भोग अथवा भगवान ! अमृत अथवा सुरा ! मोक्ष अथवा जन्म ! देव अथवा असुर ! योगी अथवा भोगी ! पुण्य अथवा पाप ! धर्म अथवा अधर्म ! सज्जन अथवा दुर्जन ! भक्त अथवा संसारी !
चुनो, तुम्हें जो चुनना हो। जो प्रिय हो। स्वतन्त्रता है तुम्हें, श्रीहरि की ओर से। किसी के साथ कोई जोर-जबर्दस्ती नहीं। स्वेच्छा से जो चाहो, चुनो। श्रीहरि की अहैतुकी कृपा के कारण हमें सब दिया गया है, पिपासा भी और अमृत-कुन्ड भी। सभी तो है हमारे पास किन्तु गुप्त रुप में। अपने-अपने "सिस्टम" में पड़े हुए "साँफ़्टवेयरों" के "पासवर्ड" खोजो। उन्हें खोजे बिना ये न जान पाओगे कि तुम्हारे पास क्या था। संभव है जीवन भर श्रीहरि को भी उलाहना देते रहो कि हमें कुछ नहीं दिया। जिस दिन पिपासा तीव्र हो जायेगी, खोज आरंभ होगी; तब मृग-मरीचिका भी दिखायी देगी किन्तु धैर्य रखना। मृग-मरीचिका से पार पाओगे तभी तो अमृत-कुन्ड मिलेगा। वे भेजेंगे किसी को अथवा स्वयं ही कोई रुप धर लें हमारी सहायता के लिये ! वे तो सबकी ही सहायता करते हैं, अर्जुन की भी और दुर्योधन की भी ! "निहत्थे" को कौन रखेगा, यह हमें तय करना है ! कौन चाहिये? श्रीहरि अथवा माया !हे प्रभु जी मैं संसार की उलझनों मैं ही पड़ा पड़ा ही जन्म बीत गया, बिना विचार के ज्ञान हीन हो कर राज,, काज ,, पुत्र,,, ओर धन के फंदे मैं ही पड़ा भटकता रहा ,, माया की जो कठिन गाँठ पद गई है,, वह झटका देने से नहीं टूटती,, न तो भगवान जी आप का भजन ही किया,, ना संतों का संग ही किया ,, माया के भिच ही अटका रह गया,,, जेसे नट विविध स्वांग सजकर बहुत सी कलाएँ दिखाता है परन्तु उसका लोभ नहीं छूटता,, वेसे ही मैं भी त्याग ओर वेराग्य की बातें करके वेश धारण करके भी आसक्ति नहीं जाती,,, हे प्रभु जी पतिविहिन ( विधवा ) स्त्री नाना प्रकार के हाव भाव दिखाने से शोभा नही पति ,,,, उसी तरहा भगवत् प्रेम से शून्य मैं नीच भगति का स्वांग करना क्या मुझ नीच को शोभा देता है
जय श्री कृष्णा
चुनो, तुम्हें जो चुनना हो। जो प्रिय हो। स्वतन्त्रता है तुम्हें, श्रीहरि की ओर से। किसी के साथ कोई जोर-जबर्दस्ती नहीं। स्वेच्छा से जो चाहो, चुनो। श्रीहरि की अहैतुकी कृपा के कारण हमें सब दिया गया है, पिपासा भी और अमृत-कुन्ड भी। सभी तो है हमारे पास किन्तु गुप्त रुप में। अपने-अपने "सिस्टम" में पड़े हुए "साँफ़्टवेयरों" के "पासवर्ड" खोजो। उन्हें खोजे बिना ये न जान पाओगे कि तुम्हारे पास क्या था। संभव है जीवन भर श्रीहरि को भी उलाहना देते रहो कि हमें कुछ नहीं दिया। जिस दिन पिपासा तीव्र हो जायेगी, खोज आरंभ होगी; तब मृग-मरीचिका भी दिखायी देगी किन्तु धैर्य रखना। मृग-मरीचिका से पार पाओगे तभी तो अमृत-कुन्ड मिलेगा। वे भेजेंगे किसी को अथवा स्वयं ही कोई रुप धर लें हमारी सहायता के लिये ! वे तो सबकी ही सहायता करते हैं, अर्जुन की भी और दुर्योधन की भी ! "निहत्थे" को कौन रखेगा, यह हमें तय करना है ! कौन चाहिये? श्रीहरि अथवा माया !हे प्रभु जी मैं संसार की उलझनों मैं ही पड़ा पड़ा ही जन्म बीत गया, बिना विचार के ज्ञान हीन हो कर राज,, काज ,, पुत्र,,, ओर धन के फंदे मैं ही पड़ा भटकता रहा ,, माया की जो कठिन गाँठ पद गई है,, वह झटका देने से नहीं टूटती,, न तो भगवान जी आप का भजन ही किया,, ना संतों का संग ही किया ,, माया के भिच ही अटका रह गया,,, जेसे नट विविध स्वांग सजकर बहुत सी कलाएँ दिखाता है परन्तु उसका लोभ नहीं छूटता,, वेसे ही मैं भी त्याग ओर वेराग्य की बातें करके वेश धारण करके भी आसक्ति नहीं जाती,,, हे प्रभु जी पतिविहिन ( विधवा ) स्त्री नाना प्रकार के हाव भाव दिखाने से शोभा नही पति ,,,, उसी तरहा भगवत् प्रेम से शून्य मैं नीच भगति का स्वांग करना क्या मुझ नीच को शोभा देता है
जय श्री कृष्णा
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