्याग करना बिलकुल भी जरूरी नहीं है। भौतिक रूप से सन्यास धारण करने का कोई महत्व नहीं है ईश्वर को पाने के लिए मानसिक रूप से सन्यासी बनना होता है क्योंकि धर्म पूर्णतः मानसिक प्रक्रिया है। यह कार्य ग्रहस्थ जीवन में भी किया जा सकता है, दूसरे भाग में इसे और स्पष्ट करेंगे। श्रीकृष्ण की सोलह हजार रानियां थीं फिर भी वे ब्रह्मचारी एवं सन्यासी थे।

                     द्रव्य के पांच रूपों ( पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश ) का ज्ञान प्राप्त करने के लिए  हमारे शरीर में पांच ज्ञानेद्रियां होती हैं। इन पांच रूपों के पांच अलग अलग गुण होते हैं।

1.पृथ्वी (ठोस) का गुण गंध, 

2.जल (द्रव) का गुण रस (स्वाद), 

3.वायु का गुण स्पर्श, 

4.अग्नि का गुण रूप (दृश्य) एवं 

5.आकाश का गुण शब्द (कम्पन)

                    उपरोक्त पांच रूपों का ज्ञान प्राप्त करने के लिए हमारे शरीर में निम्न पांच ज्ञानेन्द्रियां होतीं हैं।



1.गंध का ज्ञान प्राप्त करने के लिए नासिका 

2.स्वाद का ज्ञान प्राप्त करने के लिए जिव्हा  

3.स्पर्श का ज्ञान प्राप्त करने के लिए त्वचा 

4.रूप का ज्ञान प्राप्त करने लिए आंख  

5.शब्द का ज्ञान प्राप्त करने के लिए कान   

                 नासिका, जिव्हा, त्वचा, आंख और कान ये पांचों ज्ञानेन्द्रियां हमारे शरीर के उपरी भाग के अलावा मन में भी सूक्ष्म रूप से स्थित होती हैं इसलिए मन को छटी इंन्द्रिय या तीसरी आंख कहा जाता है। यदि शरीर मे स्थित कोई ज्ञानेन्द्रिय खराब है तब भी मनुष्य उस ज्ञानेन्द्रिय से संबंधित ज्ञान मानसिक रूप से प्राप्त कर सकता है। क्योंकि ज्ञान प्राप्त करना मन का काम है। सूरदास जन्म से अंधे थे परंतु उन्होंने सूरसागर नामक विशाल ग्रंथ की रचना की इस ग्रंथ में श्रीकृष्ण से संबंधित जिन  दृश्यों का चित्रण किया गया वैसा चित्रण आज का आंख वाला भी नहीं कर सकता। यदि मन की कार्यप्रणाली में कोई बाधा आ जाय या मन काम करना बंद कर दे तब मनुष्य मानसिक या शारीरिक कोई भी कार्य नहीं कर सकता एवं कोमा की स्थिति में चला जाता है भले ही उसकी शरीर में स्थित ज्ञानेन्द्रियां पूर्ण रूप से स्वस्थ एवं सही हों।

  

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