बहुत बार देखा गया , अक्सर सिर्फ
ज्ञान नहीं आध्यात्मिक ज्ञान
की उंचाईयों को छूने के बाद भी ,
इंसान की बुद्धि में कुछ कसक रह
जाती है , खासकर तब .... जब एक
ऊंचाई पे चढ़ कर जब आस पास
की चोटियों पे स्वाभाविक नजर
जाए, या फिर अपने ही सामान
लोगो को यात्रा करते हुए देखते है
तो तुलनात्मक भाषा का उपयोग
करें , इस अनुभव को क्या कहेंगे ! कुछ
मनोयोगी इस भाव
को आध्यात्मिक द्वेष भी कहते है
जो किसी भी ज्ञानी में
अज्ञानता की लहर बनके प्रवेश
कर सकता है ...... मित्रों मुझे
नहीं पता की ये किस भाव
को अथवा छद्म ज्ञानोत्पन्न
द्वेषदशा को दर्शाते है ! खास कर
वे लोग जो ईश्वरीय ज्ञान
का संस्थान चला रहे है ,
वो किसलिए ऐसे
शब्दों का उपयोग कर रहे है ?
क्या वो नहीं दीक्षा दे रहे इस
पारा रहस्य से साक्षात्कार की।
शिष्य बना रहे है ,
तो क्या इसलिए की आजीवन ये
व्यक्ति सिर्फ शिष्य बना रहे ,
कभी भी साक्षात्कार को उपलब्ध
न हो ! तो यदि कोई अनुभव ले
रहा है तो उसपे सिर्फ गुरु
का या गुरु प्रमुख का एकछत्र
अधिपत्य एक का कैसे हो सकता है ?
ईश्वर के साम्राज्यमे आत्म ज्ञान
के अवसर सभी को है , एक कीट
को भी और एक मनुष्य को भी , उसने
कोई भेद नहीं किया। मुझे
तो ऐसा लगता है की इस प्रकार
के ज्ञान की व्यावसायिक शालाएं
भी छद्म ही है , जिनके चलाने वाले
ही कहे की लो !
आपको तो साक्षात्कार
हो रहा है ! कैसे ?"
बुल्ले शाह के जीवन का अनुभव था ,
उन्होंने , किसी पहुंचे गुरु
को नहीं अपनाया था , एक सीधे
साधे किसान को उन्होंने
अपना गुरु माना , भाव था ,
प्रारब्ध था , बुल्ले शाह
की अपनी यात्रा थी , और उस
किसान की भी। उनके इस निर्णय
पे तत्कालीन समाज में
काफी आलोचना भी हुई थी। परन्तु
उनको ईश्वरत्व के दर्शन उस
किसान ने ही कराये। गुरु शिष्य
सम्बन्ध आत्मिक और समर्पण
आंतरिक है , और कभी कभी अंदर
ही अंदर गुप्त रूप से आप ही गुरु और
आप ही शिष्य भी फलित होता है,
ये ऐसा झरना है जब फूटता है
तभी जल की गुणवत्ता का दर्शन
होता है अध्यात्म
तो पारा ज्ञान की भाव नदी है
जिस और बह जाये रास्ता ढूंढ
ही लेती है
एक तरफ मेरा विचार है की ईश्वर
साक्षात्कार
की प्रेरणा स्वाभाविक प्रवाह है
और उस परम के दरबार में भेद नहीं ,
सभी को समान अवसर है , अवसर
ईश्वर देता है , और पहुँचने के रस्ते
भी वो ही दिखता है। इसलिए इस
व्यर्थ की मगजमारी से
किसी भी जीव को बचना चाहिए,
की कौन कैसे किस अध्यात्म के रस्ते
जा रहा है , जा रहा है
यही उसका सच है ; ये
उसकी यात्रा है , उसका प्रारब्ध
है ।
बहुत ही सुन्दर बात
कहीं पढ़ी थी मैंने आप सब से
बाँटना चाहती हूँ " ज्ञानियों ने
ह्रदय को ही आधार
क्यों बनाया ईश्वर प्राप्ति का ,
बहुत सारी व्याख्याएं है पर एक
बिलकुल नयाभाव आपसे
बाँटना चाहती हूँ की ह्रदय
स्थान मध्य है केंद्र है , बिलकुल
वैसा ही जैसा ब्रह्माण्ड में केंद्र
है , केंद्र की यात्रा कही से
भी किसी भी राह से ,
किसीभी बिंदु से शुरू करो , केंद्र पे
ही रुकेंगे , और
कहीं जा ही नहीं सकते। " छोटे से
लौह टुकड़े के चुंबकत्व में
इतनी शक्ति होती है की आस पास
के लौह कणो को चलायमान करके
केंद्र में इकठा कर लेता है । उस
परम केंद्र का चुम्बकत्व
इतना प्रगाढ़ है , उसके खिंचाव में
इतनी शक्ति है , की बस खिंचाव
की दिशा में बिना प्रयास चलते
जाना है और अंत में वहीँ पहुँच
जाना है ..... किसी भी भाव राह
से चले , केंद्र से चले तो केंद्र पे
ही पहुंचेंगे। केंद्र की यात्रा पे
कही और जा ही नहीं सकते ,
वैज्ञानिक है प्रमाणित है , ईश्वर
की साधना भी ऐसी ही ही है ,
इसीलिए केंद्र तक जाने का कोई
एक रास्ता नहीं , जिस राह
भी चले केंद्र पे ही पहुंचेंगे।
मत देखो आस पास कितने चल रहे
है ! मत
आलोचना करो किसका क्या रास्ता है !
