वह कौन है , जो दूर से दूर है , और पास से पास भी है ? वह बाहर भी है , भीतर भी है । जो मार्ग भी है और मंजिल भी है । साथ भी है अलग भी है । जो मिलकर भी नहीं मिलता, और न मिलकर भी मिला हुआ है ? कौन है वह , जिसके प्रेम मे मिलन का आनंद भी है और विरह की तड़प भी । वह जो इतने सारे विलोमों का अकेला संगम है ? वह अद्वितीय ईश्वर ही है ...
वह ही इतने समीप है कि उनकी तुलना मे हदय की धड़कने भी दूर लगती है । और वे ही प्रभु इतने दूर भी है कि उन्हे प्राप्त करने मे एक जन्म भी छोटा पड़ जाता है । वे ही मार्ग मे हमारे साथ , हमारा हाथ पकड़कर चलते है , कहा , अपनी ओर ? अदभुद है न । "मुझ ही मे रहकर, मुझ ही से अपनी खोज ये कैसी करा रहे हो ? । खैर कहने को बहुत है , पर सनातन सत्य यही है ---
"उठो , जागो और ऐसी साधना करो कि तुम्हारा साध्य , तुम्हारे समक्ष प्रकट होने को विवश हो जाये। और स्वयं तुम्हारा वरण करे।"
वह ही इतने समीप है कि उनकी तुलना मे हदय की धड़कने भी दूर लगती है । और वे ही प्रभु इतने दूर भी है कि उन्हे प्राप्त करने मे एक जन्म भी छोटा पड़ जाता है । वे ही मार्ग मे हमारे साथ , हमारा हाथ पकड़कर चलते है , कहा , अपनी ओर ? अदभुद है न । "मुझ ही मे रहकर, मुझ ही से अपनी खोज ये कैसी करा रहे हो ? । खैर कहने को बहुत है , पर सनातन सत्य यही है ---
"उठो , जागो और ऐसी साधना करो कि तुम्हारा साध्य , तुम्हारे समक्ष प्रकट होने को विवश हो जाये। और स्वयं तुम्हारा वरण करे।"
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