Tuesday, 1 July 2014

स्वार्थ या भय उन्हें सत्य से नहीं डिगा सकता

महात्माओं के आचरण:- 

देखने में उनके बहुत से आचरण दैवी सम्पदावाले सात्विक पुरुषों-से होते है, परन्तु सूक्ष्म विचार करनेपर दैवी सम्पदावाले सात्विक पुरुषोंकी अपेक्षा उनकी अवस्था और उनके आचरण कहीं महत्वपूर्ण होते है | सत्य स्वरुप में स्थित होने के कारण उनका प्रत्येक आचरण सदाचार समझा जाता है | उनके आचरण में असत्य के लिए कोई स्थान ही नहीं रह जाता | उनका व्यक्तिगत किन्चित भी स्वार्थ न रहने के कारण उनके आचरण में किसी भी दोष का प्रवेश नहीं हो सकता, इसलिए उनके सम्पूर्ण आचरण दिव्य समझे जाते है |
वे सम्पूर्ण भूतों को अभयदानं देते हुए ही विचरते है | वे किसी के मन में उद्वेग करनेवाला कोई आचरण नहीं करते | सर्वर्त्र परमेश्वर के स्वरुप को देखते हुए स्वाभाविक ही तन, मन और धन को सम्पूर्ण भूतों के हित में लगाये रहते है | उनके द्वारा झूठ, कपट, व्यभिचार, चोरी और दुराचार तो हो ही नहीं सकते | याग, दान, तप, सेवा आदि जो उत्तम कर्म होते है, उनमे भी अहंकार का अभाव होने के कारण आसक्ति, इच्छा, अभिमान और वासना आदि का नामो-निशान भी नहीं रहता | स्वार्थ का त्याग होने के कारण उनके वचन और आचरण का लोगों पर अद्भूत प्रभाव पढता है | उनके आचरण लोगों के लिए अत्यन्त हितकर और प्रिय होने से लोग सहज ही उनका अनुकरण करते है |
श्री गीता जी में भगवान कहते है ‘श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करते है , दुसरे लोग भी उसी के अनुसार बरतते है, वह जो कुछ प्रमाण कर देते है, लोग भी उसी के अनुसार बरतते है |’
उनका प्रत्येक आचरण सत्य, न्याय और ज्ञान से पूर्ण होता है, किसी समय उनका कोई आचरण बाह्यद्रष्टि से भ्रमवश लोगों को अहितकर या क्रोधयुक्त मालूम हो सकता है, किन्तु विचारपूर्वक तत्वदृष्टी से देखने पर वस्तुत: उस आचरण में भी दया और प्रेम ही भरा हुआ मिलता है और परिणाम में उससे लोगो का परम हित ही होता है | उनमे अहंता-ममता का अभाव होने के कारण उनका वर्ताव सबके साथ पक्षपातरहित, प्रेममय, और शुद्ध होता है | प्रिय और अप्रिय में उनकी समद्रष्टि होती है | वे भक्तराज प्रह्लाद की भाँती आपतिकाल में भी सत्य, धर्म और न्यायके पक्ष पर ही दृढ रहते है | कोई भी स्वार्थ या भय उन्हें सत्य से नहीं डिगा सकता |
एक समय केशिनी-नाम्नी कन्या को देखकर प्रह्लाद-पुत्र विरोचन और अंगिरा-पुत्र सुधन्वा उनके साथ विवाह करने के लिए परस्पर विवाद करने लगे | कन्या ने कहा की ‘तुम दोनों में जो श्रेष्ठ होगा, मैं उसी के साथ विवाह करुँगी |’ इसपर वे दोनों ही अपने को श्रेष्ठ बतलाने लगे | अंत में वे परस्पर प्राणों की बाजी लगा कर इस विषय में न्याय करने के लिए प्रह्लाद जी के पास गए | प्रह्लाद जी ने पुत्र के अपेक्षा धर्म को श्रेष्ठ समझकर यथोचित न्याय करते हुए अपने पुत्र विरोचन से कहा की ‘सुधन्वा तुझसे श्रेष्ठ है, इसके पिता अंगिरा मुझसे श्रेष्ठ है और इस सुधन्वा की माता तेरी माता से श्रेष्ठ है, इसलिए यह सुधन्वा तेरे प्राणों का स्वामी है |’ यह न्याय सुनकर सुधन्वा मुग्ध हो गया और उसने कहा ‘हे प्रह्लाद ! पुत्र-प्रेम को त्याग कर तुम धर्म पर अटल रहे, इसलिए तुम्हारा यह पुत्र सौ वर्षो तक जीवित रहे |’ (महा० सभा० ६८|७६-७७)
महात्मा पुरुषों का मन और इन्द्रियाँ जीती हुई होने के कारण न्यायविरुद्ध विषयों में तो उनकी कभी प्रवृति नहीं होती | वस्तुत: ऐसे महातमाओ की दृष्टीमें एक सच्चिदानंदघन वासुदेवसे भिन्न कुछ नहीं होने के कारण यह सब भी लीलामात्र ही है, तथापि लोकद्रष्टिमें भी उनके मन, वाणी, शरीर से होने वाले आचरण परम पवित्र और लोकहितकर ही होते है | कामना, आसक्ति और अभिमान से रहित होने के कारण उनके मन और इद्रियों द्वारा किया हुआ कोई भी कर्म अपवित्र या लोकहानिकारक नहीं हो सकता | इसी से वे संसार में प्रमाणस्वरुप माने जाते है |

No comments:

Post a Comment