मत निर्णय दो सही और गलत का !
यदि आप अभी भी चक्कलस में उलझे
है तो , सुनिए ! आपके लिए
ही वो घंटा एक बार फिर से
बजा । सावधान !
हार-जीत पाना खोना , कम
ज्यादा ऊँचा नीचे आदि शाब्दिक
भेद भाव का भ्रम है। सत्य की उस
ऊंचाई पे न कुछ पाना है न कुछ
खोना है , यही सत्य है और
अनुपलब्धि के तराजू के दो पलड़ों में
मात्र उपलब्धि परमशून्य है।
सबकी यात्रा के साथ ये है
सहयात्रा , सबका जीवन ,
सबका कल्याण , एक विश्वास और
केंद्र है एक ऊर्जा , केंद्र स्थल
हमारे ह्रदय , हमारे भाव
जो ह्रदय से तरंगित है उनमे
सबका कल्याण मंगलकामना और
प्रार्थना , इसके अतिरिक्त
किसी और भाव के लिए कोई जगह
नहीं।
ज्ञान नहीं आध्यात्मिक ज्ञान
की उंचाईयों को छूने के बाद भी ,
इंसान की बुद्धि में कुछ कसक रह
जाती है , खासकर तब .... जब एक
ऊंचाई पे चढ़ कर जब आस पास
की चोटियों पे स्वाभाविक नजर
जाए, या फिर अपने ही सामान
लोगो को यात्रा करते हुए देखते है
तो तुलनात्मक भाषा का उपयोग
करें , इस अनुभव को क्या कहेंगे ! कुछ
मनोयोगी इस भाव
को आध्यात्मिक द्वेष भी कहते है
जो किसी भी ज्ञानी में
अज्ञानता की लहर बनके प्रवेश
कर सकता है ...... मित्रों मुझे
नहीं पता की ये किस भाव
को अथवा छद्म ज्ञानोत्पन्न
द्वेषदशा को दर्शाते है ! खास कर
वे लोग जो ईश्वरीय ज्ञान
का संस्थान चला रहे है ,
वो किसलिए ऐसे
शब्दों का उपयोग कर रहे है ?
क्या वो नहीं दीक्षा दे रहे इस
पारा रहस्य से साक्षात्कार की।
शिष्य बना रहे है ,
तो क्या इसलिए की आजीवन ये
व्यक्ति सिर्फ शिष्य बना रहे ,
कभी भी साक्षात्कार को उपलब्ध
न हो ! तो यदि कोई अनुभव ले
रहा है तो उसपे सिर्फ गुरु
का या गुरु प्रमुख का एकछत्र
अधिपत्य एक का कैसे हो सकता है ?
ईश्वर के साम्राज्यमे आत्म ज्ञान
के अवसर सभी को है , एक कीट
को भी और एक मनुष्य को भी , उसने
कोई भेद नहीं किया। मुझे
तो ऐसा लगता है की इस प्रकार
के ज्ञान की व्यावसायिक शालाएं
भी छद्म ही है , जिनके चलाने वाले
ही कहे की लो !
आपको तो साक्षात्कार
हो रहा है ! कैसे ?"
