अपने तन का पालन कर उसका सम्मान करना आवश्यक..
हम अपनी इस देह की शक्ति के माध्यम से ही संसार को देखते, सुनते और अनुभव करते हैं। यह सही है कि हर मनुष्य को अध्यात्मिक ज्ञान के इस सूत्र का अनुभव होना चाहिये कि हम आत्मा हैं पर साथ ही इसे धारण करने वाली देह तथा उसकी इंद्रियों पर ध्यान करना जरूरी है। हमारे अध्यात्मिक ज्ञान में योगासन, प्राणायाम और ध्यान के रूप में ऐसी विधाओं का सृजन किया गया है जिससे शरीर के साथ मन तथा बुद्धि जैसी अनियंत्रित प्रकृत्तियों को नियंत्रत कर जीवन गुजारने की सुविधा मिल जाती है। संसार के मायावी विषयों का प्रभाव मनुष्य पर इतना बुरा पड़ता है कि उसकी बुद्धि केवल भौतिक संग्रह तक ही काम करती है। अनेक लोगों के पास तो इतना समय भी नहीं रहता कि वह अपनी देह के लिये हितकर विषय पर विचार करें।
खाने के समय भी लोग सांसरिक विषय पर ही विचार करते हैं। जहां चार लोग बैठकर खा रहे हों वहां बातचीत का दौर भी चलता है। संसार के मायावी विषयों में गहराई तक डूबे लोगों के लिये अपने पद, धन और और दैहिक शक्ति का बखान करना ही ज्ञान की परिधि में आता है और शांति से भोजन करना उनके लिये एक बेकार विषय है। हमारे अध्यात्मिक दर्शन में खाने को लेकर भी अनेक नियम हैं पर उन नियमों पर अब कोई ध्यान नहीं देता।
ऋगवेद में कहा गया है कि
——————-
यजस्व तन्त्रं त्वस्वाम्।
भावार्थ......-अपने तन का भी पोषण कर उसका सत्कार करें।
मूल बात यह है कि खाना खाते समय मन में पवित्रता होना चाहिये। भोजन को प्रसाद की तरह ग्रहण करने से वह सहजहता से पच जाता है। खाने का मतलब केवल पेट भरना ही नहीं होता बल्कि वह प्रक्रिया भी उस देह की पूजा करना है जो परमपिता परमात्मा की कृपा से प्राप्त हुई है। खाते समय यह अनुभूति करना चाहिये कि मुंह में जाता हुआ भोजन हमारे शरीर को एक नई ऊर्जा दे रहा है। उससे हमारे शरीर की शिथिल इंद्रियों को राहत अनुभव हो रही है। यह संसार संकल्प का खेल है जब हम इस तरह पवित्र विचार करते हुए अपनी दैहिक क्रियाओं में लिप्त रहेंगे तो हमारे कर्मो के फल भी पवित्र होंगे। भोजन इस तरह न करें कि वह तो मजबूरी में करना ही है वरना हमारी देह को कष्ट होगा। हमें यह सोचते हुए खाना चाहिये कि इससे हमारी देह पुष्ट होकर सांसरिक विषयों में हमें विजय दिलायेगी।
हम अपनी इस देह की शक्ति के माध्यम से ही संसार को देखते, सुनते और अनुभव करते हैं। यह सही है कि हर मनुष्य को अध्यात्मिक ज्ञान के इस सूत्र का अनुभव होना चाहिये कि हम आत्मा हैं पर साथ ही इसे धारण करने वाली देह तथा उसकी इंद्रियों पर ध्यान करना जरूरी है। हमारे अध्यात्मिक ज्ञान में योगासन, प्राणायाम और ध्यान के रूप में ऐसी विधाओं का सृजन किया गया है जिससे शरीर के साथ मन तथा बुद्धि जैसी अनियंत्रित प्रकृत्तियों को नियंत्रत कर जीवन गुजारने की सुविधा मिल जाती है। संसार के मायावी विषयों का प्रभाव मनुष्य पर इतना बुरा पड़ता है कि उसकी बुद्धि केवल भौतिक संग्रह तक ही काम करती है। अनेक लोगों के पास तो इतना समय भी नहीं रहता कि वह अपनी देह के लिये हितकर विषय पर विचार करें।
खाने के समय भी लोग सांसरिक विषय पर ही विचार करते हैं। जहां चार लोग बैठकर खा रहे हों वहां बातचीत का दौर भी चलता है। संसार के मायावी विषयों में गहराई तक डूबे लोगों के लिये अपने पद, धन और और दैहिक शक्ति का बखान करना ही ज्ञान की परिधि में आता है और शांति से भोजन करना उनके लिये एक बेकार विषय है। हमारे अध्यात्मिक दर्शन में खाने को लेकर भी अनेक नियम हैं पर उन नियमों पर अब कोई ध्यान नहीं देता।
ऋगवेद में कहा गया है कि
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यजस्व तन्त्रं त्वस्वाम्।
भावार्थ......-अपने तन का भी पोषण कर उसका सत्कार करें।
मूल बात यह है कि खाना खाते समय मन में पवित्रता होना चाहिये। भोजन को प्रसाद की तरह ग्रहण करने से वह सहजहता से पच जाता है। खाने का मतलब केवल पेट भरना ही नहीं होता बल्कि वह प्रक्रिया भी उस देह की पूजा करना है जो परमपिता परमात्मा की कृपा से प्राप्त हुई है। खाते समय यह अनुभूति करना चाहिये कि मुंह में जाता हुआ भोजन हमारे शरीर को एक नई ऊर्जा दे रहा है। उससे हमारे शरीर की शिथिल इंद्रियों को राहत अनुभव हो रही है। यह संसार संकल्प का खेल है जब हम इस तरह पवित्र विचार करते हुए अपनी दैहिक क्रियाओं में लिप्त रहेंगे तो हमारे कर्मो के फल भी पवित्र होंगे। भोजन इस तरह न करें कि वह तो मजबूरी में करना ही है वरना हमारी देह को कष्ट होगा। हमें यह सोचते हुए खाना चाहिये कि इससे हमारी देह पुष्ट होकर सांसरिक विषयों में हमें विजय दिलायेगी।
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