बुल्ले शाह के जीवन का अनुभव था ,
उन्होंने , किसी पहुंचे गुरु
को नहीं अपनाया था , एक सीधे
साधे किसान को उन्होंने
अपना गुरु माना , भाव था ,
प्रारब्ध था , बुल्ले शाह
की अपनी यात्रा थी , और उस
किसान की भी। उनके इस निर्णय
पे तत्कालीन समाज में
काफी आलोचना भी हुई थी। परन्तु
उनको ईश्वरत्व के दर्शन उस
किसान ने ही कराये। गुरु शिष्य
सम्बन्ध आत्मिक और समर्पण
आंतरिक है , और कभी कभी अंदर
ही अंदर गुप्त रूप से आप ही गुरु और
आप ही शिष्य भी फलित होता है,
ये ऐसा झरना है जब फूटता है
तभी जल की गुणवत्ता का दर्शन
होता है अध्यात्म
तो पारा ज्ञान की भाव नदी है
जिस और बह जाये रास्ता ढूंढ
ही लेती है
एक तरफ मेरा विचार है की ईश्वर
साक्षात्कार
की प्रेरणा स्वाभाविक प्रवाह है
और उस परम के दरबार में भेद नहीं ,
सभी को समान अवसर है , अवसर
ईश्वर देता है , और पहुँचने के रस्ते
भी वो ही दिखता है। इसलिए इस
व्यर्थ की मगजमारी से
किसी भी जीव को बचना चाहिए,
की कौन कैसे किस अध्यात्म के रस्ते
जा रहा है , जा रहा है
यही उसका सच है ; ये
उसकी यात्रा है , उसका प्रारब्ध
है ।
बहुत ही सुन्दर बात
कहीं पढ़ी थी मैंने आप सब से
बाँटना चाहती हूँ " ज्ञानियों ने
ह्रदय को ही आधार
क्यों बनाया ईश्वर प्राप्ति का ,
बहुत सारी व्याख्याएं है पर एक
बिलकुल नयाभाव आपसे
बाँटना चाहती हूँ की ह्रदय
स्थान मध्य है केंद्र है , बिलकुल
वैसा ही जैसा ब्रह्माण्ड में केंद्र
है , केंद्र की यात्रा कही से
भी किसी भी राह से ,
किसीभी बिंदु से शुरू करो , केंद्र पे
ही रुकेंगे , और
कहीं जा ही नहीं सकते। " छोटे से
लौह टुकड़े के चुंबकत्व में
इतनी शक्ति होती है की आस पास
के लौह कणो को चलायमान करके
केंद्र में इकठा कर लेता है । उस
परम केंद्र का चुम्बकत्व
इतना प्रगाढ़ है , उसके खिंचाव में
इतनी शक्ति है , की बस खिंचाव
की दिशा में बिना प्रयास चलते
जाना है और अंत में वहीँ पहुँच
जाना है ..... किसी भी भाव राह
से चले , केंद्र से चले तो केंद्र पे
ही पहुंचेंगे। केंद्र की यात्रा पे
कही और जा ही नहीं सकते ,
वैज्ञानिक है प्रमाणित है , ईश्वर
की साधना भी ऐसी ही ही है ,
इसीलिए केंद्र तक जाने का कोई
एक रास्ता नहीं , जिस राह
भी चले केंद्र पे ही पहुंचेंगे।
मत देखो आस पास कितने चल रहे
है ! मत
आलोचना करो किसका क्या रास्ता है !
मत निर्णय दो सही और गलत का !
यदि आप अभी भी चक्कलस में उलझे
है तो , सुनिए ! आपके लिए
ही वो घंटा एक बार फिर से
बजा । सावधान !
हार-जीत पाना खोना , कम
ज्यादा ऊँचा नीचे आदि शाब्दिक
भेद भाव का भ्रम है। सत्य की उस
ऊंचाई पे न कुछ पाना है न कुछ
खोना है , यही सत्य है और
अनुपलब्धि के तराजू के दो पलड़ों में
मात्र उपलब्धि परमशून्य है।
सबकी यात्रा के साथ ये है
सहयात्रा , सबका जीवन ,
सबका कल्याण , एक विश्वास और
केंद्र है एक ऊर्जा , केंद्र स्थल
हमारे ह्रदय , हमारे भाव
जो ह्रदय से तरंगित है उनमे
सबका कल्याण मंगलकामना और
प्रार्थना , इसके अतिरिक्त
किसी और भाव के लिए कोई जगह
नहीं।
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